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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति-297 (चतुर्थ खण्ड) जीविका, उद्योग और ज्ञानविज्ञान

(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं )

प्रस्तुति: देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’ )

वेदमन्त्रों के उपदेश

गतांक से आगे…

-इसी शरीरप्रकरण के आगे लिखा है कि-

मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा हृदयं च यत् ।

मस्तिष्कादूर्ध्वः प्रैरयत् पवमानोऽधि शीर्षतः ।। २६ ।।

तद् वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुब्जितः ।

तत् प्राणो अभि रक्षति शिरो अन्नमयो मनः ।। २७ ।।

ऊर्ध्वो नु सृष्टा ३ स्तिर्यङ् नु सृष्टा ३ः सर्वा दिशः पुरुष आबभूवाँ३ ।

पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ।। २८ ।।

यो वै तां ब्रह्मणो वेदामृतेनावृतां पुरम् ।

तस्मै ब्रह्म च ब्राह्माश्च चक्षुः प्राणं प्रजां ददुः ।। २६ ।।
न वै तं चक्षुर्जहाति न प्राणो जरसः पुरा ।
पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ।। ३० ।।

अष्टाचत्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या ।

तस्यां हिरण्ययः कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृतः ।। ३१ ।।

तस्मिन् हिरण्यये कोशे श्यरे त्रिप्रतिष्ठिते ।

तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद् वै ब्रह्मविदो विदुः ॥ ३२ ॥ ( अथर्व० १०।२।२६ – ३२ )

अर्थात् परमेश्वर ने मस्तिष्क को हृदय के साथ शिर दिया है, जो अग्निविशेष के द्वारा शरीर को प्रेरित करता है | यह शिर देवकोश है । इसी में सब ज्ञानविज्ञान निवास करता है। इसकी प्राण, मन और अन्न रक्षा करते हैं। परमात्मा ही इन उलटे, आड़े और सीधे शरीरों को अपनी व्यापकता से बनाता है। इसीलिए जो इस पुररूपी शरीर को जानता है, वही पुरुष कहलाता है । जो उस अमृत ब्रह्म से इस शरीरपुर को जानता है, वही वेद को, परमात्मा को, स्वास्थ्य को, बल को और सन्तति को प्राप्त होता है। उस मनुष्य के, बुढ़ापे के पूर्व, न नेत्र खराब होते हैं और न बल ही कम होता है, जो इस ब्रह्मपुर – शरीर को अच्छी तरह समझता है। इस आठ चक्र और नव द्वारवाले अयोध्यानगर में प्रकाशमान कोश है, जो स्वर्गीय ज्योति से छाया हुआ है। उस तिहरे और तीन ओर से रक्षित कोश में जो आत्मा की भाँति महान् यक्ष बैठा है, उसी को ब्रह्म के ढूंढनेवाले प्राप्त करते हैं। इन मन्त्रों में शिर को विज्ञान का कोश बतलाकर और हृदय के साथ सिया हुया कहकर बतला दिया कि शरीर हृदयाकाश में ही वह, ज्योतिःस्वरूप परमात्मा विराजमान है, जिसको ब्रह्मज्ञानी ही हूँढ पाते हैं। इस प्रकार शरीर, मस्तिष्क और हृदय के स्थलू सूक्ष्म अवयवों का वर्णन करके अब वैद्य का वर्णन करते हैं। ऋग्वेद में लिखा है कि-

यत्रोषधीः समम्मत राजानः समिताविव ।
विप्रः स उच्यते भिषप्रक्षोहामीवचातन ।। (ऋ० १०११७१६ )

अर्थात् राजसभा में जिस प्रकार सभासद् एकत्रित होते हैं, उसी तरह जिसके पास औषधियाँ एकत्रित रहती हैं, उसको विद्वान लोग रोगों को दूर करनेवाला और अपमृत्यु का नाश करने वाला वैद्य कहते हैं । वैद्य के पास इकट्ठी रहने वाली सैकड़ो औषधीय का वर्णन वेदों में है यहां नमूने के लिए दो-तीन का वर्णन करते हैं वेद में अपामार्ग लटजीरा के लिए लिखा है कि –

क्षुधामारं तृष्णामारमगोतामनपत्यताम् ।
अपामार्ग त्वया वयं सर्वे तदप मृज्महे | ( श्रथर्व० ४।१७।६ )

अर्थात् क्षुधा मारनेवाले, तृषा मारनेवाले, निर्धनता और निर्वंशता दूर करनेवाले हे अपामार्ग (लटजीरा) !
तुझे हम तलाश करते हैं । इस मन्त्र के द्वारा लटजीरा में उपर्युक्त गुण बतलाये गये हैं। इसके आगे पिप्पली के गुण इस प्रकार लिखे हैं-

पिप्पली क्षिप्तमेषण्यू ३तातिविद्धभवजी ।
ता देवाः समकल्पयन्नियं जीवितवा अलम् || ( अथर्व० ६।१०६१)

अर्थात् विद्वानों ने पिप्पली को उन्मत्त की औषधि, बड़े घाववाले की दवा और जीवन देनेवाली माना है। पीपल के गुण इसी प्रकार वैद्यक में भी लिखे हैं। इसके आगे बालों को बढ़ाने, श्याम रखने और दृढ़ करने की औषधि का वर्णन इस प्रकार है-

द्दहं मूलमाग्रं यच्छ वि मध्यं यामयौषधे ।
केशा नडा इव वर्धन्तां शीष्णस्ते असिताः परि || ( अथर्व० ६।१३७/३ )

अर्थात् हे औषधि ! तू बालों की जड़ों को दृढ़ कर, नोक को बढ़ा और मध्यभाग को लम्बा कर जिससे केश काले होकर लम्बी घास के समान बढ़ें।
क्रमशः

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