यज्ञ ही हमारे जीवन का आधार है

सादा जीवन उच्च विचार

प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने मनुष्य बनने के लिए मनुष्य को केवल एक ही नैतिक उपदेश दिया है कि मनुष्य को सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श को अपने जीवन में अंगीकृत करते हुए उत्थान के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए। जिसके लिए अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाना बहुत आवश्यक होता है। एक मनुष्य जो सादगी का गुण अपने अंदर धारण किए होता है उसके अंदर सभ्यता और महानता स्वयमेव आ जाती हैं। अनेक महापुरुष ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन में सादगी पर बल दिया और मन की चंचलता पर आधिपत्य जमाया , क्योंकि मन ही मनुष्य को ऐसी दिशा की ओर ले जाता है जिसकी कोई सीमा नहीं होती । अच्छे मनुष्य द्वारा विवेकपूर्ण अपनाई गई सादगी सभ्यता को और आगे बढ़ाने में सहायक एवं समर्थ होती है।

स्वचेतना

किसी भी मनुष्य का मन व्यक्तित्व का सचेत होना जीवन में बहुत आवश्यक होता है , लेकिन चित् बुद्धि और विवेक से ज्ञान से जागता है जो उत्पत्ति और विनाश का सच, मनुष्य जीवन का लक्ष्य, सृष्टि की उत्पत्ति और उसका उद्देश्य तथा सृजक के ज्ञान और उसकी महानता को प्राप्त कर लेता है , वही अपने जीवन में सफल होता है। इस अंतश्चेतना के कारण ही व्यक्ति को ईश्वर के गुण और परमशक्ति का अधिपति व संपूर्ण सृष्टि का एकमात्र सृजक, विनियामक, होने का आभास होने पर दिग दिगंत के द्वार खुलने लगते हैं।
संसार की नश्वरता और जीव एवं प्रकृति के प्रति ज्ञान दृष्टि रखने वाला मानव ही श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। मानव की अंतश्चेतना ही मनुष्य को उसके समय का सदुपयोग करने के लिए प्रेरित करती है। इसी से मनुष्य परमानंद की प्राप्ति कर सकता है। भारतवर्ष की प्राचीन एवं सनातन सभ्यता में हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने मार्ग दिखाया है कि व्यक्ति का
समष्टि से संयोग होने पर ही हम योग साधना में प्रवेश कर सकते हैं। इस बिंदु पर योग साधना के अध्याय में मन को शांति प्रदान करने के लिए ,शरीर के लिए योगासन और प्राणायाम आदि की उपयोगिता संयम और योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: पर पहले ही उल्लेख किया जा चुका है। जिससे परमधाम की और परमानंद की प्राप्ति होती है , क्योंकि उसी से परिष्कार और परिशोधन जागृति और जागरण सब संभव है।

आवागमन

मनुष्य अथवा जीव कितनी सदियों से जीवन और मृत्यु, उत्पत्ति और विनाश के चक्र में फंसा हुआ है ।कितनी बार मर लिए कितनी बार जन्म ले लिया , ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी के पास इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है।
ईश्वर , जीव और प्रकृति तीनों की अमरता और संसार की नश्वरता को मनुष्य यदि एहसास कर भी जाता है तो भी मानव मन उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होता और इसी वजह से संसार से मुक्त होने का मार्ग उसको प्राप्त नहीं होता। लेकिन जो संसार की नश्वरता और शरीर की नश्वरता को समझ जाता है वह पार पा लेता है और जो उलझ जाता है तो वह ताने-बाने में बुनकर वहीं रह जाता है।
हमारे संचित संस्कार संचित प्रारब्ध अनेक हैं , जिनको हम परमात्मा की प्रार्थना , उपासना और योग से उसकी कृपा के पात्र बनकर संसार में आगे बढें , तभी सफल जीवन हो सकता।
प्रत्येक प्रकार के मान – अपमान ,लाभ – हानि ,वियोग और मिलन इन सबमें संस्कार और प्रारब्ध की पृष्ठभूमि में खड़े हैं अर्थात जो भी हमको संसार में नाते रिश्ते पुत्र ,पुत्री ,पत्नी ,भाई – बंधु, बहन अथवा अन्य प्रकार के सम्बन्धी प्राप्त होते हैं उन सभी में हमारा प्रारब्ध और संस्कार ही कार्य करते हैं। यहां तक कि जो पशु भी हमारे पास होता है उसके साथ भी हम किसी प्रारब्ध और संस्कार से जुड़े होते हैं । वह भी हमारे साथ किन्हीं जन्मों के संस्कारों के कारण आया है , इन सब बातों को विद्वान लोग आसानी से समझ लेते हैं।

देवत्वदेवत्व को प्राप्त करने के लिए वाणी में सत्यता और संस्कारों में श्रेष्ठता , पवित्रता और मानवीय मूल्यों में उच्चता होनी आवश्यक है। क्योंकि सत्य स्वाभाविक होता है , उस में बनावट नहीं होती इसलिए सत्य से सभी संबंध मजबूती प्राप्त करते हैं ,लेकिन झूठ सभी संबंधों को नष्ट कर देता है।
सत्य आत्मीयता प्रदान करता है , लेकिन असत्य अप संस्कार और अधोगति का मार्ग प्रशस्त करता है। इसलिए देवत्व यदि प्राप्त करना है तो सत्य का मार्ग अपनाना चाहिए।
हस्तिनापुर के राज दरबार में रहते हुए विदुर जी ने महात्मा की पदवी प्राप्त की । उन्हें यह उपाधि तभी मिली जब वे राज दरबार के प्रत्येक षड्यंत्र से अपने आप को बचाए रखने में सफल हुए और निरपेक्ष भाव से सदैव सत्य बोलते रहे , धृतराष्ट्र को सही मार्ग पर लाने का बहुत ईमानदारी से प्रयास करते रहे। क्योंकि विदुर जी जानते थे कि सत्य निष्कपट होता है और झूठ प्रपंच पाप की नीव पर खड़ा होता है। सत्य सदैव ही संवेदना , करुणा , दया, क्षमता और प्रेम पाता है , लेकिन झूठ अपमान , तिरस्कार , ईर्ष्या तथा अहंकार प्राप्त करता है ।

सुसंस्कार

मनुष्य के जीवन में संस्कारों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। संस्कार जीवन के लिए मूल मंत्र हैं। छोटे अपने बड़ों का सम्मान करें और बड़े अपने छोटों के प्रति प्यार,स्नेह और सहयोग का प्रदर्शन करें ,तभी परिवार और राष्ट्र उन्नति शील बनते हैं। आज के परिवेश में जब चारों ओर पतन है , ऐसे में विशेष जिम्मेदारी बन जाती है कि हम परस्पर संबंधों के प्रति विश्वास की भावना को जागृत करें , उसको सुदृढ़ करें और अविश्वास को समाप्त करें और इन आपसी रिश्तों के लिए एक दूसरे की भावना और संवेदनाओं का सम्मान करें तथा अविश्वास को समाप्त करके मन की दूरियों को कम करें । इसी से परिवार एकता के सूत्र में बंधेगा और राष्ट्र उन्नति करेगा। इसलिए राष्ट्र की उन्नति के लिए सुसंस्कार अति आवश्यक है।

लोभ न करें

लोभ मनुष्य और उसके चरित्र को गिराता है ।इसलिए लोभ करना किसी भी मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं होता है, बल्कि लोभ की प्रवृत्ति चरित्र की कायरता पूर्ण अभिव्यक्ति कहीं जाती है। लोभ से मनुष्य सबकी नजरों में गिर जाता है। उसके व्यक्तित्व के विकास का बहुत बड़ा अवरोधक लोभ बन जाता है। लोभ के कारण मनुष्य अपमानित जीवन जीता है । लोभ मनुष्य के स्वाभिमान को खा जाता है ।कोई भी स्वाभिमानी मनुष्य लोभी नहीं हो सकता । लोभ चरित्र की सबसे बड़ी कमजोरी है।
अगर मनुष्य को उन्नति प्राप्त करनी है तो लोभ को त्यागना होगा ,और संतोष का जीवन व्यतीत करना होगा ।क्योंकि लोभ एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसकी कभी तृप्ति नहीं होती , बल्कि इसकी कामना और अधिक बढ़ती जाती है। लोभ को समाप्त करने के लिए संतोष और साधना ही एकमात्र उपाय है।

मनुष्य का बहुमुखी विकास

कोई भी मनुष्य यदि अपना बहुमुखी विकास चाहता है तो उसको अपने जीवन में सदाचरण को अपनाना होगा। सदाचरण से ही मनुष्य भक्ति में रत रहकर ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है। यह मानव योनि आपको सदाचरण करते हुए परमात्मा के पास जाने के लिए एकमात्र नौका इस भावसागर को पार करने का साधन है।
इसे साधन समझकर के जीओ । क्योंकि जीवन में समय कभी रुकता नहीं है और मृत्यु निश्चित है इसलिए प्रतिक्षण सदाचरण करते हुए अपना जीवन यापन करना चाहिए । सदाचरण के जीवन में ही मनुष्य के जीवन की सार्थकता छिपी है। जिससे मनुष्य विवेक के माध्यम से एक ना एक दिन ईश्वर की शरण में पहुंची ही जाता है। जो जीवन को धैर्य और संयम के साथ जीते हैं जिनके विचार और चिंतन शुभ और धवल होते हैं वे एक दिन परम सत्ता को प्राप्त कर लेते हैं।

तप त्याग कैसे करें

पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि प्रत्येक परोपकार का कार्य ही यज्ञ है। त्याग भी एक प्रकार का परोपकार है। जिसमें व्यक्ति अपने लिए ना चाह कर दूसरे के लिए करता है । जैसे हम यज्ञ करते समय संसार का परोपकार करते हैं । अधिकतर मंत्रों के बाद में ‘स्वाहा’ शब्द बोलते हैं , इसका तात्पर्य ही यह है कि मैं अपने स्वार्थ को आपके लिए त्यागता हूँ।
यज्ञ में त्याग का भी त्याग है । यज्ञ भी जब यज्ञ की इस भावना से परिपूर्ण हो जाता है । तभी यज्ञ सफल होता है । जीवन भी तभी सफल होता है , जब व्यक्ति त्याग का भी त्याग करने लगे अर्थात किसी के साथ उपकार किया तो न तो उस व्यक्ति को इस बात का बार-बार एहसास कराया जाए कि मैंने तेरे साथ ऐसा काम किया है और न ही समाज में उस का ढिंढोरा पीटा जाए , इस स्थिति को प्राप्त करना ही त्याग का भी त्याग करना है । जिसे समाज में विरले ही प्राप्त करते हैं।
वेद में औषजन (ऑक्सीजन) और उद्जन (हाइड्रोजन) को मित्र और वरूण की संज्ञा से पुकारा गया है और इन दोनों से प्रार्थना की गयी है कि तुम हमारी वृष्टि से रक्षा करो। वेद की बात साफ है कि ये मित्र और वरूण ही तो वर्षा का कारण हैं। वेद का यह गम्भीर विज्ञान है जिसे उसने एक मंत्र के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है। औषजन और हाइड्रोजन दोनों की उत्पत्ति यज्ञ की आहुति से भली प्रकार होती है। जिससे वृष्टि होती है और उस वृष्टि से जीवधारियों का कल्याण होता है। वेद ने कितनी बड़ी बात कह दी-औषजन और उद्जन को मित्र और वरूण की संज्ञा देकर। जिसे यदि गहराई से समझा जाए तो यही कहा जाएगा कि वेद विज्ञानसम्मत और सही बात कह रहा है।
हमारे ऋषियों ने वृष्टि कराने के लिए द्रव्यों की आहुति बनाने की खोज की। उनका वह कार्य भी कम महत्वपूर्ण और बुद्घिपरक नहीं है। उन्होंने ऐसे द्रव्यों की आहुतियों की खोज तो की ही साथ ही अपने उस ज्ञान को तर्कसंगत बनाकर अगली पीढिय़ों के लिए अपनी धरोहर के रूप में भी छोड़ा। इन लोगों ने आहुतियों का भी एक निश्चित अनुपात निर्धारित किया कि इतने अनुपात में ही आहुतियां दी जाएं?
”यज्ञ प्रारंभ होने पर इन यज्ञाहुतियों का सर्वप्रथम प्रभाव वायु पर ही पड़ता है। यज्ञस्थान की वायु में ऊष्मा की वृद्घि होती और उससे वायु नीचे से ऊपर की ओर गति करती है। वेदश्रमी जी का कथन है कि जब नीचे की वायु ऊपर जाती है तो नीचे के खाली स्थान में आसपास की वायु प्रवेश करने लगती है और वह वायु भी उष्ण होकर ऊपर की ओर गति करती है। वायु में उष्णता से प्रसारण क्रिया होती है। प्रसारण से घनत्व की न्यूनता तथा घनत्व की न्यूनता से अपेक्षाकृत भार की न्यूनता होने से वह वायु ऊपर गतिशील हो जाता है। इस कारण से यज्ञाग्नि की निरंतर क्रिया से पृथिवी से अंतरिक्ष तक वायु की ऊध्र्व, शीर्ष गति लम्ब रूप से प्रारंभ हो जाती है। यह गति प्रारंभ में कुछ दूर तक अनुमानत: एक घंटे में बीस किलोमीटर की गति से प्रारंभ होकर उत्तरोत्तर गति में न्यूनता प्राप्त करती जाती है। इस प्रकार अंतरिक्ष में जितनी ऊंचाई तक यह वायु नीचे से ऊपर की ओर गति करने लगती है। इस प्रकार यज्ञस्थान से वायु मंडल के एक विशाल तथा ऊध्र्व क्षेत्र में वायु का चक्र चलने लगता है, और यज्ञ में प्रयुक्त आहूत द्रव्यों को वाष्प, धूम्र एवं सूक्ष्म अंश युक्त परमाणुओं से वह स्थान पूरित हो जाता है तथा क्रमश: अपने समीप के क्षेत्र को भी प्रभावित कर विशाल होता जाता है।”
इस वैज्ञानिक क्रिया को अपनाने से अंतरिक्ष में बादल बनने लगते हैं। इसी को शुद्घ और वैदिक रीति से संपन्न करने पर वृष्टि हो जाती है। इस प्रकार के विज्ञान को समझने में पश्चिमी जगत के वैज्ञानिक आज भी असफल हैं। उनकी असफलता का प्रमाण यही है कि वे यज्ञ विज्ञान पर अब कुछ अनुसंधान तो कर रहे हैं पर उसे भारतीय परम्परा के अनुसार अपनाने से आज भी उचक रहे हैं। इस प्रकार यज्ञों से वृष्टि की यह क्रिया पूर्णत: वैज्ञानिक और तार्किक है।

समझ लो कि यज्ञ हमारे जीवन का आधार है । आधार से यदि दूर भागोगे तो समझ लेना कि जीवन की नाभि टहल जाएगी और जिसकी नाभि टहल जाती है उसका अस्वस्थ होना लाजमी है।
एक अच्छे मनुष्य को चाहिए की अपनी गलत आदतों को त्याग कर सत्संगति में जाना चाहिए। जिस विचार के आने से मन मलीन होता हो ,गुस्सा आता हो, ईर्ष्या पैदा होती हो , उन्हें छोड़ दें। क्योंकि येसभी शांति के मार्ग में अवरोधक हैं । शांति चाहते हो तो त्याग करो ।शांति चाहते हो तो तप करो ।शांति चाहते हो तो अपने परिवार के प्रति व राष्ट्र के प्रति भी तपऔर त्याग को अपनाओ। जैसे एक सैनिक सीमा पर अपने परिवार का ,अपने सुख का त्याग करके राष्ट्र की सेवा करता है उसी की वजह से राष्ट्र कायम है।
यह सभी मानवीय गुण हैं इनसे मानव मानव बनता है। यह माना कि जीवन में धन या सम्मान और प्रतिष्ठा सब चाहिए , लेकिन वास्तव में यह सब यहीं पर रह जाते हैं और जब अंतिम समय आता है तो यह धन्य सम्मान और प्रतिष्ठा साथ नहीं जाती ,इसीलिए शास्त्रों ने मनुष्य को मनुर्भवः का उपदेश एवं आदेश दिया।
लेकिन हम शास्त्रों के विपरीत कार्य करके आज मानव से दानव बन रहे हैं।
हमने अपने मानव जीवन में जटिलताएं और विरोधाभास उत्पन्न किए हैं , इसके लिए हम स्वयं दोषी हैं। ईश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर आत्म कल्याण एवं समाज कल्याण के लिए जन्म दिया। मानव चोले में और वही मानव संसार की मृगतृष्णा में उलझकर सत्य और धर्म से दूर होता चला गया ।दान , धर्म तप ,ज्ञान, विद्या, शील जैसे मानवीय गुण सिर्फ शास्त्रों तक सीमित रह गए और मानव धन ,पदलोलुपता ,अहंकार और स्वार्थ आदि दुर्गुणों में डूबता चला गया और अपने पतन का रास्ता प्रशस्त करता चला गया। यही कारण है कि हमको चारों तरफ पतन, अराजकता , अश्लीलता और ह्रास ही दिखाई पड़ता है। मनुष्य मनुष्य के धर्म को भूल गया। मनुष्य मर्यादा और संस्कृति को तार-तार कर रहा है। इसी वजह से निसंकोच कहा जा सकता है कि भारत आर्थिक रूप से प्रगतिशील हो रहा है , लेकिन आध्यात्मिक रूप से श्रीहीन हो रहा है। कारणवश विश्व गुरु का पद भारत से छिन चुका है। आगामी पीढ़ी को भारतवर्ष को उसका प्राचीन गौरव प्राप्त कराते हुए विश्वगुरु के पद पर पदस्थापित करने के लिए प्रयासरत रहना होगा।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन उगता भारत

Comment: