सरदार पटेल देश के लोगों को आते हैं आज भी याद

आज फिर सरदार पटेल की याद आ रही है
[पुण्यतिथि पर शत शत नमन]
लेखक :- पंडित प्रकाशवीर शास्त्री
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
सरदार पटेल के काम करने और निर्णय लेने के ढंग से लोग अच्छी तरह परिचित हो गए थे । कभी कोई बात उनके मुख से निकल गई तो समझिये वह पत्थर की लकीर हो गई । पाकिस्तान भी सरदार के इस स्वभाव से परिचित हो गया था । पूर्वी बंगाल से प्रारम्भ में जब लाखों हिन्दू धक्का देकर बाहर निकाले जा रहे थे , तब सरदार के धैर्य का बाँध एक दिन टूट गया । भले ही उनका एक अलग देश बन गया था । कल तक तो वह अपने ही भाई थे । विभाजन के समय गांधी जी से लेकर नीचे तक के सभी नेताओं ने उन्हें यह आश्वासन दिया था — देश भले ही दो बन गये हैं पर एक दूसरे के सुख – दुख में हम पहले की तरह ही भागीदार रहेंगे । कभी तुम पर कोई मुसीबत का पहाड़ टूटेगा तो हम मूक दर्शक बने नहीं देखते रहेंगे । इसीलिए गांधी जी ने एक बार पूर्वी बंगाल में अल्पसंख्यकों के नर – संहार का समाचार सुन कर सरकार को सेना भेज कर उनकी रक्षा करने का परामर्श दिया था । पर सरदार ने सोचा पहले चेतावनी दे कर देख लिया जाये । उससे यदि काम न चला तो फिर अगला कदम उठाया ही जायेगा । पाकिस्तान को उन्होंने कहा यदि तुम्हें इन अल्पसंख्यकों का वहाँ रहना नहीं सुहाता तो उन्हें थोड़ा – थोड़ा कर के भेजने की बजाय अच्छा यह हो एक साथ ही सब को भेज दो । उसके बदले में भारत से उतने ही अल्पसंख्यक तुम ले लो । यदि यह सुझाव पसन्द न हो तो फिर पाकिस्तान पूर्वी बंगाल की उतनी भूमि हमें दे दे जिससे वहां इन्हें बसाया जा सके । पर यदि यह दोनों सुझाव भी तुम्हारे गले से नीचे नहीं उतरते तो फिर भारत अगला निर्णय लेने में स्वतंत्र रहेगा । उनकी इस चेतावनी से पाकिस्तान वाले समझ गये अब सरदार कुछ ठोस कदम उठाने की सोच रहे हैं । झट एक समझौता दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच हो गया जो नेहरू – लियाकत पैक्ट के नाम से प्रसिद्ध है ।
किसी भी नेता के नेतृत्व की कसौटी समय पर सही निर्णय लेने में ही होती है । जूनागढ़ , हैदराबाद और काश्मीर ये तीनों रियासतें ऐसी थीं जो भारत में विलय के लिए चुनौती बन गई थीं । जनता की राय से जूनागढ़ रियासत के भविष्य का फैसला होना था । नवाब जूनागढ़ स्वयं रियासत के भारत में विलय के पक्ष में नहीं थे । इसलिये जनमत संग्रह की बात बीच में आई । जनमत संग्रह होते ही सरदार ने कुछ ही दिनों में उसका परिणाम नवाब के सामने रख दिया । इस तरह जूनागढ़ सदा के लिए भारत का अभिन्न भाग बन गया । हैदराबाद का निजाम भी रजाकारों के चक्कर में आकर सरदार को हैदराबाद में उँगली नहीं रखने दे रहा था । सरदार ने सोचा यदि देर तक इसी हालत में हैदराबाद को रहने दिया गया तो यह कहीं भारत के लिए नासूर न बन जाय ? पर कच्चे घाव का आपरेशन करना भी वह नहीं चाहते थे । एक दिन जब फोड़ा पक गया तो सरदार ने एक नश्तर में ही सारा मवाद निकाल कर बाहर कर दिया । आसफजाही झंडा जो कभी लाल किले पर फहराने के स्वप्न देख रहा था वह सदा के लिए दफना दिया गया और अशोक चक्रांकित तिरंगा ध्वज हैदराबाद की किंग कोठी पर शान से लहराने लगा । वह ही हैदराबाद आज आन्ध्रप्रदेश की राजधानी है । काश्मीर रियासत का हल शेख अब्दुल्ला के चक्कर में आकर न जाने क्यों अन्य रियासतों की तरह सरदार को नहीं सौंपा गया । केवल 1947 में पाकिस्तानी हमलावरों को निकालने का काम ही उन्हें दिया गया । पर उसमें भी जब अन्तिम दिनों में काश्मीर से खूंखार पाकिस्तानी दरिंदे बाहर निकाले जा रहे थे तब सरदार से बिना पूछे अचानक बीच ही में लड़ाई बन्द कर दी गई । जो हिस्सा काश्मीर का उस समय बच गया वह आज भी पाकिस्तान के अधिकार में है । शेष काश्मीर का भविष्य भी अभी तक अधर में ही लटका हुआ है । अपने ही संविधान की धारायें उसमें बाधक बनी हुई हैं । अरबों रुपया काश्मीर पर व्यय हो गया । हजारों मां के लाल मौत के मुंह में सो गये । फिर भी काश्मीर अभी त्रिशंकु की स्थिति में ही है । डाकखाने के भवन बनाने और रेलवे लाइन बिछाने के लिए भी भारत के राष्ट्रपति को निन्यानवे साल के पट्टे पर जमीन लेनी पड़ती है । सरदार न होते तो अभी पता नहीं कितनी और देशी रियासतें भारत के गले में हड्डी बन कर अटकी रहतीं । यह प्रतिभा और साहस , भगवान ने सरदार को ही दिया था – जो खून की एक बूंद गिराये बिना उन्होंने साढ़े तीन सौ राजा – महाराजाओं के मुकुट उतरवा कर भारत माता के चरणों में रखवा दिये ।
कभी – कभी एक यह भी प्रश्न लोग पूछते हैं – जब सरदार पटेल भारतीय एकता के इतने कट्टर समर्थक थे , तो उन्होंने गांधी जी के साथ मिल कर देश का विभाजन रोकने में सहयोग क्यों नहीं दिया ? आज पाकिस्तान जो सदा के लिए भारत की छाती का कांटा बन गया है , उसके निर्माण में सरदार ने भी अपनी सहमति क्यों प्रदान कर दी ? पर जो 1947 से पहले की परिस्थितियों से परिचित हैं वह शायद यह प्रश्न उतनी आसानी से न करें । अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग की कमर पर हाथ रख कर देश में जो घोर साम्प्रदायिक वातावरण उन दिनों बना रखा था और स्वयं खुल कर उसकी कमर पर आ गये थे , उससे निबटने का और कोई दूसरा ऐसा प्रकार ही नहीं था कि पहले हर कीमत पर अंग्रेजों को भारत से बाहर किया जाय । उसके जाने के बाद फिर वापस में मिल बैठ कर देश की एकता के लिए और साम्प्रदायिक सद्भाव बनाये रखने के लिए वातावरण तैयार किया जाए ।
राजेन्द्र बाबू ने अपनी ‘ खंडित भारत ‘ नामक पुस्तक में विभाजन से कई वर्ष पूर्व यह लिखा था – पाकिस्तान यदि बन भी गया तो वह देर तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं रह सकेगा । पर सरदार पटेल उसके लिए बहुत लम्बी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते थे । बंगला देश में जो मुक्ति संघर्ष आज चल रहा है सरदार की निगाह में यह भविष्य उन्हीं दिनों झांक रहा था । वह यह अच्छी तरह जानते थे – पूर्वी बंगाल कभी पाकिस्तान के साथ नहीं रह सकेगा । सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है । पश्चिमी पाकिस्तान में भी पठान कभी पंजाबी मुसलमानों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करेंगे । इसी से मिलती जुलती स्थिति कुछ सिन्ध में उन लोगों की भी थी जिन्होंने आज जीये सिंध आन्दोलन छेड़ रखा है । इस तरह अंग्रेजों के हटते ही जब फिर देशवासी वास्तविकता को पहचानेंगे तो भारत को एक होने में अधिक समय नहीं लगेगा । सौभाग्य से पाकिस्तान बनते ही उन क्षेत्रों में वह हवा उठी भी । पर भारत की ओर से कोई समुचित सहयोग न मिलने से बीच में ही दब कर रह गई । एक बार तो सुनते हैं स्वयं नेपाल के पहले शासक महाराज त्रिभुवन ने स्वयं अपनी ओर से नेपाल के भारत में विलय का प्रस्ताव रखा था । उनका विचार था जब भारत और नेपाल एक ही सांस्कृतिक परिवार के सदस्य हैं तब क्यों न नेपाल को स्वाधीन भारत का अंग बना दिया जाय । परन्तु हमारे ही कुछ नेताओं ने यह कह कर उस प्रस्ताव की गम्भीरता को न पहचाना – कहीं दुनिया इसे नेपाल को भारत द्वारा हड़पने की संज्ञा न दे ? सरदार उस समय तक दुनिया से जा चुके थे । इसलिए भी नेपाल का वह प्रस्ताव कुछ बड़ों के बीच में ही चर्चा का विषय बन कर रह गया ।
सरदार पटेल देश भक्तों को ऊँचे से ऊँचा सम्मान देने के जहां हिमायती थे वहां देशद्रोहियों के लिए उनके मस्तिष्क में कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी । भारत विभाजन के पूर्व गढ़मुक्तेश्वर के मेले में हुए साम्प्रदायिक उपद्रव को दबाने में तत्कालीन मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने जिस तत्परता से काम लिया उससे वह सरदार की निगाह में चढ़ गया । हैदराबाद के भारत में विलय के पश्चात उसे ही राज्य का इंस्पेक्टर जनरल पुलिस बना कर सरदार ने भेजा । परन्तु कुछ ही समय बाद जब उसके अपने निवास स्थान के बराबर वाली कोठी में ही रहने वाले रियासत के भूतपूर्व मंत्री श्री लायक अली छिप कर पाकिस्तान चले गये और उक्त इंस्पेक्टर जनरल पुलिस सोते रहे तो सरदार की निगाह से उनके गिरने में भी एक मिनट न लगी । ऐसी ही स्थिति राज्य के एक वरिष्ठ राजनीतिक नेता की भी हुई । हैदराबाद में हुए राजनीतिक संघर्ष में वह महात्मा पूरी तरह चमके । सरदार ने उन पर विश्वास कर के राज्य का प्रमुख राजनीतिक दायित्व ही पूरी तरह उन्हें सौंप दिया । राज्य के तत्कालीन प्रशासक श्री के . एम . मुंशी भी उनका पूरा सम्मान करते थे । परन्तु बाद में कुछ ऐसी घटना घटी जो सरदार को उनकी ओर से अपना मुंह मोड़ने में भी क्षण भर की देर न लगी । सार्वजनिक जीवन में व्यवहार शुद्धि का सरदार बहुत ध्यान रखते थे ।
हिन्दू हो या मुसलमान कोई भी जो भारत में रह कर दूसरे देशों के एजेन्ट का काम करते थे , उसे सरदार कभी सहन नहीं करते थे । हैदराबाद विजय के पश्चात फतह मैदान में हुई सार्वजनिक सभा में सरदार पटेल ने खुले शब्दों में कहा – यदि अब भी कुछ व्यक्ति यहां ऐसे रह गये हों जो पाकिस्तान के समर्थक हों तो वह अभी मौका है आज ही भारत छोड़ दें । मैं उनके जाने के लिए पूरी व्यवस्था कर दूंगा । रास्ते में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी । यह ही बात उन साम्यवादियों के सम्बन्ध में भी थी जो भारत में रह कर चीन और रूस के स्वप्न लेते रहते थे । जब तक सरदार रहे तब तक वह लोग आसानी से सिर न उठा सके । क्योंकि वह जानते थे – इस व्यक्ति के आगे आसानी से हमारी दाल गलने वाली नहीं है । उनके जाने के बाद फिर धीरे – धीरे वह उभरते चले गये । बंगाल में उनका असली चेहरा देखा जा सकता है ।
सरदार पटेल स्वयं जीवन में जितनी सरलता और सादगी की मूर्ति थे उतना ही देश को भी वह उस ओर ले जाना चाहते थे । उनके चिन्तन के ढंग और कार्य करने की पद्धति से प्रदर्शन की मात्रा बहुत कम थी । इसीलिए सरदार को जीवन में उनके अपने साथियों ने भी पूरी तरह नहीं पहचाना । पहले से भी महापुरुषों को उनके जाने के बाद ही कहीं अधिक अच्छा समझा जाता रहा है । अब से लगभग डेढ़ वर्ष पहले चक्रवर्ती श्री राजगोपालाचार्य ने मद्रास की एक सार्वजनिक सभा में इसी तरह के एक रहस्य का उद्घाटन किया । गांधी जी ने उनसे पूछा – स्वतंत्र भारत का पहला प्रधान मंत्री कौन ठीक रहेगा ? राजा जी ने कहा श्री नेहरू के पक्ष में ही उन्होंने भी अपनी राय गांधी जी को दी । परन्तु उस सभा में राजा जी का कहना था प्रधान मंत्री कहीं सरदार होते तो देश के सोचने , काम करने और निर्णय लेने के ढंग ही कुछ भिन्न होते । सरदार के सम्बंध में ऐसी ही अपनों भूलो को कुछ उन लोगों ने भी स्वीकार किया है जिन्होंने कई बार सरदार पर उनके जीवन में पत्थर बरसाये थे । अब वह भी पछताते हैं और कहते हैं हम उस महान व्यक्ति को पहले समझ नहीं पाये ।
स्वतन्त्रता के बाद कुछ लोगों ने सरदार के काम करने के ढंग से अप्रसन्न होकर गांधी जी के मन में भी यह बात बैठा दी कि सरदार उनको पसन्द नहीं करते । विशेष कर तब जब गांधी जी ने पाकिस्तान को पचास करोड़ रुपया देने के लिए दिल्ली में आमरण अनशन किया था । और भी कई इसी तरह की बातें थीं जिन्हें ले कर सरदार को गांधी जी से बहुत दूर करने का प्रयत्न किया गया । परन्तु सरदार के मन में गांधी जी के प्रति पूर्ण सम्मान और श्रद्धा थी । यह बात दूसरी थी – उसको वह कभी अपने स्वभाव के अनुरूप प्रदर्शित नहीं करते थे । गांधी जी के बलिदान के बाद भी कई ऐसे ही लोगों ने सरदार पर उसका दोष थोपना चाहा । उनका कहना था – सरदार ने यदि गांधी जी की पूरी सुरक्षा की व्यवस्था की होती तो उन्हें इतनी जल्दी न जाना पड़ता । इसमें जब कुछ हलके लोगों ने सरदार की नीयत पर भी सन्देह किया तो वह मर्मान्तक वेदना उनके लिए प्राण घातक ही सिद्ध हुई । उनके निकटवर्ती सूत्रों का कहना है यह दुःख ही शायद सरदार को इतनी जल्दी ले गया । अन्यथा तो वह कुछ दिन और जीवित रहते ।
पीछे जब चीन और पाकिस्तान से भारत का युद्ध हुआ था तब सूझ – बूझ वाले एक सफल योद्धा के रूप में सरदार की देशवासियों को बड़ी याद आई । आज फिर जब भारतीय सीमाओं पर युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं तब भी रह – रह कर सरदार का स्मरण हो आना स्वाभाविक है । सरदार का विश्वास था – जिसके साथ कभी स्वप्न में भी मित्रता की संभावना ही नहीं हैं उसे केवल घायल कर के ही न छोड़ दिया जाय । हाथ उठाया जाय तो पूरी शक्ति से ही उठाया जाय । दुनिया क्या कहेगी ? इससे भी अधिक यह सोचना जरूरी है – हमारा भविष्य कहां सुरक्षित हैं ? सरदार पटेल कहीं यदि दस पाँच साल और जीवित रह गये होते तो भारत का मानचित्र ही आज कुछ और होता ।

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