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थोगन संगमा का बलिदान

12 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

 

1857 के स्वाधीनता समर में भारतीयों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली; फिर भी संघर्ष लगातार जारी रहा। भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र यद्यपि शिक्षा और आर्थिक स्थिति में दुर्बल था, फिर भी वहाँ के वीरों ने इस संघर्ष की अग्नि को धीमा नहीं पड़ने दिया।

अंग्रेज मेघालय स्थित गारो पहाड़ को अपने कब्जे में करना चाहते थे; पर स्थानीय वनवासी वीरों ने अपने मुखिया थोगन नेगमेइया संगमा के नेतृत्व में उन्हें नाकों चने चबवा दिये। संगमा ने स्थानीय युवकों को संगठित कर अंग्रेजों से लम्बा संघर्ष किया।

थोगन संगमा का जन्म ग्राम छिद्दुलिबरा, जिला सिंगसान गिरी (वर्तमान नाम विलियम नगर) में हुआ था। बचपन से ही उनमें नेतृत्व के गुण थे, अतः वह कई गाँवों के मुखिया बन गये। वे एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने उन गाँवों के लोगों को कठोर दण्ड दिया, जिन्होंने विदेशी और विधर्मी अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इससे उनकी धाक सब ओर जम गयी। थोगन संगमा ने ने गाँव-गाँव घूमकर युवकों को संघर्ष के लिए तैयार किया। इस कार्य में दालबोट सिरा नामक वनवासी वीर उनका सहयोगी था; पर इससे अंग्रेज संगमा को अपनी आँख का काँटा समझने लगे।

गारो पहाड़ पर अधिकार करने के लिए अंग्रेजों ने एक साथ तीन ओर से हमला किया। पहला वर्तमान बंगलादेश में स्थित जिला मैमनसिंह, दूसरा ग्वालपाड़ा और तीसरा धावा बर्मा की ओर से बोला गया। अंग्रेज आधुनिक हथियारों से लैस थे, जबकि वनवासियों के पास उनके पारम्परिक तीर-कमान आदि ही थे। बांग्लादेश की ओर से आ रहे कैप्टन डली को सबसे कम दूरी तय करनी थी, अतः उसने सोमेश्वरी नदी के तट पर अपनी छावनी बनायी और शेष दोनों टुकड़ियों की प्रतीक्षा करने लगा।

जब थोगन के साथियों को यह पता लगा कि कैप्टन डली की टुकड़ी अपने अन्य साथियों की प्रतीक्षा कर रही है, तो उन्होंने पहले हमला करने की रणनीति अपनायी और धावा बोलकर छावनी में आग लगा दी; पर अंग्रेजों की बन्दूकों और आधुनिक शस्त्रों के आगे वनवासियों के हथियार बेकार सिद्ध हुए। अतः उनका हमला विफल रहा; पर थोगन और उसके साथियों ने हार नहीं मानी। वे साहस के साथ नये संघर्ष की तैयारी करने लगे।

अंग्रेजों को भी सब सूचना मिल रही थी। इधर कैप्टन केरी और कैप्टन विलियम की टुकड़ियाँ भी आ पहुँची। इससे अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी। उन्होंने तूरा पर नया हमला किया। अब थोगन ने लोहे के गरम तवों को केले के तनों से ढाँपकर ढाल और कवच बनाये; पर इससे क्या होने वाला था ? फिर भी संगमा ने अच्छी टक्कर ली। अनेक अंग्रेज सैनिक हताहत हुए। अंग्रेज अधिकारी इससे घबरा गये। अब उन्होंने धोखे का सहारा लिया। उन्होंने सूचना भेजकर 12 दिसम्बर, 1872 को वीर थोगन संगमा को बातचीत के लिए बुलाया। सरल चित्त संगमा उनके शिविर में चला गया।

पर धूर्त अंग्रेजों ने वहां उसे गोली मार दी। यह समाचार जैसे ही उनके साथियों को मिला, सब अंग्रेजों पर पिल पड़े। केवल बड़े ही नहीं, तो बच्चे भी अपने हथियार लेकर मैदान में आ गये; लेकिन अन्ततः वे सब भी वीरगति को प्राप्त हुए और अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गारो पहाड़ पर अधिकार कर लिया।

आज भी 12 दिसम्बर को वीर थोगन संगमा की स्मृति में गारो क्षेत्र में ‘स्वातंत्र्य सैनिक दिवस’ मनाया जाता है।

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