डॉ डी के गर्ग

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भाग -2
सत्य को समझने के बाद अब नारायण शब्द का भावार्थ समझते हैं।
नारायण : आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः

ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः

—यह मनुस्मृति [अ॰ १।१०] का श्लोक है।

जल, प्राण और जीवों का नाम नार है। वे अयन अर्थात् निवासस्थान हैं जिसका, इसलिए सब जीवों में व्यापक परमात्मा का नाम ‘नारायण’ है।
नारायण वह ईश्वर जिसके ३ मुख्य कार्य हैं। सृष्टि बनाना,चलाना और प्रलय आदि द्वारा समाप्त कर देना।जिनके कारण ईश्वर को ब्रह्मा, विष्णु, महेश यानि नारायण भी कहते हैं।
3.व्रत:- व्रत का मतलब संकल्प लेना। संकल्प यानि धर्म के १० नियमों के पालन करने का व्रत, ५ प्रकार के यज्ञ करने का व्रत लेना।
व्रत का सही भावार्थ भूखे , प्यासे रहना बिलकुल भी नहीं है। व्रत का एक अन्य अर्थ संकल्प से भी है। व्रत का अर्थ यजुर्वेद में बहुत स्पष्ट रुप में बताया गया है। देखिए―
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि।। (यजु० 1/5)
भावार्थ―हे ज्ञानस्वरुप प्रभो! आप व्रतों के पालक और रक्षक हैं। मैं भी व्रत का अनुष्ठान करुँगा। मुझे ऐसी शक्ति और सामथ्र्य प्रदान कीजिए कि मैं अपने व्रत का पालन कर सकूँ। मेरा व्रत यह है कि मैं असत्य-भाषण को छोड़कर सत्य को जीवन में धारण करूँगा।
इस मन्त्र के अनुसार व्रत का अर्थ हुआ किसी एक दुर्गुण, बुराई को छोड़कर किसी उत्तम गुण को जीवन में धारण करना।
इस अलोक में विभिन्न प्रकार के व्रत का वैदिक साहित्य में उल्लेख है जैसे नवरात्र व्रत:। यहाँ नवरात्र का अर्थ है कि मानवी कायारूपी अयोध्या में नौ द्वार अर्थात् नौ इन्द्रियां है -एक मुख, दो नेत्र, दो कान, नासिका के दोनों छिद्र और दो गुप्त गुप्तेंद्रिय उनका शुद्धिकरण। प्राचीन ग्रन्थों में न तो ‘सन्तोषी‘ के व्रत का वर्णन है और न एकादशी आदि व्रतों का विधान है।
एकादशी-व्रत का वैदिक भावार्थ है की पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय तथा एक मन―ये ग्यारह हैं। इन सबको अपने वश में रखना, क्रोध ना करना ,उपवास करना ,शरीर की इंद्रियों को स्वस्थ रखने वाले व्यायाम करना ,नासिका से ‘‘ओ३म‘‘ का जप करना, वाणी से मधुर बोलना, जिह्वा से शरीर को बल और शक्ति देने वाले पदार्थों का ही सेवन करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना―यह है सच्चा एकादशी-व्रत। इस व्रत के करने से आपके जीवन का कल्याण हो जाएगा।
इसी प्रकार सत्य नारायण व्रत का अर्थ है कि मनुष्य अपने ह्रदय में विद्यमान सत्यस्वरुप परमात्मा के गुणों को अपने जीवन में धारण करे। जीवन में सत्यवादी बने। मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन करे।

सारांश : सत्यनारायणव्रत कथा का मूल भावार्थ है कि मनुष्य अपने ह्रदय में विद्यमान सत्यस्वरुप नारायण के गुणों को अपने जीवन में धारण करने के लिए स्वाध्याय करे , ज्ञान अर्जित करे और विद्वानों के साथ संगति करते हुए उन पर चर्चा यानी कथा करे ,जीवन में सत्यवादी बने। मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन करे और इस प्रकार के नियम बनायें जिससे हमारा जीवन उच्च तथा महान हो जैसे कि जब तक हम इस संसार में जीवित रहेंगे हम कदापि मिथ्या उच्चारण नहीं करेंगे ,कोई गलत या अनुचित विचार भी मन में नही लायेंगे और हमारे कर्म भी नारायण को साक्षी मानते हुए सर्वदा सत्य पर आधारित होंगे। यही वास्तव में सत्यनारायण का व्रत कहलाता है।
यही कल्याण का मार्ग है और जो इस मार्ग को चुन लेता है उसकी लोक परलोक में दरिद्रता समाप्त हो जाती हैं।
परन्तु वर्तमान में प्रचलित कथा क्या वास्तविक उद्देश्य को पूरा करती है ? ये बहुत बड़ा प्रश्न है और वास्तविक सत्य नारायण कथा करनी अत्यंत जरुरी है।

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