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इतिहास के पन्नों से

ऋषि दयानंद संसार के अद्वितीय महान युगपुरुष

ओ३म्

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जीवात्मा एक अत्यन्त अल्प परिमाण वाली चेतन सत्ता है। यह अल्प ज्ञान एवं अल्प शक्ति से युक्त होती है। इसका स्वभाव व प्रवृत्ति जन्म व मरण को प्राप्त होना है। जीवात्मा में मनुष्य व अन्य प्राणी-योनियों में जन्म लेकर कर्म करने की सामर्थ्य होती है। मनुष्य योनि में जन्म का कारण इसके पूर्वजन्म व जन्मों के वह कर्म होते हैं जिनका भोग करना शेष रहता है। ईश्वर जीवात्मा को इसके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार जन्म व जाति-आयु-भोग प्रदान करता है। सभी जीवात्मायें एक ही प्रकार की हैं। इनमें सत्तात्मक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। सभी जीवात्मायें अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी, एकदेशी, ससीम तथा जन्म-मरण धर्मा हैं। सभी जीवात्माओं को अनन्त बार अनेक वा सभी योनियों में जन्म व मृत्यु प्राप्त हो चुकी है। सभी जीवात्मायें कई-कई बार मोक्ष में भी आती जाती रही हैं। जीवात्मा के जब पाप व पुण्य कर्म बराबर होते हैं अथवा पाप कम तथा पुण्य अधिक होते हैं, तब परमात्मा उन्हें मनुष्य योनि में जन्म देते हैं। शुभ कर्मों की जितनी अधिकता और पाप कर्मों की जितनी न्यूनता होगी उतना ही जीवात्मा को मनुष्य योनि में उत्तम, मध्यम या साधारण कोटि में जन्म मिलेगा। परमात्मा जीवात्मा के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकालदर्शी है। वह जीवात्मा के कर्म संग्रह व प्रारब्ध के अनुसार जीवात्मा को जन्म देता है। जीवात्मा जन्म लेकर अपनी पूर्व अर्जित ज्ञान व कर्म सम्पदा को बढ़ाता व अपने कर्मों से न्यून भी करता है।

ऋषि दयानन्द के जीवन पर विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि उन्होंने गुजरात प्राप्त में मोरवी राज्य के टंकारा नाम ग्राम में एक निष्ठावान पौराणिक ब्राह्मण पं. करसनजी तिवारी के यहां जन्म लेकर अपने पूर्व संस्कारों व प्रारब्ध के अनुसार अपने ज्ञान व सद्कर्मों में अपूर्व वृद्धि की थी। उनके जैसा सत्यान्वेषी एवं ईश्वर को तर्क तुला पर तोल कर मानने वाला दूसरा कोई महापुरुष उनसे पूर्व व पश्चात उत्पन्न नहीं हुआ। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर को विद्वानों के उपदेश, शास्त्रीय अध्ययन व योग विधि से जानकर और समाधि अवस्था उसका साक्षात्कार किया था। उन्होंने ईश्वर विषयक अपने ज्ञान एवं साक्षात्कार के अनुभवों का लाभ केवल अपने मोक्ष प्राप्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु उसे मनुष्य मात्र के हित, सुख व कल्याण के लिए प्रस्तुत किया। ऋषि दयानन्द ने अपने ज्ञान व अनुभव का लाभ समस्त मानव जाति को प्रदान करने के लिये अपना सारा जीवन सत्य ज्ञान के प्रचार, अविद्या निवारण, देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा करने और उसके उपाय सुझाने, समाज में व्याप्त अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित मिथ्या परम्पराओं का सुधार करने तथा महाभारत काल के बाद सन्ध्या व देवयज्ञ आदि विस्मृत वेद विहित अनुष्ठानों का प्रचार करने आदि कार्यों में व्यतीत किया। मनुष्य जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है जिस पर उन्होंने विचार न किया हो और वेद प्रमाण, तर्क एवं युक्ति के आधार पर चिन्तन-मनन व विश्लेषण कर उसका समाधान न किया हो। न केवल देश के अपितु विश्व के लोगों ने अपने-अपने मतों के पक्षपात के कारण उनके कार्यों के महत्व को समझने का प्रयास नहीं किया। ऋषि दयानन्द ने सत्योपदेश व वेदप्रचार के परिणामों को ध्यान में न रखकर मनुष्य मात्र के हित, कल्याण तथा देशहित को अपनी दृष्टि में रखकर निष्पक्ष एवं उदारता का परिचय देते हुए सबको सन्मार्ग बताया। उनका दिया हुआ वैदिक जीवन दर्शन पूर्ण मानव जाति के जीवन के लिये उपादेय जीवन-दर्शन है जिसे अपनाकर मनुष्य लोक व परलोक में उन्नति, सुख प्राप्ति तथा दुःखों से सर्वथा मुक्त होकर मृत्यु के पश्चात मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है। उन जैसा जीवन महाभारत युद्ध के बाद किसी महापुरुष का जीवन दृष्टिगोचर नहीं होता। ऋषि दयानन्द सद्कर्मों वा सदाचरण सहित सद्ज्ञान से युक्त होने के कारण धन्य थे और उन्होंने हमें भी सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं वेदभाष्य आदि अनेक ग्रन्थ देकर हमारा ज्ञानवर्धन किया जिससे हम धन्य हुए हैं।

ऋषि दयानन्द ने अपनी आयु के 21 वर्ष पूर्ण कर ईश्वर के सच्चे स्वरूप की प्राप्ति एवं मृत्यु पर विजय पाने अर्थात् जन्म व मरण से अवकाश प्राप्त करने के साधनों का ज्ञान प्राप्त करने के लिय अपने पिता का गृह त्यागा था। वह देश के समस्त धार्मिक व तीर्थ स्थानों पर जाकर धार्मिक व सामाजिक विद्वानों से मिले थे और उनसे ईश्वर के सत्य स्वरूप एवं मृत्यु पर विजय के उपायों पर चर्चायें कीं थी। उन्हें योग विद्या के योग्य गुरु भी मिले थे जिनसे प्रशिक्षण प्राप्त कर वह योग के सफल अभ्यासी व सिद्ध पुरुष बने थे। उनके आचरणों व व्यवहारों से अनुभव होता है कि लगभग 35 वर्ष की आयु होने पर सन् 1860 में वह दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी के निकट मथुरा में अध्यनार्थ उपस्थित होने से पूर्व उनको ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान व साक्षात्कार हो चुका था। गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से उन्होंने वेदांगों मुख्यतः शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त आदि का अध्ययन किया था। वेद विषयक सभी प्रकार की आवश्यक चर्चायें भी उन्होंने गुरुवर से अवश्य की होंगी। इन सब कारणों से ही गुरुजी का दयानन्द जी के प्रति असीम स्नेह व प्रेम था। वह दयानन्द जी के वेदांगों के ज्ञान सहित योग में उनकी उपलब्धियों से भी परिचित थे और उन्होंने अनुभव किया था कि उनका शिष्य दयानन्द संसार में व्याप्त वा प्रचलित अविद्या को दूर कर वेद विद्या का प्रकाश कर सकता है जैसे ज्ञान का प्रकाश वैदिक युग में मुख्यतः आर्यावर्त वा भारत में था।

ऋषि दयानन्द ने इस कार्य को अपने जीवन का एक-एक क्षण व पल का उपयोग करते हुए किया भी। विद्या पूरी करने के बाद गुरु की प्रेरणा से उन्होंने विद्या के पर्याय चार वेदों का प्रचार करने का निश्चय किया। उन्होंने इसके लिये वेदों को प्राप्त कर उनका गहन अध्ययन व मनन किया था। उस समय का समाज वेद विरुद्ध मान्यताओं मूर्तिपूजा, फलित-ज्योतिष, ईश्वर के अवतार की मान्यता, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, बाल व युवा विधवाओं की दयनीय दशा, समाज में जन्मना जातिवाद की वेद विरुद्ध अनेक प्रथाओं से ग्रस्त था। ऋषि दयानन्द जी वेद-विद्या के प्रचार प्रसार, असत्य के खण्डन तथा सत्य के मण्डल के महत्व से भली भांति परिचित हो चुके थे। अतः उन्होंने समाज सुधार का डिण्डिम घोष किया था। उन्होंने राम व कृष्ण आदि अवतार मानने व उनकी मूर्तियों को मन्दिरों व घरों में स्थापित कर उनकी पूजा करने का निषेध व खण्डन वेद प्रमाणों, तर्कों व युक्तियों से किया। पूरे देश में कोई विद्वान ऐसा नहीं था जो उनके किसी तर्क व युक्ति का खण्डन व समाधान कर सके। उस समय के निष्पक्ष एवं विवेक बुद्धि रखने वाले सभ्य पुरुषों को ऋषि दयानन्द की बातें उचित प्रतीत हुईं थी। ऋषि दयानन्द जी की सभाओं में बड़ी संख्या में लोग आते थे और उनसे वैदिक मत की दीक्षा लेते व उनके ग्रन्थों को प्राप्त कर उनका स्वाध्याय कर उनके अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते थे। इस कारण से अनेक लोगों के आर्थिक स्वार्थों को हानि पहुंच रही थी। वह सब मत-मतान्तर वाले लोग एक जुट होकर उनका विरोध करने लगे। किसी ने भी उनकी बात को समझने का प्रयत्न नहीं किया। एकान्त में वह सब अपने अपने मतों की निरर्थकता को जानते व बताते थे। सत्य को स्वीकार करने व स्वार्थों को छोड़ने का सामथ्र्य अधिकांश लोगों में नहीं था। ऐसा होने पर भी उस समय के अनेक पौराणिक विद्वानों सहित अन्य मतों के भी कुछ लोग वैदिक सिद्धान्तों एवं मान्यताओं से प्रभावित होकर वेद मत की शरण में आयें और उन्होंने ऋषि दयानन्द के प्रति अपनी सद्भावनायें व्यक्त की। इस प्रकार ऋषि दयानन्द के द्वारा भारत में धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों, परम्पराओं व कुरीतियों पर प्रहार हुआ जिसकी गूंज विश्व के अनेक देशों में पहुंचीं और देश विदेश के अनेक विद्वानों ने ऋषि दयानन्द के प्रति सहानुभूति एवं उनके विचारों के प्रति सहमति भी व्यक्त की।

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सत्य का अनुसंधान कर ईश्वर के सच्चे स्वरूप का पता लगाया, ईश्वर के प्रति मनुष्यमात्र के कर्तव्यों को जाना और उनेा सर्वत्र प्रचार किया। ऋषि दयानन्द का ज्ञान वेद प्रमाणों से युक्त होने सहित तर्क व युक्तियों पर आधारित था। ऋषि दयानन्द का कार्य अभूतपूर्व कार्य था। ईश्वर के जिस सत्यस्वरूप तथा उपासना पद्धति का ऋषि दयानन्द ने प्रचार-प्रसार किया उस स्वरूप से उनके समय के विश्व का जनसमुदाय सर्वथा अनभिज्ञ था। स्वाध्याय न करने व सत्यस्वरूप के ज्ञान के प्रति इच्छा के अभाव के कारण विश्व के अधिकांश लोग आज भी अविद्या से युक्त हैं और मिथ्या बातों को ही मानते हैं। ऋषि दयानन्द के समय में ईश्वर के सत्यस्वरूप से भिन्न, अवैदिक व अज्ञानता से युक्त ईश्वर के अनेक गुणों आदि की स्तुति व उपासना प्रचलित थी। ऋषि दयानन्द के सभी सिद्धान्त तर्क, युक्ति व सृष्टिक्रम के सर्वथा अनुकूल हैं। अन्य मतों में ऐसा नहीं है। ऋषि दयानन्द ने धार्मिक एवं सामाजिक अन्धविश्वासों व परम्पराओं का भी पूरी सामथ्र्य से विरोध किया। इसके लिए उन्होंने अपने प्राणों को भी जोखिम में डाला। अनेक बार उनके विरोधियों ने उनकी हत्या करने के षडयन्त्र रचे तथापि ऋषि दयानन्द ने इनकी चिन्ता न कर मानवमात्र के हितकारी कार्यों को प्रभावित नहीं होने दिया और इनको पूरे उत्साह एवं पुरुषार्थ से करते रहे। अन्ततः वह कुछ ताकतों के षडयन्त्रों का शिकार होकर बलिदान को प्राप्त हो गये। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सरकार व सभी मत-मतान्तर उनके विरोधी थे। ऋषि दयानन्द की विचारधारा ने सबका आधार कमजोर किया था। वह एक प्रकार से ज्ञान विज्ञान के सम्मुख अप्रासंगिक से हो गये थे। सत्य को स्वीकार करने का साहस किसी में नहीं था। कोई मत व विद्वान अपने मत की मान्यताओं को लेकर उनके पास चर्चा व शास्त्रार्थ करने नहीं आता था। यदि कोई आया भी तो ऐसा अपवादरूप में ही हुआ। अपनी मृत्यु से पूर्व ऋषि दयानन्द अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर गये। उनके सिद्धान्तों के अनुरूप जीवन पद्धति को अपनाकर ही मनुष्य श्रेष्ठ व आदर्श वैदिक जीवन व्यतीत करते हुए मोक्ष को प्राप्त होकर जन्म-मरण के बन्धों से छूट कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त हो सकता है।

ऋषि दयानन्द ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। उनके प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, आर्योद्देश्यरत्नमाला, भ्रान्तिनिवारण आदि हैं। वेदभाष्य के रूप में ऋग्वेद (आंशिक) एवं यजुर्वेद पर सम्पूर्ण संस्कृत-हिन्दी भाष्य कर उन्होंने प्रभूत ज्ञानराशि विश्व के लोगों को प्रदान की है। उनके जीवन चरित भी अत्यन्त शिक्षाप्रद हैं। उनके उपदेशों का संग्रह उपदेश-मंजरी, शास्त्रार्थ एवं प्रवचनों के संग्रह, उनकी आत्मकथा, उनका पत्रव्यवहार आदि भी मनुष्य जाति की अनमोल निधियां व ज्ञान के भण्डार हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में देश में विदेशी अंग्रेजी सरकार के होते हुए तथा सन् 1857 में देशभक्तों का निर्दयता से संहार करने पर भी अपनी आवाज को दबाया नहीं। सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने देश की आजादी का खुलकर स्पष्ट शब्दों में बिगुल बजाया है। कुछ विद्वान सत्यार्थप्रकाश के इन्हीं शब्दों को उनकी मृत्यु का कारण मानते हैं। सम्पूर्ण वेद ही देश को आजाद कराने की प्रेरणा करता है। वेद का अध्ययन करने वाला मनुष्य न केवल अपने देश को स्वतन्त्र देखना चाहता है अपितु वह चाहता है कि सर्वोत्तम गुणों व व्यवहारों से युक्त वेद की शिक्षाओं के अनुसार शासन ही सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो। वेद में परमात्मा ने ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ कह कर ऐसा ही वैदिक राष्ट्र व वैदिक विश्व बनाने की प्रेरणा भी की है। एक अनुमान के अनुसार ऋषि दयानन्द के समय व आजादी तक के सभी ऋषिभक्त, वेदानुयायी एवं आर्यसमाजी लगभग शत-प्रतिशत देश को आजाद कराने की भावनाओं से युक्त थे और उन्होंने किसी न किसी रूप में देश की आजादी में अपना योगदान दिया था। क्रान्तिकारियों के आद्य आचार्य पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा भी ऋषि दयानन्द के साक्षात् शिष्य रहे। ऋषि की प्रेरणा से उन्होंने इंग्लैण्ड जाकर संस्कृत का अध्यापन किया था।

ऋषि दयानन्द के समय में देश अज्ञान व अशिक्षा से भरा हुआ था। ऋषि दयानन्द ने शिक्षा व ज्ञान के महत्व का प्रकाश व प्रचार किया। उन्होंने संस्कृत अध्ययन के लिये कुछ पाठशालायें भी खोली थीं। उनके शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के तीसरे समुल्लास में वर्णित गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति को साकार रूप दिया एवं एक विश्व विख्यात गुरुकुल को हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम में स्थापित किया था जिसने महाभारत यद्ध के कुछ बाद अवरुद्ध वैदिक विद्वानों की परम्परा को पुनः प्रचलित किया। इस गुरुकुल से समय-समय पर अनेक वेदों के शीर्ष विद्वान प्राप्त हुए। हिन्दी पत्रकारिता एवं हिन्दी व संस्कृत के अध्यापन में भी गुरुकुल से योग्य स्नातक व आचार्य प्राप्त हुए। स्वामी श्रद्धानन्द जी और स्वामी दर्शनानन्द जी ने देश के अनेक भागों में अनेक गुरुकुल खोले। यह गुरुकुलीय आन्दोलन समय के साथ लोकप्रिय हुआ और देश में बालक बालिकाओं के पृथक-2 अनेक गुरुकुल स्थापित हुए जो आज भी सैकड़ों की संख्या में देश भर में चल रहे हैं। हमारे पौराणिक विद्वान स्त्रियों को वेदों के अध्ययन, मन्त्रपाठ व वेदमन्त्र सुनने तक का अधिकार नहीं देते थे। ऋषि दयानन्द ने स्त्रियों व शूद्रों को वेदाधिकार दिया। उनकी ही कृपा से आर्यसमाज के गुरुकुलों से अनेक वेद विदुषी देवियां यथा आचार्या डा. प्रज्ञा देवी, डा. सूर्यादेवी, डा. नन्दिता शास्त्री, डा. सुमेधा, डा. सुकामा, डा. प्रियम्वदा, डा. अन्नपूर्णा, डा. धारणा आदि प्राप्त हुईं हैं जिन्होंने स्वयं गुरुकुल संचालित कर सहस्रों कन्याओं को वैदिक धर्म की प्रचारक विदुषी वैदिक नारी बनाया है। ऋषि दयानन्द की मृत्यु के बाद संयुक्त पंजाब की आर्यसमाजों ने उनकी स्मृति में डी.ए.वी. स्कूल एवं कालेजों का देश-विदेश में संचालन किया। इन स्कूल कालेजों से अब तक करोड़ों युवक युवतियों ने शिक्षा प्राप्त की व अब भी कर रहे हैं जिससे देश से अज्ञान का अन्धकार दूर होकर आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान में वृद्धि हुई है। आर्यसमाज से प्रेरणा लेकर सनातन धर्म सभाओं आदि अनेक संस्थाओं ने विद्यालयों का संचालन किया। वर्तमान में शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है। अब शिक्षा का पहला जैसा स्तर भी नहीं रहा। राजनेताओं को सत्ता चाहिये। शिक्षा के स्तर को लेकर उनको कभी गम्भीर नहीं देखा गया। आज अनेक शिक्षण संस्थायें ऐसी हैं जहां देश का अरबों रुपया व्यय होता है और यहां देशभक्त लोग नहीं अपितु देश विरोधी युवक युवतियां तैयार होते हैं। ऋषि दयानन्द के समय से ही आर्यसमाज ने शिक्षा जगत में देश व धर्म को महत्व देने वाली तथा चरित्रवान युवक व युवतियों का निर्माण करने वाली शिक्षा का प्रचार किया है। इन सबका प्रमुख श्रेय आर्यसमाज व उसके संस्थापक ऋषि दयानन्द को जाता है।

ऋषि दयानन्द के समय में वेद विलुप्त हो चुके हैं। वेद के मन्त्रों का सत्य व यथार्थ अर्थ करने की योग्यता विद्वानों में नहीं थी। काशी विद्या की नगरी थी। यहां कहीं वेदों का अध्ययन-अध्यापन होता था, इसकी जानकारी नहीं मिलती। वेद ही लुप्त थे तो वेदों का अध्ययन कैसे व क्योंकर होता? काशी के अतिरिक्त देश के अन्य क्षेत्रों में तो वेदाध्ययन होना सम्भव ही प्रतीत नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने विलुप्त वेदों का उद्धार किया। उन्होंने वेदों के सत्य,यथार्थ एवं व्यवहारिक अर्थों को प्रकाशित एवं प्रचारित भी किया। इंग्लैण्ड निवासी जर्मन विद्वान प्रो. मैक्समूलर तक ने ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की प्रशंसा की है। ऋषि के इस ग्रन्थ को पढ़कर मैक्समूलर के विचारों में भी परिवर्तन हुआ। मैक्समूलर यहां तक प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से होता है और उसकी समाप्ति ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पर होता है। मैक्समूलर महोदय ऋषि से प्रभावित थे। वह ऋषि दयानन्द का जीवन चरित लिखना चाहते थे परन्तु उनके प्रस्ताव का ऋषि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी सभा ने उत्तर नहीं दिया था। ऋषि दयानन्द की कृपा से आज वेदों की पूर्ण प्रामाणिक वेद संहितायें एवं वेदों पर ऋषि दयानन्द एवं उनके अनुयायी अनेक विद्वानों के आंशिक एवं सम्पूर्ण भाष्य उपलब्ध हैं। ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों के उद्धार के महत्व का अनुमान तो वेदों की परम्परा से जुड़े विद्वान ही लगा सकते हैं। ऋषि दयानन्द के वेदप्रचार से भारत के नगरों व ग्रामों में रहने वाले हिन्दुओं सहित पर्वतों व वनों आदि सुदूर स्थानों पर रहने वाले आदिवासी हिन्दुओं का ईसाई व इस्लाम मत में छल, बल व लोभ से किया जाने वाला परावर्तन एवं धर्मान्तरण भी कम हुआ। आज यह फिर तेजी से सिर उठा रहा है और भीतर ही भीतर अनेक प्रकार से इसे अंजाम दिया जा रहा है। हिन्दू समाज के शिक्षित लोग इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। देश का सौभाग्य है कि आज केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार है जिनके समय में हिन्दुओं व आर्यों की उपेक्षा होनी कुछ कम हुई है। आर्यसमाज व हिन्दू समाज पर दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट दीखता है कि यह आज भी भावी संकटों व समस्याओं से बेखबर व उदासीन हैं। आर्यसमाज का संगठन क्षीण प्रायः है। यदि आर्यसमाज संगठित नहीं हुआ, हिन्दू समाज और आर्यसमाज में देश की समस्याओं मुख्यतः धर्मान्तरण व जनसंख्या वृद्धि रोकने पर परस्पर सार्थक सहयोग नहीं हुआ तो यह आर्य हिन्दू जाति के लिए अत्यन्त दुःखद अस्तित्व का संकट उत्पन्न कर सकता है। किसी सेकूलर दल की हिन्दू जाति के पराभव को रोकने में किंचित भी रुचि नहीं है। ऋषि दयानन्द महाभारत के बाद उत्पन्न हुए महापुरुषों में अद्वितीय व सर्वतोमहान महापुरुष थे। उनके कारण हिन्दू जाति की रक्षा हुई है। उनके बताये मार्ग पर चलकर ही हिन्दू आर्य जाति भविष्य में भी रक्षित रह सकती है। प्रश्न है कि क्या यह ऋषि दयानन्द के संगठन एवं शुद्धि के विचारों को अपनाती है अथवा नहीं? ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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