एक षडय़ंत्र के अंतर्गत भारत को नष्ट करने के लिए जो मिथ्या और भ्रामक कथा-कहानियां गढ़ी गयी है उनमें सबसे प्रमुख है-आर्यों का विदेशी होना। प्रश्न है कि ऐसी कहानियां गढ़ी क्यों गयीं? इसका उत्तर ये है कि भारतीयों के प्राचीन धर्म और इतिहास को मिटाकर भारत में ईसाइयत का प्रबलता से प्रचार प्रसार करना अंग्रेजों का उद्देश्य था। इसके लिए उन्होंने मैक्समूलर को उचित समझा। लॉर्ड मैकाले ने मैक्समूलर को भारत के वेदों और उत्कृष्ट साहित्य के अतार्किक और अवैज्ञानिक अर्थ करने का दायित्व सौंपा। सन 1857 की क्रांति समाप्त हुई तो भारत को सांस्कृतिक रूप से उजाड़कर उसका ईसाईकरण करने का संकल्प व्यक्त करते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड पामस्र्टन ने घोषणा की कि-”यह हमारा कत्र्तव्य ही नही, अपितु हमारा अपना हित भी इसी में है कि भारत भर में ईसाइयत का प्रचार प्रसार हो।” (संदर्भ : क्रिश्चियनिटी एण्ड गवनर्मेंट ऑफ इण्डिया मैथ्यू पृष्ठ 194)।
ईस्ट इण्डिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चेयरमैन मि. मेंगल्स ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में कहा-”विधाता ने हिंदुस्तान का विशाल साम्राज्य इंगलैंड के हाथों में इसलिए सौंपा है कि ईसा मसीह का झण्डा इस देश के एक कोने से दूसरे कोने तक लहराए। प्रत्येक ईसाई का कत्र्तव्य है कि समस्त भारतीयों को अविलंब ईसाई बनाने के महान कार्य में पूरी शक्ति के साथ जुट जाएं।”
इस सोच के साथ मैक्समूलर ने अपनी मिथ्या अवधारणाएं इस देश पर थोपीं। जब वह अपना काम कर चुका तो उसने शेखी बघारते हुए 16 दिसंबर 1868 को भारत सचिव ”ड्यूक ऑफ आर्गाइल” को एक पत्र यूं लिखा-”भारत का प्राचीन धर्म अब नष्ट प्राय है। अब यदि ईसाइयत उसका स्थान नही लेती तो यह किसका दोष होगा?” मैक्समूलर के प्रयास की प्रशंसा करते हुए उसके एक मित्र ई.बी. पुसे ने उसे लिखा है-”भारत को ईसाई बनाने की दिशा में किया गया आपका प्रयास एक नये युग का सूत्रपात करने वाला होगा।”
‘वेदों वाले बाबा ने’ दी चुनौती:
जब मैक्समूलर वेदों और भारतीय इतिहास की मान्यताओं के साथ खिलवाड़ कर उनका विकृतीकरण कर रहा था, तब महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज (जिन्हें ‘वेदों वाला बाबा’ कहा जाता है) ने उसे चुनौती दी। महर्षि दयानंद ने देशवासियों को ‘सत्यार्थप्रकाश’ के माध्यम से बताया कि मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात तिब्बत में हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात तिब्बत से सूधे इसी देश (भारत) में आकर बसे। इसके पूर्व इस देश का कोई नाम नही था, और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में कोई बसता था।”
महाभारत की साक्षी भी ध्यातव्य है
महाभारत में भी मनुष्यों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। यह ग्रंथ पिछले सवा पांच हजार वर्षों से डिण्डिम-घोष करता आ रहा है-
”हिमालयाभिधानोअयं ख्यातो लोकेषु पावन:। अर्थयोजन विस्तार: पंचयोजनमायत:।। परिमण्डलयोमध्ये मेरूरूत्तम पर्वत:। तत: सर्वा समुत्पन्ना वृत्तयोद्विजसत्तम।। ऐरावती वितस्ता च विशाला:देविका कुहू। प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूमते भरतर्षभ।।”
अर्थात संसार में पवित्र हिमालय है। उसमें आधा योजन चौड़ा और पांच योजन घेरेवाला ‘मेरू’ है। जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। यहीं से ऐरावती, वितस्ता, विशाल देविका और कुहू नदियां निकलती हैं।”
सभी सम्प्रदायों की साक्षियां क्या कहती हैं?
आज का विज्ञान बार-बार कह रहा है कि इस सृष्टि में कितनी ही बार जल प्रलय हो चुकी है। इस प्रलय को विश्व के सभी सम्प्रदायों ने अपने अपने ढंग से अपने अपने गं्रथों से मान्यता प्रदान की है। बाइबल में कहा गया है कि ईश्वर ने नूह नामक महामानव को सावधान कर दिया था, जिसने एक जहाज लिया और उसमें कुछ जोड़ों के साथ एक ऊंचे अरारत नामक पर्वत पर जाकर शरण ली। चालीस दिन तक घनघोर वर्षा होती रही, सर्वत्र जल ही जल हो गया। तब केवल नूह का जहाज बचा।”
इसी कहानी को थोड़े परिवर्तन के साथ पारसी ग्रंथ ‘अहुरमज्द’ में दोहराया गया है। वहां नूह (मनु) को विवनद्यत के पुत्र यिम (विवस्वान के पुत्र यम) कहा गया है। ऐसी ही कथा में इस्लाम की मान्यता है। ये सारे वर्णन भारत के शतपथ ब्राह्मण की उस कथा के टूटे फूटे अंश हैं, जिसमें एक मछली मनु के पास आकर कहती है कि ”मेरी रक्षा करो। आगे चलकर एक बहुत बड़ी बाढ़ आने वाली है, जल से समस्त पृथ्वी आप्लावित होने वाली है। जिसमें सब प्राणियों का नाश हो जाएगा। उस समय मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी।” मनु ने उसे बचा लिया, जब भयंकर जलप्लावन हुआ तो मनु ने उसके कहे के अनुसार एक नाव बनाई। मछली नाव को खींचकर उत्तरी पहाड़ (हिमालय) की ओर ले गयी। जब पानी घटा तो अकेले मनु बचे थे। कुछ काल पश्चात वहां श्रद्घा नाम की स्त्री उत्पन्न हुई। उससे मानवी प्रजा की सृष्टि हुई।
इस प्रकार इन कथा कहानियों को यदि जोड़कर देखा जाए तो सभी वर्तमान मानव सृष्टि की एक ही कहानी को दोहराते हैं और सभी का संकेत इस मानवसृष्टि की उत्पत्ति के लिए एक पर्वत की ओर है। कहानी को सबसे सुंदर ढंग से शतपथ ब्राह्मण ने प्रस्तुत किया है, शेष ग्रंथों में उसे विकृत कर दिया गया है। कहानी का यह एक सामान्य नियम भी है कि वह मूल गं्रथ में तो सुरक्षित रहती है, शेष ग्रंथों में यह जैसे-जैसे विस्तार पाती है, वैसे-वैसे ही उसमें विकृतियां आती जाती हैं। जैसे हमारी रामायण और महाभारत भी हैं। ये अनुवाद होते-होते अन्य भाषाओं में पर्याप्त सीमा तक विकृत कर दी गयी हंै। यहां हमें इस कहानी का फलितार्थ देखना चाहिए और वह यही है कि मानव सृष्टि हिमालय पर हुई। इसलिए महर्षि दयानंद का ये मत कि मानवोत्पत्ति सर्वप्रथम हिमालय के त्रिविष्टप क्षेत्र में हुई, तर्कसंगत और बुद्घिसंगत ही जान पड़ता है। यहीं से ये आर्य लोग विश्व में शेष भागों में पहुंचे।
जब मैक्समूलर ने भी अपनी धारणा बदली:
सच छुपाए नही छुपता। वह सामने आता है और जब वह छुपाने वाले के सामने भी आता है तो कई बार तो उसे भी अपनी मान्यता या धारणा को परिवर्तित करने के लिए विवश कर देता है। मैक्समूलर के साथ भी यही हुआ।
उसने अपनी पुस्तक इण्डिया व्हाटकैन टीच अस” में जो स्वीकारोक्ति की है, वो भारत के उन उच्छिष्टभोजी लेखकों के मुंह पर एक तमाचा है जो अभी तक आर्यों को विदेशी मानने या समझाने का प्रयास कर रहे हैं। वह लिखता है:-”यह निश्चित हो चुका है कि हम सब पूर्व से ही आये हैं। इतना ही नही हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख महत्वपूर्ण बातें हैं सबकी सब हमें पूर्व से ही मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जायें तभी हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोए हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।”
इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है कि मैक्समूलर ने अपने पश्चिमी जगत की सारी प्रमुख और महत्वपूर्ण बातों को पूर्व से ही मिली होने की बात कहकर यह भी स्वीकार किया है कि हिंदुत्व एक जीवन पद्घति है जो वास्तविक रूप से मानव को मानव बनाती है, और अच्छी व सच्ची बातों की विश्व में एकमात्र प्रचारिका व प्रसारिका है। जिसके लिए शेष सारा विश्व उसका ऋणी है।
क्रूजे और बिलियम दुरां भी यही कहते हैं
आर्यों के भारतीय होने और भारतीयों का आर्य होने का भूत मैक्समूलर के सिर चढ़कर ही नही बोला बल्कि फ्रांस के महान विचारक क्रूजे ने भी यही कहा। उन्होंने लिखा है कि-”यदि कोई देश वास्तव में मनुष्य जाति का पालक होने अथवा उस आदि सभ्यता का जिसने विकसित होकर संसार के कोने-कोने में ज्ञान का प्रसार किया, स्रोत होने का दावा कर सकता है तो निश्चत ही वह भारत है।”
इसी बात को विलियम दुरां ने यों कहा है-”भारत मनुष्य जाति की मातृभूमि तथा संस्कृत यूरोपियन भाषाओं की जननी है, वह हमारे दर्शन की जननी है, अरबों के माध्यम से हमारे गणित की जननी, बुद्घ के माध्यम से ईसाइयत में निहित आदर्शों की जननी। ग्राम पंचायत के माध्यम से स्वायत्त शासन की और लोकतंत्र की जननी है। वास्तव में भारत माता अनेक रूपों में हम सबकी जननी है।”
ऐसी स्पष्ट स्वीकारोक्तियां मां भारती को और इस पवित्र भारतभूमि को विश्व के प्रत्येक देश की आदि जननी और ‘पुण्य भू:’ और ‘पितृभू:’ होने का डिण्डिम घोष कर रही हैं। बहुत मीठा संगीत है ये। इसकी मीठी मीठी तान जिसके कानों में भी पड़ती है वही झूम उठता है। वास्तव में मां भारती के प्रति विदेशी लेखकों का ये गुणगान वो सामगान है जिसे कोई विरला ही समझ सकता है, पर जो समझ लेता है वह मानो अनहद के असीम आनंददायक रस सागर में डूब जाता है। अब भी जो लोग अपना आदि देश कहीं और खोजते हैं, तो उनके लिए यही कहा जा सकता है, कि वे दया के पात्र हैं।
मैगास्थनीज ने कहा था….
मैकक्रिण्डल ने अपनी पुस्तक ‘एंशियेण्ट इण्डिया ऑफ मैगास्थनीज’ में बड़ी पते की बात कही है। वह लिखता है कि-”भारत के एक विशाल देश होने के कारण उसमें विभिन्न एवं बहुसंख्यक जातियां बसती हैं, जिनमें मूलत: विदेशी एक भी नही है।”
अब से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश के लिए मैगास्थनीज ऐसा लिखता है कि हम बिना सोचे समझे अपने विषय में स्वयं निंदनीय सोच रखते हैं। इस निंदनीय सोच को 4 सितंबर 1977 को संसद में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य फ्रैंक एंथोनी ने प्रकट किया था। उसने भारतीय संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से संस्कृत को निकालने की मांग की थी और यह कहा था कि ये एक विदेशी भाषा है, इसलिए इसे संविधान की इस सूची में से निकाल दिया जाए। मैकाले और मैक्समूलर के मानस पुत्र हमने पैदा किये, क्योंकि हमें मैगास्थनीज को नही पढऩे दिया गया।
तिलक ने भी अपनी पुरानी मान्यता का खण्डन किया था
जिन भारतीयों ने आर्यों को विदेशी माना उनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का नाम भी सम्मिलित है। उनकी इस धारणा पर विचार विमर्श करने के लिए बाबू उमेश चंद्र विद्यारत्न उनसे मिलने उनके निवास पर गये। अपनी पुस्तक ‘मानवेर आदि जन्मभूमि’ में बाबू उमेशचंद्र लिखते हैं-”गत वर्ष हम तिलक के घर गये और उनके साथ पांच दिन तक इस विषय पर बातचीत करते रहे। अंत में उन्होंने सरलता पूर्व कह दिया कि हमने मूल वेद नही पढ़े, हमने तो केवल साहब लोगों के अनुवाद पढ़े हैं।”
इसका अभिप्राय है कि तिलक ने भी विदेशी साहबों (अंग्रेजों) के अनुवादों को पढ़कर ही अपनी मान्यता स्थापित की थी। तिलक एक अगस्त 1920 को जब स्वर्गवासी हुए तो उस समय गीता प्रैस गोरखपुर के संस्थापक और ‘कल्याण’ के संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके पास थे। तिलक जी के स्वर्गवासी होने से पूर्व का एक संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने कहा था-”आर्यों के आदि देश के विषय में तिलक महाराज ने पुन: एक पुस्तक तैयार की थी, जिसमें उन्होंने अपनी पुरानी मान्यताओं का खण्डन किया था। नयी मान्यता के अनुसार आर्य भारतवर्ष के ही थे। इस पुस्तक की पाण्डुलिपि स्वयं मैंने देखी थी, परंतु उसे प्रेस में छपने देने से पहले ही तिलक महाराज का देहांत हो गया था। उसके पश्चात उस पाण्डुलिपि का क्या हुआ, कुछ पता नही चला। मैंने उनके उत्तराधिकारियों से उस पुस्तक के संबंध में पूछताछ की, किंतु कोई साधन नही मिल सका।”
निश्चित रूप से तिलक जी की यह विद्वत्ता और महानता थी कि उन्होंने अपनी भूल सुधार कर ली थी। क्योंकि ऐसा कोई विद्वान और महान व्यक्ति ही कर सकता है। अच्छा हो कि हम भी अपने विषय में भूल सुधार कर लें।
ये भी प्रमाण हैं
-भारत का प्राचीन नाम आर्यावत्र्त है, संसार में अन्य कोई स्थान आर्यावत्र्त के नाम से नही जाना जाता।
– ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ का जयघोष केवल भारत के आर्य (हिंदू) परिवारों में ही होता है।
-आर्यों के वेद केवल भारत में ही सम्माननीय हैं।
-प्राचीन काल से ही भारत वैदिक संस्कृति का प्रणेता रहा है और आज भी यहां अधिकतर संस्कार वैदिक रीति से पूर्ण होते हैं।
– संसार की सारी भाषाएं और सारा ज्ञान विज्ञान भारत की संस्कृत और वेदों से ही जन्मा है। जिस पर संसार के अधिकांश विद्वान सहमत हैं।
– संसार के विभिन्न भागों में आज भी कुछ विकृतियों के साथ वैदिक मान्यताएं मिलती हैं, जिनका मूल भारत है।
ये साक्षियां भी यही सिद्घ कर रही हैं कि हमें अपने ही विषय में व्याप्त भ्रांतियों का शिकार नही होना चाहिए।