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आज का चिंतन

वास्तविक बाल दिवस तो आज है : गुरु पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह को उनके बलिदान दिवस पर श्रद्धा सुमन

देश अभी ईसा मसीह के जन्म दिवस की खुशियों में डूबा हुआ है । धर्मनिरपेक्षता का राग हमारे सिर पर किस कदर चढ़कर बोल रहा है इस बात का पता हमारे इस आचरण से चल जाता है कि हम ने 25 दिसंबर को महाराजा सूरजमल को , पंडित मदन मोहन मालवीय जी और अटल बिहारी वाजपेई जी को उनके जन्मदिवस पर याद किया हो या न किया हो पर ईसा मसीह को अवश्य याद किया है । अपनों को भूल जाना और दूसरों को याद रखना हमारी प्रकृति बन चुकी है । ऐसा ही एक इतिहास नायक गुरु गोविंद सिंह और उनका परिवार है , जिनके बलिदान के लगभग सवा 300 वर्ष पश्चात हमने उन्हें पूर्ण रूप से भुला दिया है । 21 दिसंबर से 27 दिसंबर का सप्ताह हमें प्रत्येक वर्ष इस परिवार की शहादत के रूप में मनाना चाहिए , परंतु ऐसा न करके हम इस पूरे सप्ताह में उस ईसा की याद में खोए रहते हैं जिसके धर्म को ब्रिटेन में प्रत्येक वर्ष पांच लाख लाख लोग छोड़ रहे हैं और एक सर्वे के अनुसार वहां पर हिंदू धर्म और इस्लाम इस तेजी से बढ़ रहे हैं कि 2030 में वहां ईसाई धर्म के अनुयाई अल्पसंख्यक हो जाएंगे । इसका कारण केवल एक ही है कि प्रभु यीशु की सारी कहानी झूठ पर टिकी है ।

अंग्रेजों की गुलामी की निशानियां अभी तक हमारा पीछा कर रही हैं , जबकि अपनी गुलामी को मिटाकर आजादी के लिए संघर्ष करने वाले इतिहास नायक गुरु गोविंद सिंह और उनके परिवार को हमने भुला दिया है । अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का नाम ही सेकुलरिज्म है।

21 दिसंबर का वह ऐतिहासिक दिन है जब गुरु गोविंद सिंह जी ने परिवार सहित श्री आनंद पुर साहिब का किला छोड़ा।

22 दिसंबर को गुरु गोविंद सिंह अपने दोनों बड़े पुत्रों सहित चमकौर के मैदान में मुगलों से युद्ध करने के लिए पहुंचे , जबकि गुरु माता और गुरुजी के दोनों छोटे पुत्रों जोरावर सिंह फतेह सिंह को गंगू नाम का ब्राह्मण अपने घर ले आया था । गंगू ब्राह्मण गुरुजी का रसोईया भी रहा था। इसी दिन गुरुजी के बड़े सुपुत्र अजीत सिंह ने 17 वर्ष की अवस्था में और उनसे छोटे पुत्र जुझार सिंह ने मात्र 14 वर्ष की अवस्था में अपने देश धर्म की आजादी के लिए लड़ते हुए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया था।

इन दोनों महान सपूतों के साथ उनके 11 अन्य साथी भी बलिदानी परंपरा में अपना नाम लिखा कर अमर हो गए थे ।

23 दिसंबर को स्वार्थी और गद्दार गंगू ब्राह्मण ने चोरी का आरोप लगाकर गुजरी माता और दोनों गुरु पुत्रों फतेह सिंह और जोरावर सिंह को गिरफ्तार करा दिया था । ‘ जयचंद ‘ ने अपना खेल खेला और माता गुजरी वह दोनों गुरु पुत्र अपना खेल खेलने के लिए तैयारी करने लगे।

24 दिसंबर को गुजरी माता के साथ इन दोनों महान सपूतों को बलिदान के लिए सरहिंद पहुंचाया गया और वहां ठंडे बुर्ज में नजरबंद किया गया।

25 और 26 दिसंबर को देश धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए उद्यत छोटे साहिबजादों को नवाब वजीर खान की अदालत में पेश किया गया और उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए लालच दिया गया। मुगलों की ओर से लाख उपाय करने के उपरांत भी इन दोनों गुरु पुत्रों ने धर्म परिवर्तन करने से इनकार कर दिया।

27 दिसंबर को वीर पुत्र जोरावर सिंह को केवल 9 वर्ष की अवस्था में और फतेह सिंह को मात्र 7 वर्ष की अवस्था में क्रूर मुगल शाही ने जिंदा दीवार में चुनवा दिया था । इसके पश्चात दोनों गुरु पुत्रों का गला भी रेत दिया गया था। इसकी सूचना जैसे ही माता गुजरी कौर को प्राप्त हुई तो उन्होंने तुरंत प्राण त्याग दिए थे। यह घटना 1704 ईस्वी की है ।

कुछ इतिहासकारों ने इस घटना को 26 दिसंबर का होना भी माना है । अब तारीख चाहे 26 दिसंबर हो या 27 दिसंबर हो , पर हमारा मानना है कि वास्तविक बाल दिवस तो हमारे लिए यही दिवस है । इस दिवस को हम इसी रूप में मनाएं जिससे अपने इतिहास के इस उज्जवल पक्ष को हम अपने बालकों के मन मस्तिष्क में स्थापित करने में सफल हो सके।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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