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इतिहास के पन्नों से भयानक राजनीतिक षडयंत्र

इतिहास पर गांधीवाद की छाया , अध्याय – 2 , जलियांवाला बाग हत्याकांड पर गांधीजी देशवासियों के साथ नहीं थे

सन 1919 में भारतीय इतिहास में जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड की एक बहुत ही निर्दयतापूर्ण घटना घटित हुई थी। उस समय देश के लोगों की एक स्वर से मांग थी कि नरसंहार के खलनायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए । लोगों का आक्रोश उफ़न रहा था और जिन लोगों ने इस हत्याकाण्ड में अपने बलिदान दिए थे उनके परिजन व प्रियजन ही नहीं अपितु सभी देशवासी उनके बलिदान का ‘उचित प्रतिशोध’ अंग्रेजी सरकार से लेना चाहते थे ।

‘प्रतिशोध’ पर गांधीजी का विचार

दुर्भाग्य का विषय है कि गांधीजी के यहाँ ‘प्रतिशोध’ नाम की कोई चीज नहीं थी। यदि कोई मुस्लिम हिन्दू की हत्या कर दे या अंग्रेज अधिकारी के साथ कोई क्रान्तिकारी किसी प्रकार की वारदात कर दे और उसमें ब्रिटिश सरकार किसी प्रकार की प्रतिशोध की कार्यवाही करे तो इस पर गांधीजी की सहमति मिल सकती थी , परन्तु यदि हिन्दू किसी भी प्रकार के ‘प्रतिशोध’ की बात करता था तो गांधीजी उसका समर्थन न करके दूर भाग जाते थे। यही कारण था कि गांधी जी ने जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड में आहत हुए लोगों की भावनाओं का सम्मान न करना ही उचित समझा और किसी भी प्रकार के सहयोग को न करके वे उनका हाथ झटककर दूर जा खड़े हुए।
उस समय देश में डायर के विरुद्ध भावनाएं बहुत ही उग्र हो चुकी थीं। इसके उपरान्त भी गांधीजी डायर को क्षमा करना उचित मानते थे । उन्होंने ‘डायरवाद’ जैसा एक शब्द तैयार किया । जिसका अभिप्राय था कि यदि ब्रिटिश अधिकारियों या शासकों के विरुद्ध जलियांवाला बाग दोहराने का प्रयास करोगे अर्थात फिर ऐसी ही कोई सभा करोगे तो ‘डायरवाद’ जीवित हो सकता है। इसका अभिप्राय था कि वह देश के लोगों को ही ‘डायरवाद’ से डरा रहे थे । जबकि स्वयं डायर को क्षमा करना उचित मानते थे।
जनरल डायर को क्षमा किस आधार पर और क्यों किया जाए ? – इसका तर्क भी गांधीजी ने स्वयं ही गढ़ लिया था । इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि ‘जनरल डायर के काम आना और निर्दोष लोगों को मारने में उसकी मदद करना मेरे लिए पाप समान होगा। पर यदि वह किसी रोग का शिकार है तो उसे वापस जीवन देना मेरे लिए क्षमा और प्यार का अभ्यास होगा.’ (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी (सीडब्ल्यूएमजी), खंड 18, पृ. 195, ‘रिलिजियस ऑथिरिटी फॉर नॉन–कोऑपरेशन’, यंग इंडिया, 25 अगस्त 1920)

गांधीजी का अनुचित प्रयास

डायर या कोई भी ब्रिटिश अधिकारी और यहाँ तक कि ब्रिटिश शासकों से पूर्व मुगलों के द्वारा भी हिन्दुओं पर जिस प्रकार के अत्याचार किए जाते रहे , उन्हें किसी न किसी प्रकार से गांधीजी उचित ठहराने का अनुचित प्रयास करते रहे । जनरल डायर को भी उन्होंने अपने ही तर्कों से ‘अपराध मुक्त’ करने का प्रयास किया । भारतवासी अपनी खोई हुई स्वाधीनता के लिए सैकड़ों वर्षो से अपने बलिदान देते चले आ रहे थे , वे सारे के सारे बलिदान गांधीजी की दृष्टि में व्यर्थ ही थे और न केवल व्यर्थ थे ,अपितु गांधीजी की दृष्टि से देखें तो हमारे वे महान स्वाधीनता सैनानी अनर्थकारी भी थे । क्योंकि प्रतिशोध और हिंसा गांधीवाद में कहीं पर भी स्थान प्राप्त नहीं करती । अतः यदि भारतीयों ने अपनी स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए दीर्घकालिक क्रान्तिकारी आन्दोलन किया और उसमें कहीं प्रतिशोध व हिंसा का सहारा लिया तो गांधीजी की दृष्टि में वह सारा का सारा संघर्ष सर्वथा अनुचित ही था।
गांधीजी मुगलों को इस देश से प्यार करने वाले शासक मानते थे और उनके राज्य में सभी प्रजाजन सुखी थे ऐसी भ्रांति भी पाले रहे। यही कारण है कि मुगलों के दीर्घकालिक शासन में यदि भारतवासियों ने उनके विरुद्ध किसी प्रकार का संघर्ष किया तो उसे गांधीजी भुला देना चाहते थे । गांधीजी की इसी धारणा और विचारधारा में विश्वास रखने वाले वर्तमान गांधीवादी इतिहासकार मुगलों या उनसे पहले के शासकों अर्थात तुर्कों के विरुद्ध भारतवासियों द्वारा किए गए किसी भी प्रकार के स्वाधीनता संघर्ष को इतिहास लेखन के समय भुला देने का या कम करके आंकने का प्रयास करते हैं।

अंग्रेजों के प्रति गांधी जी की उदारता

अंग्रेजी शासकों के प्रति अपनी ‘उदारता’ का परिचय देते हुए और भारतवासियों के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध किए गए क्रान्तिकारी संघर्ष पर अपनी असहमति प्रकट करते हुए गांधी जी ने लिखा कि डायर ने ‘‘मात्र कुछ शरीरों को नष्ट किया, पर कइयों ने एक राष्ट्र की आत्मा को मारने का प्रयास किया।” उन्होंने कहा कि ‘जनरल डायर के लिए जो गुस्सा जताया जा रहा है, मैं समझता हूँ, काफी हद तक उसका लक्ष्य गलत है।’ (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी (सीडब्ल्यूएमजी, खंड 18, पृ. 46, ‘रिलिजियस ऑथिरिटी फॉर नॉन–कोऑपरेशन’, यंग इंडिया, 14 जुलाई 1920)
गांधीजी ‘गीता’ का गहराई से अध्ययन करते थे और यह भी कहते थे कि मुझे ‘गीता’ विषम से विषम परिस्थितियों में से उबरने का सहारा देती है। स्पष्ट है कि यदि ‘गीता’ में उनकी इतनी अधिक आस्था थी तो वह गीता के कर्मफल सिद्धांत से भी निश्चित ही प्रेरित और प्रभावित रहे होंगे । पर वास्तव में उनका गीता के कर्मफल में प्रकट होने वाला विश्वास भी दोगलेपन का ही शिकार था । यद्यपि ‘गीता’ को पढ़ने का अभिप्राय कर्मफल व्यवस्था को स्वीकार करना अनिवार्य होता है । ‘गीता’ स्पष्ट रूप से कहती है कि जो कुछ किया है , उसका परिणाम अर्थात फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा। ‘गीता’ के इसी दृष्टिकोण से प्रभावित होकर भारतवासी डायर के विषय में भी यह मानते थे कि उसे भी अपने किए का परिणाम भुगतना होगा ।
इस पर गांधीजी के एक सहयोगी ने तो उन्हें एक पत्र लिखकर उसमें अपनी प्रसन्नता भी व्यक्त कर दी कि जनरल डायर आज जिस बीमारी का शिकार हुआ है ,वह उसके किए का फल है । अपने उस मित्र की बात गांधी जी को अच्छी नहीं लगी। उनके तन बदन में आग लग गई । यही कारण था कि उन्होंने अपने उस मित्र की बात पर लिखा ‘मैं नहीं समझता उसके पक्षाघात का अनिवार्यत: जलियांवाला बाग में उसके कृत्य से कोई सम्बन्ध है ?. क्या आपने इस तरह की मान्यताओं के दुष्परिणामों पर गौर किया है ? आपको मेरी पेचिश, एपेंडिसाइटिस और इस वक्त हल्के पक्षाघात की जानकारी होगी। मुझे बहुत अफसोस होगा यदि कुछ अच्छे अंग्रेज़ ये सोचने लगें, ऐसा आकलन वे कर सकते हैं, कि अंग्रेज़ हुकूमत के उग्र विरोध के कारण मुझे ये रोग लगे हैं।’ (सीडब्ल्यूएमजी, खंड 18, पृ. 34, ‘ए लेटर’, 24 जुलाई 1927)
इस प्रकार के लेखन और वक्तव्यों के माध्यम से गांधी जी ने अपने देशवासियों को अंग्रेजों के विरुद्ध ‘विद्रोही’ बनने से रोकने का प्रयास किया । यही कारण है कि उनके विरोधी कई बार उन पर यह भी आरोप लगाते मिलते हैं कि गांधीजी एक योजना के अंतर्गत अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए अपनी ओर से उतारे गए थे । इन गांधी विरोधियों का आरोप रहता है कि गांधीजी ‘मैच फिक्सिंग’ के माध्यम से अंग्रेजों का विरोध करने में विश्वास रखते थे। उनकी इच्छा थी कि देश के लोग केवल और केवल ‘गांधी’ नाम की माला जपते रहें और उनके पीछे – पीछे चलते रहें अर्थात उन्हें ही देश का नेता मानकर चलते रहें।
जलियांवाला बाग हत्याकांड की घटना 1919 में घटित हुई थी । उसके सही 19 वर्ष पश्चात अर्थात लगभग दो दशक बाद भी गांधीजी का जनरल डायर के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तित नहीं हुआ । उस समय भी वह जनरल डायर को उचित ठहराते हुए उसे क्षमा करने की बात कर रहे थे।

जनरल डायर के प्रति कोई दुर्भाव नहीं था गांधीजी के मन में

‘दिवंगत जनरल डायर से अधिक क्रूर और रक्त–पिपासु कौन हो सकता था ?’ गांधी ने प्रश्न किया, ‘फिर भी जलियांवाला बाग कांग्रेस जांच समिति ने, मेरी सलाह पर, उस पर मुकदमा चलाने की मांग करने से इनकार कर दिया। मेरे मन में उसके प्रति लेशमात्र भी दुर्भावना नहीं थी। मैं उससे व्यक्तिगत रूप से मिलना और उसके दिल को टटोलना भी चाहता था, पर ये मात्र तमन्ना ही रह गई।’ (सीडब्ल्यूएमजी, खंड 68, पृ. 83, ‘टॉक टू खुदाई खिदमतगार्स’, 1 नवंबर 1938)
1921 में जाकर गांधी जी को कुछ ऐसा लगा कि जनरल डायर के प्रति उनके दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन किया जाना अपेक्षित है । जिससे देश के लोगों के घावों पर मरहम लगाया जा सके । उन्होंने जनभावनाओं का सम्मान करते हुए उस समय जनरल डायर के प्रति अपनी पूर्व की धारणा में थोड़ा सा परिवर्तन करते हुए लिखा – ‘हालांकि हम दूसरों के कुकर्मों को भूल जाने और क्षमा करने की बात करते हैं, पर कुछ बातों को भूलना पाप होगा.’ डायर और ओड्वायर (जलियांवाला बाग नरसंहार के दौरान पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर) की चर्चा करते हुए गांधी ने कहा, ‘हम जलियांवाला बाग नरसंहार के लिए डायर और ओड्वायर को माफ भले ही कर दें, हम इसे भूल नहीं सकते…’ (सीडब्ल्यूएमजी, खंड 45, पृ. 132, ‘स्पीच टू कांग्रेस लीडर्स, इलाहाबाद’, 31 जनवरी 1921)
जनरल डायर जब जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के लिए गठित की गई ‘हण्टर कमेटी’ के सामने पेश किया गया तो वहाँ उसने अपने निर्दयतापूर्ण अत्याचारों की खुली पैरोकारी की थी । उसने यह स्वीकार कर लिया था कि उसने जानबूझकर निर्दोष लोगों पर गोली चलवाई और वह ऐसा इसलिए करना चाहता था , जिससे कि लोगों में आतंक पैदा हो जाए और ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध करने के बारे में वह कभी भविष्य में सोच भी न सकें । जब हंटर कमेटी की रिपोर्ट वायसराय चेम्सफोर्ड के समक्ष प्रस्तुत की गई तो उन्होंने भी यह कहा था कि जनरल डायर को ऐसा नहीं करना चाहिए था। इसके अलग भी उसके पास ऐसे विकल्प थे जिनको अपनाकर वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता था । इस सबके उपरान्त भी गांधीजी एक हत्यारे का पक्ष लेते रहे और उसे क्षमा करने का कार्य करते रहे। क्या ही अच्छा होता कि वह ऐसा न करके भारतवासियों के बलिदानों का सम्मान करते हुए जनरल डायर के विरुद्ध ‘कठोर कार्यवाही’ की मांग ब्रिटिश सरकार से करते।
वर्तमान में गांधीवाद से प्रेरित इतिहासकार इतिहास के खलनायकों को भी कुछ ऐसे मौलिक अधिकार देते हुए प्रतीत होते हैं , जिनसे वह अपना बचाव कर जाता है और तब पाठक को महाराणा प्रताप और अकबर में भेद करना कठिन हो जाता है। कई बार ऐसी भ्रान्ति होती है कि जैसे महाराणा प्रताप अच्छे न होकर अकबर बादशाह ही ठीक था। यदि महाराणा प्रताप उस समय अकबर का विरोध कर रहे थे तो वह स्वयं ही गलती पर थे ।
जनरल डायर जैसे खलनायक का बचाव करते हुए गांधी जी ने एक पत्र के उत्तर में लिखा, ‘जनरल डायर निश्चय ही ये मान बैठा था कि यदि उसने जो किया वैसा नहीं किया होता तो अंग्रेज़ पुरुषों और महिलाओं की जान पर खतरा बन आता। हम, जो कि बेहतर जानते हैं, इसे क्रूरता और प्रतिशोध का कृत्य कहते हैं। पर जनरल डायर के खुद के दृष्टिकोण से, उसने सही किया। अनेक हिन्दुओं को पक्का विश्वास है कि किसी गाय को मारने के इच्छुक व्यक्ति को मार डालना उचित है, और इसके लिए वे शास्त्रों को उद्धृत करेंगे और अनेकों दूसरे हिन्दू उनके कृत्य को जायज़ करार देते नज़र आएंगे। लेकिन गाय की पवित्रता में आस्था नहीं रखने वाले लोगों को एक पशु के कत्ल की वजह से किसी इंसान की हत्या किया जाना अतार्किक लगेगा।’ (सीडब्ल्यूएमजी, खंड 33, पृ. 358, ‘लेटर टू देवेश्वर सिद्धांतालंकार, 22 मई 1927)

चोर और शाह दोनों एक जैसे

अपने इस कथन में गांधीजी गाय को पालने वाले और गाय को मारने वाले दोनों को ही उचित मान रहे हैं । वह ऐसा स्पष्ट नहीं कह पाए कि गाय को पालने वाला गाय को मारने वाले से कहीं अच्छा है । क्योंकि वह पर्यावरण संरक्षण में सहायक है और सृष्टि चक्र के चलाने में भी सहायता प्रदान कर रहा है । जबकि गाय को मारने वाला पर्यावरण प्रदूषण को भी बढ़ाता है साथ ही सृष्टि चक्र को चलाने में बाधा भी पैदा करता है । गांधीजी की अहिंसा बड़ी अजीब है । ये चोर और शाह दोनों को माफ करने या दोनों को अच्छा कहने की बात करती है ।जबकि संसार का कोई भी कानून ऐसा नहीं है जो चोर और शाह दोनों को ही एक जैसा समझे या दोनों को ही क्षमा करने का पात्र माने। गांधीजी के इसी दोगले विचार को पकड़कर इतिहासकारों ने हमारे दीर्घकालिक स्वाधीनता संग्राम के योद्धाओं के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया है। उन्होंने चोर और शाह दोनों को एक जैसा मानने की चेष्टा की है । जिससे हमारे क्रान्तिकारी आन्दोलन का महत्व बहुत फीका पड़ गया । इसे और भी स्पष्ट शब्दों में कहें तो कहीं-कहीं तो हमारे क्रान्तिकारी संघर्ष को पूर्णतया विलुप्त ही कर दिया गया।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनरलेखन समिति

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