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विशेष संपादकीय

बंद मुट्ठी लाख की…

तीन व्यक्ति जा रहे थे। उन तीनों की मुठ्ठियां बंद थीं और वे आपस में बिना बात किये चुप अपने गंतव्य की ओर बढ़े जा रहे थे। एक व्यक्ति ने दूर से उन्हें अपनी ओर मौनावस्था में आते देखा। वह व्यक्ति उन तीनों के अपने निकट आने पर उनकी बंद मुट्ठी देखकर उनके प्रति और भी अधिक उत्सुकता से भर गया। तीन आदमी, तीनों चुप और तीनों की मुट्ठीबंद। तब उस व्यक्ति ने सबसे पहले उन तीनों से सबसे छोटी अवस्था के बच्चे से पूछा-”बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?”
बच्चे ने तब कहा-”भविष्य की असीम आशाभरी संभावनायें, जो मेरे जीवन का निर्माण करने जा रही हंै।”
व्यक्ति ने पूछा-”फिर तू चुप क्यों है?”
बच्चे ने कहा-”मेरी आशाभरी संभावनाओं का क्षरण न हो जाए, इसलिए मैं चुपचाप उन्हें संभालकर पकड़े चल रहा हूं।”
व्यक्ति ने बंद मुट्ठी वाले दूसरे व्यक्ति से, (जो कि एक हट्टा-कट्टा नवयुवक था) भी वही प्रश्न किया : तो उसने कहा-”मैं अपनी सारी संभावनाओं को मूत्र्त रूप दे रहा हूं और मेरे द्वारा बनाये जा रहे चित्र में कोई न्यूनता न रह जाए, इसलिए पूर्णत: मौन होकर अपना कार्य कर रहा हूं।” तब उस व्यक्ति ने अंतिम तीसरे व्यक्ति से (जो कि पूर्णत: वृद्घ था) भी वही प्रश्न किया।
तब उस वृद्घ व्यक्ति ने कहा कि-”मेरी मुट्ठी में अनुभवों की सौगात है, जिन्हें मैं लोगों को मुफ्त बांटता फिरता हूं। मैं चुप उस परमपिता परमात्मा की कृपा को देखकर हूं, जो मेरे द्वारा खुले दिल से आशीर्वाद को बांटते देखे जाने पर भी मेरी मुट्ठी को खाली नही होने देता है। लगता है वह मेरे भीतर विराजमान है और मुझे बार-बार प्रेरित कर रहा है कि और बांट….और बांट…..तुझे कमी नही आने दूंगा।”
तीसरा व्यक्ति समझ गया था कि इन तीनों की बंद मुट्ठी और मौन रहने का रहस्य क्या है?
सचमुच साधना की कोई अवस्था नही होती, साधना का कोई स्वरूप नही होता। हर व्यक्ति हर अवस्था में एक साधक है-बस, उसे अपनी साधना को समझना है कि उसका हर कार्य साधना कैसे है? हर कार्य के पीछे एक कत्र्तव्य खड़ा है, जैसे ही वह कत्र्तव्य उस कार्य के साथ एकाकार होता है, वैसे ही ससीम मानव असीम ईश्वर की इस पावन सृष्टिï में एक साधक बन उठता है, और संगीत की आनंदमयी स्वर लहरियों में मग्न होने लगता है। तब उसके लिए संसार के तुच्छ पूर्वाग्रह कोई मायने नही रखते, वह हर कार्य अपने कत्र्तव्य भाव से प्रेरित होकर करने लगता है, तब उसका व्यक्तित्व भी विराट स्वरूप लेने लगता है। जैसे ही व्यक्ति संसार के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर अपने निर्णयों पर उन्हें हावी करता है, वैसे ही उसके व्यक्तित्व का विराट स्वरूप सिमटने लगता है।
आज संसार में अनुभववृद्घ माता पिता को घंटों से निकालकर वृद्घाश्रमों में डाला जा रहा है जो बुढ़ापा घरों में और समाज के अन्य कार्यक्रमों में अपना आशीर्वाद बांटता और सम्मान पाता वह दर-दर की ठोकरें खाने के लिए खुला छोड़ दिया गया है। इससे वह दया की भीख मांगता फिर रहा है। उसकी मुट्ठी खुली हुई देखकर समझदार और चिंतनशील लोगों को कष्टï होता है, जब वह हाथ फेेलाकर रोटी के लिए किसी के सामने गिड़गिड़ाता है।
भारत की संस्कृति यह तो नही थी, ना है और ना हो सकती है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया’ की प्रार्थना करने वाला ये भारत अपने वृद्घों के प्रति इतना अनुदार और असहिष्णु कैसे हो गया?
कैसे इसके वृद्घों की मुट्ठी खुल गयी है? इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
जीवन के विषय में पश्चिमी देशों की धारणा है कि व्यक्ति ‘सैल्फ मेड’ होता है, वह संघर्ष करके स्वयं को निर्मित करता है और समाज में अपना स्थान बनाता है। जबकि हमारी मान्यता है कि व्यक्ति के निर्माण में बहुत से लोगों का हाथ होता है, सबसे पहले माता, फिर पिता फिर गुरू अन्य सगे संबंधी और संसार के अन्य बहुत से लोग। पश्चिमी देशों की धारणा ने विस्तार पाया और हमारी जीवन संबंधंी धारणा का संकुचन हुआ तो हमने एक झटके में ही बाहरी लोगों के अपने जीवन निर्माण में उनके योगदान को नकार दिया। अगले झटके में सगे संबंधियों मित्रों और बंधु बांधवों का सहयोग नकार दिया। बात यहीं नही रूकी। आगे बढ़ी, तो हमने गुरू, पिता और अंत में माता को भी नकारना आरंभ कर दिया।
जब अपने मूल्यों पर किसी बाहरी अवधारणा या चिंतन शैली की कलम चढ़ाई जाती है तो उसका परिणाम यही हुआ करता है। हमने अपनी दयनीय स्थिति स्वयं ने बनायी है और इस दयनीय स्थिति के कारणों को कहीं और ढूंढ़ रहे हैं। संसार को हमने बताया कि बुजुर्गों से उनके आशीर्वाद की सौगात को जितना अधिक से अधिक लूट सकते हो, लूट लो। हीरे हैं जीवन यात्रा मे काम आएंगे, वक्त पर एक हीरे को भी नीलाम करने लगे तो वह ही मालामाल कर देगा।
पर आज हम जीवन मूल्यों को लुटा रहे हैं। हमारे हाथ से हीरे छूट रहे हैं और हम कंगालों की भांति सारा तमाशा चुपचाप देख रहे हैं। बुढ़ापा सड़कों पर सरक रहा है। जवानी क्लबों में थिरक रही है और बचपन टी.वी. के सामने कार्टूनों के लिए ताली बजा बजाकर ‘मुट्ठी खोल’ रहा है। सारी मुट्ठियां खुली हुई हैं। बुढ़ापे की मुट्ठी भीख मांगने से खुली है, तो जवानी की मुट्ठी क्लबों में ताली बजाने से खुल गयी है और बचपन की मुट्ठी टी.वी. के सामने कार्टूनों पर ताली बजाने से खुल गयी है। सबकी साधना भंग हो गयी है। मुट्ठी बंद रहतीं तो व्यवस्था बनी रहती। इसलिए कहा गया है कि -‘बंद मुट्ठी लाख की और खुली मुट्ठी खाक की।’
हमने लाखों वर्षों के अपने ज्ञान को और सामाजिक व्यवस्था को पिछले 67 वर्षों में मुट्ठी खोलकर गंवा दिया है।…तो हमने इन 67 वर्षों में खाक ही कमायी है-यही कहा जाएगा।

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