22 अक्तूबर/जन्म-दिवस

22 अक्तूबर, 1873 ई. को दीपावली वाले दिन जन्मे तीर्थराम गणित के मेधावी छात्र थे। एक बार प्रश्नपत्र में दस में से कोई पाँच प्रश्न हल करने को कहा गया। तीर्थराम को स्वयं पर विश्वास था। उन्होंने सभी प्रश्न हलकर लिख दिया कि कोई पाँच जाँच लें। जाँचने पर सभी प्रश्नों के उत्तर ठीक निकलेे। एक बार एक प्रश्न का उत्तर बहुत देर तक ठीक न आने पर वे छुरी लेकर बैठ गये। निश्चय किया कि एक घण्टे में यदि प्रश्न हल न हुआ, तो आत्मघात कर लेंगे; पर समय से पूर्व ही उन्होंने ठीक उत्तर निकाल लिया।

श्री हीरानंद गोसाईं और श्रीमती तीर्थदेवी के पुत्र तीर्थराम प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के बाद लाहौर के क्रिश्चियन कालिज में गणित पढ़ाने लगे। अपनी योग्यता और पढ़ाने के निराले ढंग के कारण वे छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे। उनका मन प्रभुभक्ति में बहुत लगता था। स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों का उनके मन पर बहुत प्रभाव था।

उन्हें लगता था कि कोई शक्ति उन्हें अपनी ओर खींच रही है। उनकी इच्छा संन्यास लेकर पूरी तरह अध्यात्म में डूब जाने की थी; पर गृहस्थाश्रम की बेड़ियाँ भी उनके पाँवों में पड़ीं थीं। पत्नी और दो बालकों का दायित्व भी उन पर था। अतः वे अनिर्णय की स्थिति में थे।

एक दिन वे प्रातः कुछ जल्दी ही विद्यालय जा रहे थे। रास्ते में एक सफाईकर्मी महिला सड़क पर झाड़ू लगा रही थी। तीर्थराम जी को सीधे आता देख वह चिल्लाई – प्रोफेसर साहब, एक तरफ हो जाइये। बीच में चलना ठीक नहीं। आप धूल में गन्दे हो जायेंगे। इसलिए कृपया एक तरफ हो जायें।

वह तो उन्हें धूल से बचाने के लिए यह कह रही थी; पर तीर्थराम जी ने उसके शब्दों में छिपे मर्म को पकड़ लिया। वे समझ गये कि गृहस्थ या संन्यास में से एक मार्ग चुनकर उन्हें अब एक तरफ हो जाना चाहिए। उन्होंने उसी क्षण संन्यास का निश्चय कर उस महिला के पाँव पकड़ लिये – माँ, तुमने मेरा संशय मिटा दिया। अब मैं हमेशा के लिए एक तरफ ही हो जाता हूं।

विद्यालय पहुँचकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनके साथियों ने उन्हें बहुत ऊँच नीच बताने का प्रयत्न किया; पर वे अपने निश्चय से नहीं डिगे। 1899 ई. की दीपावली पर उन्होंने संन्यास ले लिया और उत्तराखण्ड की यात्रा पर चल दियेे। उनकी पत्नी भी जिदपूर्वक उनके साथ चल दी।

हरिद्वार से आगे गंगा के किनारे चलते हुए उन्होंने पत्नी से कहा कि अब हम पूरी तरह प्रभु के आश्रय में हैं। अतः तुम्हारे शरीर पर आभूषण शोभा नहीं देते। इन्हें गंगा जी में फेंक दो। महिलाओं को आभूषण अत्यन्त प्रिय होते हैं। अतः पत्नी एक बार तो सकुचाई; पर फिर उसने आभूषण और सब धन गंगा मां को समर्पित कर दिया।

एक दो दिन और इसी तरह वे चलते रहे। एक दिन उन्होंने कहा कि संन्यासी अपने पिछले जीवन के साथ भावी जीवन के लिए भी कोई आकांक्षा नहीं रखता। मोह और माया का त्याग ही सच्चा संन्यास है। अतः इस बच्चे को भी माँ गंगा की झोली में डाल दो; लेकिन उनकी पत्नी अपनी कोख से उत्पन्न बच्चे को त्यागने को तैयार नहीं हुई। इस पर स्वामी जी ने उसे भी घर लौट जाने को कहा। पत्नी वापस लौट गयी।

संन्यास लेकर वे स्वामी रामतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए। भक्ति की मस्ती में वे स्वयं को बादशाह राम और अपने शरीर को साक्षात भारत कहते थे। टिहरी के पास भिलंगना नदी के तट पर स्थित ग्राम सिमलासू में उन्होंने लम्बी साधना की। वहीं 17 अक्तूबर, 1907 को दीपावली के दिन उन्होंने जलसमाधि ले ली। इस प्रकार उनका जन्म, संन्यास और देहान्त दीपावली वाले दिन ही हुआ।
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