यज्ञ का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। यदि कहें कि जबसे सृष्टि का निर्माण हुआ है तब से यज्ञों का प्रचलन है तो कुछ अनुचित न होगा। क्योंकि चारों वेदों में यज्ञ की महिमा यज्ञ करने का निर्देश व आदेश दिया हुआ है वैदिक संस्कृति को यदि एक शब्द में संहृत करना हो तो वह शब्द है- ‘यज्ञ’ वेद में ईश्वर हमें यह आदेश देते हैं- ‘क्रतुर्भव’ अर्थात क्रतु बन। अर्थात यज्ञ करने वाला बन जा। वेदों में यज का बार-बार उल्लेख आता है चारों वेदों में ‘यज’ शब्द सहस्रों बार आया है। उपनिषदों में भी यज्ञों का महात्म्य प्रकट किया है। अनेक कथानकों द्वारा यज्ञ महिमा प्रदर्शित की गई है विशेषकर मुण्डकोपनिषद्, वृहदारण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषद् में यज्ञ का बहुतायत से वर्णन है।
वृहदारण्यक उपनिषद् में विदेह देश में रहने वाले राजा जनक ने यज्ञ का आयोजन किया। मण्डूक उपनिषद् में भी यज्ञ-कर्म का वर्णन है। उसमें कहा गया है, मनुष्यों को नित्यप्रति अग्निहोत्र करना चाहिए।
यदा लेलायते हयर्चिः समिध्ये हव्यात्रहने तदाजय भागवन्तरेणाहुतीः प्रतिपादयेत् ।। (म-द्वितीय) शतपथ ब्राह्मण में भी स्पष्ट लिखा है- शाश्बद्ध वा एष न संभवति योऽग्निहोत्रं-
न जुहोति तस्मादग्निहोत्रं होतव्य । अर्थात् विचारवान मनुष्य अपने मन के द्वारा यज करता है। रामायण काल में यज्ञों का बहुत प्रचलन था महाराजा दशरथ ने स्वयं पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया था और जब राम व लक्ष्मण बड़े हुए तब ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें यज्ञ की रक्षा के लिए बुलाया था।