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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति – 310 (चतुर्थ खंड) जीविका , उद्योग और ज्ञानविज्ञान

(यह लेखमाला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं )

प्रस्तुति – देवेंद्र सिंह आर्य
( चेयरमैन -‘उगता भारत ‘ )

इस सृष्टि को देखकर किसी भी विचारवान् मनुष्य के हृदय में जो सबसे पहले स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है, उसको वेदों ने इस प्रकार कहा है-

किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस पतो द्यावापृथिवि निष्टतक्षुः ।
मनोषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ।। (ऋ० १००८१।४)
अर्थात् कौनसा वह वन है और कौनसा वह वृक्ष है, जिसकी लकड़ी से यह द्युलोक और पृथिवीलोक बनाया गया है ? हे बुद्धिमान लोगो ! अपने मन से पूछो कि इन भुवनों का धारण करनेवाला और उनका अधिष्ठाता कौन है ? इसका उत्तर देते हुए वेद उपदेश करते हैं कि –
नासदासीन्नो सदासीत्तदानों नासीइजो तो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मग्नम्भः किमासीङ्गहनं गभीरम् ॥१॥
न मृत्युरासीदमृतं न तहि न राज्या अहू आसीत्रकेतः ।
आनीववातं स्यषया तदेकं तस्माद्धाम्यन्त परः कि चनास ॥ २ ॥
तम आसीत्तमसा गूळहमप्रेऽनकेतं सलिल सर्वमा इदम् ।
तुच्छचे नाभविहितं यदासोलपसस्तन्महिना जावर्तकम् ॥ १ ॥ (२० १०/१२६/१-३)
अर्थात् यह सृष्टि पहिले न तो सत् अर्थात् बनी हुई दशा में थी, न असत् अर्थात् अभाव अथवा शून्य दशा में थी, न रज अर्थात् बनने की आरम्भिक दशा में थी और न उस समय यह ऊपर का नीला आकाश ही था। उस समय न मृत्यु थी, न जन्म था और न रात्रि थी, न दिन था। उस समय तम अर्थात् आरम्भ का पूर्वरूप केवल अन्यकार था और एक हलचलरहित स्वधा (मैटर, माद्दा, माया, प्रकृति) कुहर की भाँति सर्वत्र फैली हुई थी। इन मन्त्रों में इस सृष्टि के पूर्वरूप का वर्णन करके अब वेद यह बतलाते हैं कि यह सुष्टि तीन अनादि स्वयम्भू पदार्थों के मेल से बनती है। ऋग्वेद में लिखा है कि-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परि वस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्ननत्रन्यो अभि चाकशीति ॥ (० १।१६४/२०)

अर्थात् दो पक्षी एक में मिले हुए मित्रभाव से अपने ही समान एक वृक्ष पर बैठे हैं। इनमें से एक मित्र उस वृक्ष के फलों को खाता है और सुखदुःखों को भोगता है और दूसरा मित्र फलों को न खाता हुधा केवल देखता है। इस मन्त्र में परमेश्वर, जीव और प्रकृति का वर्णन है। यह तीनों पदार्थ इस संसार का कारण हैं। इन्हीं के द्वारा इस संसार की उत्पत्ति विनाश होता है। इन तीनों में से परमेश्वर के विषय में वेद उपदेश करते हैं कि-

परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रदिशो दिशश्व । उपस्वाय प्रथमजामृतस्यात्मनाऽऽत्मानमभि स विवेश ।। (यजु० ३२।११)

अर्थात् परमेश्वर सब भूतों, लोकों और सब दिशाविदिशाओं को सब ओर से व्याप्त करके सत्य और अनादि स्वयंभू आत्मा में भी अच्छी तरह प्रवेश किये हुए हैं। इस मन्त्र में परमेश्वर का सर्वत्र व्यापकत्व बतलाया गया है। इस व्यापक परमेश्वर के अतिरिक्त दूसरे व्याप्य चेतन जीवों का वर्णन इस प्रकार है-
सत्येनोर्थ्यास्तपति ब्राह्मणार्वाङ वि पश्यति ।
प्राणेन तिर्यङ् प्राणति यस्मिन् ज्येष्ठमधि श्रितम् ।। १६ ।।
यो वे ते विद्यादरणी याभ्यां निर्मध्यते बसु ।
स विद्वान् ज्येष्ठं मन्येत स विद्याद् ब्राह्मण महत् ।। २० ।। (अयर्व० १००८/१६-२०) सनातनमेनमातुख्ताद्य स्यात् पुनर्णव: । अहोरात्रे प्र जायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः ॥ २३ ॥
शतं सहस्रमयुतं न्यर्बुदमसंख्येयं स्वमस्मिन निविष्टम् ।
तदस्य ध्नन्तयभिपश्यत एव तस्माद् देवो रोचत एष एतत् ।। २४ ।।
बालादेकमणीयस्कमुतैकं नेव दृश्यते । ततः परिव्वजीयती देवता सा मम प्रिया ।। २५ ।।
इयं कल्याण्य१जरा मर्त्यस्यामृता गृहे । यस्मै कृता शये स यश्रवकार जजार सः ।। २६ ।।
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमा री ।

त्वं जीर्णो दण्डेन वञचसि त्वं जातो भवसि विश्रवतोमुख॥ २७ ।। (अथर्व० १०/८/२३-२७) अर्थात् यह जीव जिसके भीतर ज्येष्ठ ब्रह्म ठहरा हुआा है, वह सत्य से ऊँचा होकर प्रतापी होता है और असत्य से नीचा होकर प्राणों के साथ तिर्यक योनियों में जीवन धारण करता है। जो इन दोनों (ज्येष्ठ ब्रह्म और प्राण धारण करनेवाले जीव) को यज्ञ की दोनों अरणियों की तरह जान लेता है, वह ज्येष्ठ ब्रह्म को भी जान लेता है और दूसरे सनातन जीव को भी जान लेता है। यह सनातन जीव रात दिन की भांति भिन्न-भिन्न रूपों को धारण करते रहते हैं और नित नये ही होते रहते हैं । ये सनातन जीव सौ, हजार, दश हजार, दश करोड़ और असंखयों की तादाद में उस व्यापक परमात्मा में ही भरे हुए हैं। जब ये उस सर्वज्ञ परमात्मा को प्राप्त होते हैं, तभी सबको रुचते हैं। इन दोनों को व्याप्य व्यापक ईश्वर और जीव में एक तो बाल की अनी से भी छोटा है और दूसरा तो बिलकुल ही अदृश्य है। यह जीव उसी अदृश्य प्रिय देवता में चिपकनेवाला अर्थात् व्याप्य है। यह उस कल्याण- कारिणी बजरा और अमृता प्रकृति माता के गर्भरूपी घर में सोता है। हे जीव! तू कभी स्त्री, कभी पुरुष, कभी कुमार, कभी कुमारी होता है और कभी वृद्ध होकर और लाठी लेकर चलता है, इस लिए तू जन्म लेनेवाला सर्वतो सुख है। इन मन्त्रों में वेदों ने जीव को सनातन, असंख्य व्याप्य, जन्म धारण करनेवाला और परमेश्वर की प्राप्ति से मोक्ष प्राप्त करनेवाला बतलाया है।
क्रमशः

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