वैदिक सम्पत्ति -309* *(चतुर्थ खण्ड) जीविका, उद्योग और ज्ञानविज्ञान*
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(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’)
गतांक से आगे…
इसके आगे फिर वेद उपदेश देते हैं कि-
अग्निः प्रियेषु धामसु कामो भूतस्य भव्यस्य । सम्राडेको विराजति ।। (यजु० १२।११७)
अर्थात् हे अग्नि ! तू भूत, भविष्य और प्रियों तथा प्रियस्थानों में विना किसी परिवर्तन के एक समान अकेला एक ही राजराजेश्वर विराजमान है। इस मंत्र के द्वारा अग्नि की उपमा देकर वेद ने बतला दिया कि समानता की स्थिरता तो तभी हो सकती है, जब अग्नि के समान सारी पृथिवी का एक ही सम्राट् हो । इसके आगे वेदों में राजा के लिए आपद्धर्म का उपदेश इस प्रकार दिया गया है कि –
*ऋतस्य पन्थामनु तिस्त्र आगुस्त्रयो धर्मा अनु रेत आगुः ।
*प्रजामेका जिन्वत्यूर्जमेका रक्षति देवयूनाम् ।। (अथर्व० ८।६।१३)**
अर्थात् ऋत की तीन विधियाँ चलती आई हैं और तीनों मार्ग अनुधर्मा हैं। एक विधि प्रजा (समाज) की, एक राष्ट्र की और एक धर्म की रक्षा करती है। यहाँ ऋत अर्थात् आपद्धर्म की तीनों शाखाओं का वर्णन किया गया है। आपद्धर्म की आवश्यकता धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में आया ही करती है, इसलिए आवश्यकता पड़ने पर सत्य के जोड़े ऋत से भी काम लेना चाहिए। आगे वेद उपदेश करते हैं कि-
इन्द्र प्र णः पुरएतेव पश्य प्र नो नय प्रतरं वस्यो अच्छ ।
भवा सुपारो अतिपारयो नो भवा सुनीतिरुत बामनीतिः ।। (ऋग्वेद ६।४७।७)
अर्थात् हे राजा हमको नेताओं की भाँति देखिये और शत्रुओं के बल को उल्लंघन करने वाले हमारे धर्मबल
की अच्छी प्रकार परीक्षा कीजिये कि जिससे हमारा सब कुछ अच्छी प्रकार पार लगे अथवा बिलकुल ही पार लगने लायक हो जाय, इसलिए हमारे पास सुनीति और वामनीति दोनों होना चाहिये। इस मंत्र में स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि यदि सुपार हो अर्थात् सरल हो तो सुनीति से -घर्म से- चले जावे, किन्तु यदि अतिपार हो अर्थात् दुर्गम हो, तो वामनीति से – आपद्धर्म से-पार हो जावे। इस प्रकार से वेद ने इस राज्यप्रकरण के द्वारा समाज को भीतरी और बाहरी आफतों से रक्षा करने का उपदेश दिया है। इस उपदेश से मनुष्य अपनी और अपने समाज की रक्षा कर सकता है, परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि मृत्यु से कोई रक्षा नहीं कर सकता। सबको एक न एक दिन अवश्य मरना पड़ेगा, इसलिए मरने के बाद रहस्य का जब तक ठीक ठीक ज्ञान न हो जाय और जब तक परलोक की जटिल ग्रन्थि सुलझ न जाय तब तक लोक के समस्त सुख और प्रबन्ध निकम्मे हैं। इसलिए अब हम दिखलाना चाहते हैं कि वेद में परलोकविषय की क्या शिक्षा है ?
*वैदिक उपनिषद्*
सब प्रकार से उन्नत समाज का लक्षण यही है कि वह सदाचारी हो, विद्वान् हो, और हर प्रकार से अपनी खुद रक्षा कर लेता हो। ऐसे समाज के लिए लोक की कोई अभिलाषा शेष नहीं रह जाती और ऐसी उन्नत दशा में पहुँचकर उस समाज के उन्नतमस्तिष्क मनुष्यों में परलोक विचार की चरचा उत्पन्न हो जाती है। वे सोचने लगते हैं कि, मृत्यु से बचने का क्या उपाय है और मरने के बाद क्या होता है, तथा इस संसार की उत्पत्ति का कारण क्या है ? उनके हृदयों में यह प्रश्न बड़े वेग से प्रभाव उत्पन्न करने लगता है कि, जड़ और चेतन का भेद क्या है और इनके मूल कारणों के प्रत्यक्ष करने की युक्ति क्या है? विद्वानों ने इसी प्रकार की जिज्ञासाओं के ऊहापोह का नाम दर्शन रक्खा है और इस ऊहापोह के अन्तिम उत्तरों को ही उपनिषद् कहते हैं।
इस औपनिषद् ज्ञान के दो विभाग हैं। सृष्टि की उत्पत्ति और नाश के कारणों का धनुसन्धान करना पहिला विभान है और उन कारणों के प्रत्यक्ष कर लेनेवाले साधनों का उपयोग करना दूसरा विभाग है। यहाँ हम इन दोनों विभागों से सम्बन्ध रखनेवाले वेदमन्त्रों को एकत्रित करके दिखलाते हैं कि वेदों ने इन विषयों का कितना विशाल ज्ञान दिया है।
धर्मा । इति प्रथर्व संहितायाम् ।।
क्रमशः