हमने कभी उनका चित्र न देखा

सच्चा साधु तो वही है जो नाम, चाम व दाम से ऊपर उठ जावे। आर्य समाज के साधुओं के सामने आरंभिक काल में यही आदर्श था। हमारे संन्यासी ऐसा साधु बनकर दिखाने का यत्न करते रहे। श्री स्वामी स्वतंत्रतानन्द जी महाराज इस दृष्टि से आर्य सन्यासियों के लिए ही एक आदर्श नहीं थे ,अपितु संन्यासी मात्र के लिए एक सच्चे उच्च साधु का मूर्तरूप थे ,आदर्श थे।

उनके जीवन काल में हमने मठ में कभी किसी भी कक्ष में, यज्ञशाला में उनका चित्र नहीं देखा था।

फिर स्वामी सर्वानंद जी का युग भी देखा। उनका भी मठ में कभी चित्र कहीं पर नहीं देखा गया। इस पर हम जितना अभियान करें थोड़ा है। ऐसे संन्यासी तो अब खोज करने से भी ना मिले। अब भावनाएं गिर रही है।भवन तो भले ही ऊंचे उठ रहे हैं।

अब साधुओं को हमने पोज बना बनाकर चित्र खिंचवाते देखा है। नाम ऐसा चुनेंगे की संसार इन्हें जन्मजात त्यागी विरक्त ऋषि मान ले। कोई आर्य तपस्वी नाम रखता है तो कोई बिना किसी विशेषण के अपना नाम सुनना व बताना नहीं चाहता। नाम के साथ मुनि, महात्मा, योगी, साधक कुछ तो ऐसे शब्द जुड़े हो। इसी का परिणाम है कि प्रत्येक पुरोहित साधारण योग्यता वाला आचार्य, दर्शनाचार्य और योगाचार्य विशेषण के बिना बात ही नहीं करना चाहता और फिर अब सब भीड़ के साथ और भीड़ में संन्यास लेना चाहते हैं। यह कल्याण मार्ग नहीं है। आदर्शों से दूर होकर व्यक्ति व समाज दोनों निस्तेज तथा निर्बल और चेतना शून्य हो रहे हैं। आओ! इस स्थिति पर विचारे ।

आर्य समाज के महान इतिहासकार साहित्यकार लेखक विश्व में सर्वाधिक महापुरुषों की जीवनी लिखने वाले जीवनीकार राजेंद्र ‘ जिज्ञासु’ जी की पुस्तक आर्य समाज का इतिहास चौथा अध्याय पृष्ठ 105 प्रकाशित गोविंदराम हासानन्द से साभार।

प्रस्तुतकर्ता – आर्य सागर 

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