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वैदिक संपत्ति

वैदिक संपत्ति 312 [चतुर्थ खण्ड] जीविका , उद्योग और ज्ञानविज्ञान

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(यह लेख माला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं ।)

प्रस्तुति: – देवेंद्र सिंह आर्य
( चेयरमैन ‘उगता भारत’ )

गताक से आगे …*

उस न्यायकारी, दयामय और कारणों के भी कारण परम पिता परमात्मा का वर्णन वेदों में इस प्रकार किया गया है –

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहूरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।। (ऋ० १।१६४१४६)
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तवु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजातिः ॥१ ॥
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि ।
नैनमूध्र्व न तिर्यञ्चं न मध्ये परि जग्रभत् ।। २ ।।
न तस्य प्रतिमाऽअस्तिव नाम महद्यशः ।
हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मः हिसोदित्येवा यस्मान्न जाताऽइत्येषः ॥ ३ ॥
एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वी ह जातः स उऽगर्भेऽनन्तः ।
सऽएव जात स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ।॥ ४ ॥
यस्माज्जातं न पुरा किन्चनैव य आबभूव भुवनानि विश्वा ।
प्रजापतिः प्रजया स१७ रराणस्त्रीणि ज्योती ११ वि सचते स षोडशी ।। ५ ।। (यजु० ३२११-५)
स मो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेव भुवनानि विश्वा ।
यत्र देवाऽअमृतमानशामा स्तृतीये बामान्नध्यैश्यन्त ।। (यजु० ३२।१०)
स पर्यगाच्छुक नकायमत्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यवधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।’ (यजु० ४०१८)
अर्थात् इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान् अग्नि, यम और मातरिश्वा आदि नाम उस एक ही परमात्मा के हैं। वह अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म, आप और प्रजापति आदि नामों से कहा जाता है। सब निमेषादि कालविभाग उसी के उत्पन्न किये हुए हैं। वह ऊपर नीचे, आड़े तिरछे और बीच से पकड़ा नहीं जा सकता। उसकी कोई नाप नहीं है, क्योंकि उसका नाम बड़े यशवाला है, इसीलिए अनेक वेदमन्त्र उसकी स्तुति करते हैं। बही देव सब दिशा विदिशाओं में व्याप्त है और वही सब के अन्दर पहिले से ही बैठा है। यह सब ओर से सब प्राणियों में ठहरा हुआ है और वही पहले संसार का रूप धारण करके पैदा होता है और फिर सबको पैदा करता है। जिसके पहले कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआा और जो सब भुवनों में अच्छी तरह स्थिर है, वहीं सोलह कलावाला पूर्ण प्रजापति समस्त प्रजा में रमण करता हुआा तीन प्रकार की ज्योतियों को- अग्नि, विद्युत् और सूर्य को – उत्पन्न करता है। वह काया- रहित, छिद्ररहित, नाड़ीरहित, पापरहित है। वह शक्तिस्वरूप, शुद्ध, कवि, मनीषी, दुष्टों से दूर, स्वयंसिद्ध है और शाश्वत प्रजा के लिए सब ओर से व्याप्त होकर यथायोग्य अर्थों को उत्पन्न करता है। वही हमारा बन्धु, पिता, विधाता और सब भुवनों का जाननेवाला है, इसलिए हम प्रार्थना करते हैं कि वह हमको तृतीय लोक में जहाँ देवता मोक्ष प्राप्त करते हैं, वहाँ पहुंचावे । इन मन्त्रों में परमात्मा के स्वरूप और उसके कार्य का वर्णन करके मोक्षसुख की याचना की गई है। वेदों में इस प्रकार के मन्त्रों का बहुत बड़ा संग्रह है। सब में उसके स्वरूप का वर्णन और अपने कल्याण की याचना का वर्णन है। इन वर्णनों के द्वारा संसार के कारणों और कारणों के भी कारण परमात्मा की महत्ता का ज्ञान होता है और जिज्ञासु के हृदय में मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न होती है। यह वैदिक उपनिषद् का पूर्वार्द्ध है। इसके आगे उस कारणस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करके अनन्त ब्रह्मानन्द प्राप्त करने की विधि को भी वेदों ने बतलाया है। यजुर्वेद में लिखा है कि-

वेवाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात ।
तमेवः विवित्त्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।। (यजु० ३१।१८)

अर्थात् उस आदित्यस्वरूप प्रकाशमान परमात्मा को मैं जानता हूँ, अतः उसी के सह‌कार से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त होती है, इसके सिवा और कोई दूसरा उपाय नहीं।

यो-विद्यात् सूत्रं विततं परिमन्तोताः प्रजा इमाः ।
सूत्रं सूत्रस्य यो विद्यात् स विद्या ब्राह्मणं महत्। (अथर्व० १०/८/३७)

अर्थात् जिस सूत्र में ये समस्त प्राणी पिरोये हुए हैं, जो मनुष्य उस फैले हुए सूत्र को जानता है और जो उस सूत्र के भी सूत्र को जानता है, वही उस महान् ब्रह्म की जान पाता है। इन मन्त्ररें में बतलाया गया है कि परमात्मा
के साक्षात्कार से ही मोक्ष होता है।
क्रमश:

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