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इतिहास के पन्नों से

महाभारत का कर्ण* –भाग-1

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डॉ डी के गर्ग

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पौराणिक कथाये: महाभारत के कर्ण को दानवीर कर्ण के नाम से विख्यात किया गया है। कर्ण (साहित्य-काल) महाभारत (महाकाव्य) के महानायक है। वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत कर्ण और पांडवों के जीवन पर केन्द्रित हैद्य कर्ण महाभारत के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारियों में से एक थे। कर्ण छः पांडवों में सबसे बड़े भाई थे ।
जन्म कथा: – यदुवंशी राजा शूरसेन की एक कन्या थी। जिसका नाम पृथा था। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को दे दिया। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। एक बार कुंती ने महर्षि दुर्वासा की बड़ी सेवा की जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उसे एक मंत्र दिया और कहा कि इस मंत्र से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी उसी की कृपा से तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा। उसने एकांत में जाकर भगवान सूर्य का आवाहन किया। सूर्यदेव ने आकर तत्काल कुंती को गर्भस्थापन किया। जिससे तेजस्वी कवच व कुंडल पहने एक सर्वांग सुंदर बालक उत्पन्न हुआ। सूर्य द्वारा प्राप्त होने कारण कुंती के इस पुत्र को सूर्य पुत्र कहा जाता हैं।
कर्ण के विषय में कथाकारों की कुछ बातें:
१ कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थीं और कर्ण सहित सभी पाण्डवों के धर्मपिता महाराज पांडु थे।कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था।
२ कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्य थे।
३ कर्ण महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा।
४ कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। इसी से जुड़ा एक वाक्या महाभारत में है जब अर्जुन के पिता भगवान इन्द्र ने कर्ण से उसके कुंडल और दिव्य कवच माँगे और कर्ण ने दे दिए।
५ जयेष्ठ पुत्र होनी के नाते वास्तविक रूप से कर्ण ही हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही।
६ कर्ण को उसके गुरु परशुराम से श्राप मिला था। इसके पीछे कहानी ये है –
एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छू आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छू को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी और उन्होनें देखा की कर्ण की जाँघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में और परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी।
कुछ लोककथाओं में माना जाता है कि बिच्छू के रूप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को परसुराण के सामने उजागर करना चाहते थे।
७ एक बार शब्दभेदी बाण चला देने से गौ का बछडा़ मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे अधिक असहाय होगा।
इस प्रकार कर्ण के जीवन के साथ अनेको शाप जुड़े है। और कर्ण को मिले विविध श्रापों का प्रभाव को लेकर भी अनेको कथाये है।
विश्लेषण: आज के वैज्ञानिक युग में सबसे बड़ा झूट है की सूर्य से किसी महिला को संतान के लिए गर्भादान हो सकता है। समय बर्बाद ना करते हुए आप समझने का प्रयास करें की सूर्य क्या है , उसका आकार ,तापमान , पृथ्वी से दूरी आदि कितनी है तो सब गप्प अमझ आ जाएगा।
वास्तविकता की परख – -कुछ प्रश्न —
ऽ क्या कुंती के कान से पैदा होने के कारण उसके पुत्र को कर्ण कहा गया?
ऽ क्या कर्ण सारथी पुत्र था?
ऽ क्या कर्ण किसी ऋषि की संतान था। यदि हां तो कौन से ऋषि का?
ऽ क्या विधाता की सृष्टि के नियम के विरुद्ध किसी का जन्म हो सकता हैं?
ऽ क्या कर्ण सूर्यपुत्र था। अथवा सूर्य के आशीर्वाद से उत्पन्न हुआ था?
इस विषय में काफी अध्ययन किया लेकिन कोई प्रामाणिक साहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इसके कई कारण है की मुगलो ,अंग्रेजो ने , वाममार्गियों आदि ने अधिकांश वैदिक साहित्य को नष्ट कर दिया। विश्व की सबसे बड़ी लाइब्रेरी तक्षशिला को नष्ट करके साहित्यक रूप से हिन्दू समाज को अंधविस्वास में धकेल दिया और आज ये काम धूर्त कथावाचक कर रहे है।
इस विषय में ब्रह्मचारी ब्रह्मदत्त के द्वारा सुनाई गयी एक कथा जो की श्रृंग ऋषि ने महानंद मुनि शिष्य को व अन्य मुनियों को क्या व्याख्यान के विषय में है ,इस पर ध्यान देते है –कथा इस प्रकार प्रकार है-
राजा कुंतेश्वर के केवल एक कन्या थी जिसका नाम कुंती था। उनकी वह कन्या महान सुशील थी तो उनकी इच्छा हुई कि इसको इस प्रकार की विद्या और शिक्षा दी जाए जिससे यह ज्ञानवान और सुयोग्य हो। तब राजा ने खोज की और भृगु ऋषि के पास पहुंचे और पूछा कि वृद्ध महान महात्माओं से वह कोई शिक्षा पा सकते हैं। उस समय राष्ट्र में महान वन था और उस भयंकर वन में करूड़ नाम के ब्रह्मचारी रहा करते थे, ऐसा सुना जाता है परंतु इतनी अवस्था होने से प्रजन्य नाम के ब्रह्मचारी आदित्य नाम से कहे जाते थे। वृद्ध राजा ने सोचा मेरी कन्या यहां हर प्रकार से शिक्षा पा सकती है उस समय उनकी आयु 284 वर्ष की थी। ऋषि से निवेदन किया और अपनी इच्छा को बताया कि मैं अपनी कन्या को आपके आश्रम में नियुक्त करना चाहता हूं। ऋषि ने आज्ञा दी हमें स्वीकार है और वह कन्या आश्रम में रहने लगी।
ऋषि ने बाल्यावस्था से व्याकरण का पूर्ण ज्ञान दिया और बाद में सब विद्याओं का बोध कराया। कुछ ही काल में वह कन्या सब विद्याओं से संपन्न हो गई और फिर यौवन को प्राप्त हुई और बहुत तेजस्वी ब्रह्मचारिणी सब विद्या में पारंगत हो गई।
उस समय कुछ ऐसा कारण हुआ कि वहां श्वेतमुनि आ पहुंचे। श्वेत नाम के ब्रह्मचारी ने सोचा वह उस समय युवा थे महान तेजस्वी थे। परंतु यह माया मानव को दुर्भाग्य से कहां की कहां पहुंचा देती हैं और कहां तक इंसान को तुच्छ बना देती हैं। उस महान ब्रह्मचारी ने उस ऋषि के आश्रम में जब उस युवा सुशील कन्या को देखा तो उनके मन में तीव्र गति पैदा हुई और उनके मन की जो आकृति थी। उस अवस्था में जब उस कन्या ने उस तेजस्वी ब्रह्मचारी बालक को देखा तो उस काल में ऋतुमती थी। उन दोनों ने एक-दूसरे को देखा और दोनों का परस्पर मिलन हुआ और पुनः जब कुछ काल पश्चात ब्रह्मचारी ने कन्या को देखा तो अनुभव हुआ कि उनसे ऋषि भूमि में कितना बड़ा मानसिक पाप हुआ है उस पाप की उन्होंने जो अंतः करण द्वारा हो गया है उसकी क्षमा मांग ली और पर्वतों आदि का भ्रमण उपवास रखकर आरंभ कर दिया।
अब उस ब्रह्मचारिणी को ज्ञात हुआ कि तुमने महान पाप किया है तो सोचने लगी क्या करना चाहिए और अज्ञान के कारण पाप हो गया था। तो अपने गुरु से सब बताया और उनसे पूछा कि अब मैं क्या करूं ? तो गुरु ने कहा कि मैं क्या कर सकता हूं। अब ऐसा करो कि जब बालक उत्पन्न हो तो उसको ऐसी शिक्षा दो कि वह योग्य बने। ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि यह बालक महान बलवान योग्य विद्वान हो। तो उस कन्या के हृदय में यह भावना उत्पन्न हुई कि जैसे सूर्य तीनों लोकों में अपने ताप और प्रकाश से उज्जवल हैं वैसे यह बालक हो।
उस कन्या के कुछ समय पश्चात बालक उत्पन्न हुआ और गुरु जी को बताया कि अब जब पिता के गृह में जाऊंगी तो बड़ा पाप होगा। अब मुझे क्या करना चाहिए गुरुजी ने कहा तो अच्छा पुत्री तुम कुशा का आसन बनाओ उस पर पुत्र को प्रविष्ट करके गंगा में तिलांजलि दे दो। देवी कुंती ने गंगा नदी के प्रवाह के मार्ग द्वारा बालक को उसके जैविक पिता श्वेत मुनि के आश्रम के पास छोड़ दिया। मुनि के शिष्य उस बालक को अपने गुरु के पास ले गए और इसको गुरु ने अपने पास रख लिया। शिष्यों के द्वारा इस बच्चे के माता पिता के विषय में जानने की इच्छा होने से पूर्व ही गुरु ने इसको सूत पुत्र बता दिया। ये बालक सभी की मदद करने वाला , यौद्धा और तीव्र मदद करने वाला और कुशाग्र बुद्धिमान था जिसको विषय सुनकर ही याद हो जाता था। इस कारण इसका नाम गुरु ने कर्ण रख दिया।
श्राप और वरदान नाम का कभी कुछ नहीं होता, कथाकार अपनी गप्प कथा को आगे बढ़ाने और रोचक बनाने के लिए श्राप और वरदान जोड़ते है , इस विषय में पहले लिखा जा चूका है। इसलिए दुबारा चर्चा करना उचित नहीं।
भ्रांति निवारणः– १ कर्ण कुंती के कान से पैदा नहीं हुआ था ये पूरी तरह गप्प अप्राकृतिक और विज्ञान विरुद्ध हैं। कान और गर्भ में अंतर हैं गर्भकाल ९ माह का होता हैं और विज्ञान गर्भ में शिशु के उत्पन्न होने की पूरी प्रक्रिया को बता चुका है।
२ः- कर्ण सूत पुत्र नहीं था। बल्कि श्वेत मुनि से उत्पन्न कुंती का पुत्र था। कुंती द्वारा गंगा नदी में अपने गुरु करुड़ ऋषि के आदेश के अनुसार बहाए जाने के पश्चात श्वेत मुनि के शिष्यों द्वारा गंगा नदी में नहाते समय बहते हुए आता देखकर पकड़ने पर श्वेत मुनि के आश्रम में शिक्षा दीक्षा हुई थी। अर्थात जिस के ब्रह्मचर्य से पैदा हुआ संयोगवश उसी पिता द्वारा लालन पालन शिक्षा दीक्षा कर्ण की हुई थी। इसलिए श्वेत पुत्र कहा जाता था। इसका ही अपभ्रंश करके सूत पुत्र कहा जाने लगा।
3ः- विधाता की सृष्टि के नियम के विपरीत किसी का जन्म नहीं होता चाहे वह मत्स्योदरी हो या कर्ण हो।
4ः- कर्ण सूर्यपुत्र नहीं था न हीं सूर्य की उपासना के कारण उसके आशीर्वाद के द्वारा पैदा हुआ था। कर्ण सूर्य के सामान तेजस्वी, यशश्वी, पराक्रमी और दानवीर था। इसलिए कर्ण को सूर्य पुत्र कहने का एक ये भी कारण हो सकता हैं। जैसे तेजी से उछलने और भागने वाले हनुमान को पवन पुत्र की संज्ञा दी गयी हैं। यहाँ पर भी अतिश्योक्ति अलंकार की भाषा का प्रयोग हुआ हैं।

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