भारत के इतिहास में राणा उदयसिंह का योगदान नगण्य माना जाता है। जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसका योगदान भारत के इतिहास में अनुपम है। इसके समर्थन में ऐसे इतिहास लेखकों का मानना है कि महाराणा उदयसिंह के दृढ़ निश्चय की ओर कभी ध्यान नही दिया गया। चित्तौड़ पर तीस हजार हिंदू नागरिकों के नरसंहार के पश्चात भी महाराणा उदयसिंह ने भय का प्रदर्शन नही किया और ना ही अकबर की शरण में जाना उचित समझा, जबकि तीस हजार हिंदुओं का एक दिन में नरसंहार हो जाना, किसी निर्बल शासक के धैर्य भंग के लिए पर्याप्त था। इसके विपरीत राणा उदयसिंह ने धैर्य से काम लिया और जंगलों में रहकर अपने कार्यों और उद्देश्यों पर ध्यान दिया। उनके पश्चात उनकी इस महान परंपरा का निर्वाह उनके पुत्र महाराणा प्रतापसिंह ने किया। घटना का वर्णन करने के लिए एक तो ढंग यह है कि जिसमें महाराणा उदयसिंह अपने पुत्र के लिए भी प्रेरणा का स्रोत स्पष्टत: दिखायी पड़ता है और एक यह है कि वह तो निर्बल शासक था, उसमें दूरदृष्टि का अभाव था इत्यादि।
अन्य हिंदू शासकों के लिए प्रेरणा का स्रोत-उदयसिंह
एक निष्पक्ष इतिहासकार के लिए उचित है कि वह ‘घटनाएं भी बोलती हैं,’ और न्याय की प्राप्ति के लिए ‘पारिस्थितिकीय साक्ष्य’ भी महत्वपूर्ण होता है, इन दो बिंदुओं पर भी ध्यान है। यदि दोनों बिंदुओं पर ध्यान दिया जाएगा तो कोई भी निष्पक्ष इतिहासकार उदयसिंह के विषय में प्रचलित भ्रांत धारणाओं को तोडक़र यह कहने में कोई संकोच नही करेगा कि महाराणा उदय सिंह का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है। वह पहला व्यक्ति था जिसने अकबर के घोर अमानवीय और पाशविक अत्याचारों के समक्ष झुकना उचित नही समझा। वह धैर्य पूर्वक अकबर के सामने खड़ा हो गया, जिसका परिणाम यह निकला कि देश के अन्य स्वतंत्रता प्रेमी हिंदू शासकों में भी आशा का संचार हो गया।
फलस्वरूप लोगों को यह लगा कि अकबर जैसे क्रूर शासक का सामना भी किया जा सकता है। यदि उदयसिंह तीस हजार शवों को देखकर झुक गया होता तो हम महाराणा प्रताप जैसे कितने ही महान योद्घाओं की मध्यकालीन भारत में भ्रूण हत्या होते देखते। इसलिए निष्पक्ष इतिहास लेखन का तकाजा यही है कि महाराणा उदयसिंह का स्थान उपयुक्त निर्धारित किया जाए।
एक दिन अकबर बादशाह ने भरे दरबार में आमेर के राजा भारमल से पूछा कि क्या यह सत्य है कि मेवाड़ के हर स्त्री पुरूष ने और बच्चे-बच्चे ने यह प्रतिज्ञा की है कि हमें भगवान एकलिंगजी की सौगंध है कि-जब तक चित्तौड़ को स्वतंत्र नही करा लिया जाएगा, तब तक वह भूमि पर ही सोएंगे?
इस पर राजा भारमल ने सम्राट अकबर को बताया कि उन लोगों ने भूमि पर सोने की ही प्रतिज्ञा नही की है, अपितु उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा की है कि जब तक चित्तौड़ को स्वतंत्र नही करा लिया जाएगा तब तक वह सभी एक समय का ही भोजन लेंगे। बादशाह सलामत! वे लोग संगठित हंै और अपनी देशभक्ति के सामने वह अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की भी चिंता नही करते हैं। वह भविष्य के लिए जीते हैं, और उस भविष्य के लिए जिसमें उनके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र इत्यादि जिएंगे। परंपराओं और नैतिकताओं से उनका चरित्र बना है वे जीवन, धन और सुविधाओं की चिंता नही करते हैं, वे सम्मान के लिए जीते हैं। वे अपने को राम का वंशज मानते हैं, अपनी धरोहर के लिए वह कोई भी त्याग कर सकते हैं। तलवार हाथी, घोड़े उन्हें झुकाव नही सकते, पर मित्रता उन्हें झुका सकती है, (संदर्भ : राजपूतों की गौरव गाथा, राजेन्द्रसिंह राठौड़ बीदासर, पृष्ठ 241-242)
1567 ई. में चित्तौड़ को अकबर ने जीत तो लिया था, परंतु वह जीतकर भी दुखी रहता था, क्योंकि वह चित्तौड़ को जीतकर भी उदयसिंह को नही जीत पाया था। इस प्रकार उदयसिंह अकबर के लिए स्वयं एक व्यक्ति न होकर एक राष्ट्र बन गया था। उस काल में स्वयं को इतनी ऊंचाई पर स्थापित कर लेना छोटी बात नही थी।
आज जब इतिहास के पुनरलेखन का समय आ गया है और इस दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ भी रहे हैं तब राणा उदय सिंह जैसे महान व्यक्तित्व का मूल्यांकन नए इतिहास में कुछ इस प्रकार ही होना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत