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पूरी तरह वीरान बाग में तब्दील हो गये शाहीन बाग के हंगामे के बाद रह गए कुछ अनुत्तरित प्रश्न

गाजियाबाद । मैं न्यूज़ चैनल न के बराबर देखता हूँ। सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता के नाम पर जिन्हें पहले बड़ा ईमानदार एंकर-पत्रकार मानते थे, उनके एकतरफा आलापों ने पूरे देश को ही निराश किया है। उनकी सेक्युलर सच्चाई उजागर हो चुकी है। फिर भी कभी-कभार चैनलों पर ताका-झाँकी कर लेता हूँ। कल रात नौ बजे इंडिया न्यूज़ चैनल की दो लड़कियों ने शाहीनबाग से बेहद शानदार ग्राउंड रिपोर्ट की।

दिल्ली में बुरकापोश महिलाओं की भीड़ ने एक व्यस्त रास्ते पर कब्ज़ा जमाकर 80 दिन पहले बहुत गुस्से में हंगामा शुरू किया था। दिल्ली के सेक्युलर मीडिया के लिए ऐसे मामले टॉप हेडलाइन के होते हैं। खासकर जब मुस्लिम तबका या मुसलमानों से जुड़ा कोई विषय उसके केंद्र में हों।

शाहीनबाग जल्दी ही पूरे देश में चर्चित हो गया था और उनकी देखा-देखी एक बड़ी योजना के तहत दूसरे शहरों में भी ऐसा ही हंगामा शुरू कर दिया गया था। एक बात सब जगह कॉमन थी और वह यह कि हर एक हंगामे में मुसलमान औरतों को आगे किया गया था।

इनमें कम उम्र की बुरकापोश भी अपनी अम्मियोंं और दादी-नानियों के साथ बाकायदा सीख-पढ़कर आईं थीं। उनके जवाबों से ज़ाहिर था कि उन्हें बाकायदा ट्रेनिंग दी गई थी कि वे अच्छे से बताएँ कि उनकी नाराजगी की वजह क्या है? वे सब केंद्र सरकार को बहुत खराब ढंग से कोस रहीं थीं। हर एक का कहना था कि वे अपना घर छोड़कर कहीं नहीं जाएँगी। ये सरकार उन्हें सीएए के जरिए घर से निकालने की साजिश कर रही है।

ये सब बातें गुस्से में बयान हो रही थीं, जहाँ सामान्य समझ शून्य थी। सीएए को लेकर बस दिमागों में बैठाया गया वहम ज़ोरों पर था और अगर यह बात सच है तो 500 रुपये प्रति नग के हिसाब से बिरयानी की दावत के साथ दिन भर बैठने का काम उन्हें मिल गया था।

शुक्रवार को दो रिपोर्टर शाहीनबाग के उसी हंगामास्थल पर पहुँची। वह वीरानबाग में तब्दील हो चुका था, जहाँ दादी-नानी की उम्र की चंद महिलाएँ समय काटने के लिए बैठा दी गईं थीं। असल शेरनियाँ बिलों में लौट गईं थीं।

रिपोर्टर ने गिन-गिनकर बताना शुरू किया कि चंद रोज पहले तक यहाँ कितनी तादाद हुआ करती थी और अब गिनती की 18 महिलाएँ मौजूद हैं। हकीकत को टीवी पर दिखाता देख परदे के पीछे से इन शेरनियों के रिमोट हाथ में लिए कुछ बहादुर लड़के उचककर आगे आए और कैमरे को कवरेज से रोकने की कोशिश करने लगे।

टीवी न्यूज़ चैनलों के लोकप्रिय लिपे-पुते सुदर्शन चेहरों में से मैं किसी के नाम नहीं जानता, लेकिन शक्ल से पहचान सकता हूँ कि कौन किस चैनल की मोहतरमा है। शुक्रवार को लगा कि सचमुच की दो शेरनियाँ वहाँ पहुँची हुई हैं और बता रही हैं कि परदानशीं शेरनियाँ अब वहाँ नहीं हैं। शाहीनबाग वीरान था। रौनक जा चुकी थी।

अचानक एक हूटर बजा और भीड़ जुटने लगी। इसका मतलब शाहीनबाग के कल्पनाकारों ने इस धरनास्थल को एक युद्धस्थल की तरह तैयार और इस्तेमाल किया। जब ज़रूरत हो सायरन बजाओ ताकि आसपास के घरों से निकलकर बुरकापोश भीड़ फिर मोर्चा संभाल लें।

सायरन का इस्तेमाल एक खतरनाक संकेत है। शाहीनबाग के पूरे इलाके की गहन छानबीन होनी चाहिए। बहुत मुमकिन है कि ताहिर हुसैन के घर पर जैसी तैयारियाँ देखी गईं, वैसा असलहा यहाँ भी जमा किया गया हो। सायरन की आवाज़ पर जब भीड़ जुट सकती थी तो पुलिस के बलप्रयोग की स्थिति में घरों से आई भीड़ पत्थर, लाठी, तलवार, बोतल और पेट्रोल पॉलिथिन की घातक ज्वलनशील सेवा भी दे सकती थी। सायरन क्या बताने के लिए लगाया गया? अगर यह भीड़ जुटाने की आपात तैयारी थी तो इसके आगे ऐसी कौन-कौन सी तैयारियाँ किस-किसके जिम्मे दी गई थीं?

चैनल की रिपोर्टर ने उनमें घुसकर बिना डर-झिझक दहाड़-दहाड़कर सवाल पूछे। सायरन बजा तो सायरन के बारे में सवाल किए। किसी के पास कोई जवाब नहीं था। दाढ़ी वाले जोशीले जवानों ने आँखें तरेरकर कवरेज को रोकने की कोशिश की तो वह बेखौफ लड़की उनसे भिड़कर सवाल करती रही कि सीएए का विरोध करने वालियाँ गई कहाँ?

यह एक गजब का तमाशा था। एक आदमी मुँह पर उंगली रखे इशारे में सब खवातीनों से कह रहा था कि कुछ बोलना नहीं है। चुप रहना है। कन्या ने कुछ महिलाओं के मुँह पर कैमरा लगाया और सवाल किए तो वे विकट सन्नाटे में थीं और उन्हें कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। उन्हें मूल मुद्दे का कोई पता नहीं था। बस समय काटने के लिए अपनी ही उम्र की महिलाओं के साथ वे यहाँ बैठा दी गईं थीं। एक झगड़ालू-सी बूढ़ी खवातीन खा जाने वाली नज़रों से देखती हुई आगे बढ़ गई। उनके हावभाव से जाहिर था कि वे बिल्कुल पढ़ी-लिखी नहीं थी और उन्हें सीएए की एबीसी नहीं मालूम थी।

मैं उस रिपोर्टर का नाम नहीं जानता लेकिन शाहीनबाग पर हुए अब तक के सारे टीवी कवरेज में यह एक अव्वल दरजे की ग्राउंड रिपोर्ट थी। मैंने उस रिपोर्टर को भी पहली ही बार ही चैनल पर देखा। वह पूरी हिम्मत से उनके बीच थी। जब कुछ आवारा टाइप की भीड़ उसे घेरने लगी तब भी वह विचलित नहीं थी और पूरे दम से सवाल कर रही थी।

उसे राेकने की हर मुमकिन कोशिश की जा रही थी मगर वह चेता रही थी कि आप कवरेज से रोक नहीं सकते। आप लोकतंत्र की बात कर रहे थे। आप ऐसे पेश नहीं आ सकते। ऐसी आक्रामक भीड़ में कुछ भी हो सकता था। कुछ समझदार किस्म के लोग हाथ जोड़कर दूर होने लगे और वह दम से बताती रही कि शाहीनबाग बेरौनक हो चुका है। अब पांडाल खाली पड़ा है। उन लोगों की मंशा थी कि जब वहाँ लोग जमा हों तभी कवरेज किया जाए। भीड़ दिखाई जाए। खाली पड़ा मैदान नहीं।

शाहीनबाग की कलई खुल चुकी है। शाहीनबाग की नकली शराफत जाफराबाद की खूनी शरारत में परदे से बाहर आ चुकी है। शाहीनों के परदे के पीछे जो थे वे जाफराबाद में अपनी असलियत में देश को नज़र आ चुके हैं। भारत के खिलाफ खड़े होने की यह एक के बाद एक दो पायदानें थीं।

जब सर्वोच्च न्यायालय ने बातचीत के लिए अपने नुमाइंदे भेजे तो उसी समय एक वीडियो में एक जानी-मानी महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता कुछ महिलाओं को प्रशिक्षण देती नज़र आईं थीं। वे बता रही थीं कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रतिनिधियों से उन्हें कहना क्या है? क्या सवाल करने हैं?

अब जाँच एजेंसियों को यह पता लगाना चाहिए कि शाहीनबाग के हंगामे में ऐसे कितने ट्रेनर इन शेरनियों को रिंग के बाहर लाने के लिए तैयार कर रहे थेे? किस एजेंसी ने 80 दिनों तक मचे रहे इस हंगामे का पेट पैसों से भरा, जो अंतत: जाफराबाद की हिंसा में तब्दील हुआ और 50 से ज्यादा बेकसूर लोगों की जानें चली गईं। वे सब छिपे हुए चेहरे इसके ज्यादा बड़े गुनहगार हैं। उनके चेहरों से नकाब हटना चाहिए वर्ना तय मानिए कि वे अगले शाहीनबाग की तैयारी में लग ही गए होंगे।

वे देश के खिलाफ भीड़ को भड़काने के गुनहगार हैं, जिन्होंने दिल्ली के लाखों लोगों के आवागमन में इतने लंबे समय तक बाधा पैदा की और यह संक्रमण कई शहरों में फैलाने में कामयाब हुए, जिसने दिल्ली के दंगों में इनकी अगली तैयारी की घिनौनी झलक दिखाई। इससे पूरे देश में हिंदू-मुस्लिम घृणा तेज़ी से बढ़ी।

सीएए के बहाने वे एक झूठ फैला रहे थे। उन्होंने अनपढ़ महिलाओं को ढाल बनाकर अपने गंदे इरादों पर अमल करने की कोशिश की। उनकी इस करतूत ने सिर्फ हिंदुओं के ही घरों के कई चिराग नहीं बुझाए, कई मुस्लिम घरों में भी अंधेरा फैला दिया है। वे किसी के भले नहीं हैं। न अपने समुदाय के। न अपने देश के।

(विजय मोहन तिवारी की फेसबुक से साभार )

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