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इतिहास के पन्नों से

स्वामी दयानंद जी महाराज और काशी शास्त्रार्थ

काशी शास्त्रार्थ पर विचार

#डॉविवेकआर्य

सन् 2023 में इतिहास की प्रमुख घटनाओं में से एक काशी शास्त्रार्थ के 154 वर्ष पूर्ण हो गए। प्राय: लोग आपको स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण का विवरण देते है। जब विदेश की धरती पर स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति का परिचय दिया था। मगर उनके भाषण से दशकों पूर्व काशी की धरती पर स्वामी दयानन्द ने एक महान अभियान का आरम्भ 16 नवंबर, 1869 को किया था। उस काल में काशी विद्या की नगरी के नाम से प्रसिद्द थी। उसकी छवि संसार में ठीक ऐसी थी जैसे ईसाई समाज में वेटिकन और मुस्लिम समाज में मक्का-मदीना की है। भारतवर्ष के सुदूर प्रांतों से काशी में विद्या का ग्रहण करने हजारों छात्र प्रतिवर्ष काशी आते थे। शिव के हज़ारों मंदिरों से सुशोभित काशी में इतने शिवलिंग थे कि कंकड़ कंकर शिव शंकर के नाम से यह प्रसिद्द थी। अनेकों मठ-अखाड़े धर्म का प्रतिपादन करने के लिए आरूढ़ थे। काशी नरेश के संरक्षण से अनेकों गद्दियों पर महंत आराम से जीवन यापन कर रहे थे। अनेक सेठों द्वारा संचालित अन्नक्षेत्रों में भोजन की पर्याप्त व्यवस्था थी। काशी के घाटों पर गंगा स्नान करने से मोक्ष प्राप्ति की कामना लिए हज़ारों तीर्थयात्री काशी की गलियों में विचरण करते आपको मिल जाते थे। मंदिरों में मूर्तियों पर लाखों के चढ़ावे और दान-दक्षिणा में पंडित वर्ग प्राय: इतना सलंग्न था कि वैदिक धर्मिक ग्रंथों और शास्त्रों के स्वाध्याय की परम्परा को एक औपचारिकता रूप में ही निभाता था। पंडित वर्ग द्वारा यह सिखाया गया कि धर्म कर्म मुख्य रूप से मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा और दान-माहात्म्य तक ही सीमित है। शास्त्र आदि का पठन-पाठन पंडितों के विषय है, जिनका जनसाधारण को जानने का कोई अधिकार ही नहीं है। वेद विद्या का कोई नामलेवा बमुश्किल काशी में मिलता था। ऐसे में सामाजिक कुरीतियां जैसे बाल-विवाह, बहुविवाह, बलि प्रथा, सतीप्रथा आदि से लेकर वेश्यावृत्ति, नशाखोरी, मांसाहार, व्यभिचार ,गली गली में बालविधवाओं के करुण प्रलाप से काशी दूषित हो रही थीं। एक ओर कोई मुल्ला-मौलवी बहला-फुसला कर दीन का कार्य कर रहा था तो दूसरी ओर कोई ईसाई पादरी हिन्दू देवी-देवताओं विषय में निंदा और ईसा मसीह की प्रशंसा कर हिन्दुओं को ईसाई बनने के लिए प्रेरित कर रहा था। ऊपर से देश में विदेशी अंग्रेजों के राज में इस अंधकारमय माहौल से मुक्ति का कोई आसरा न दीखता था। इस आध्यात्मिक, राजनीतिक और सामाजिक अन्धकार में प्रात:काल में उज्ज्वलित सूर्य के समान स्वामी दयानन्द का आगमन हुआ। सत्यान्वेषक दयानन्द के हाथ में शास्त्र और दूसरे हाथ में तर्क विराजमान था। हज़ारों पंडितों की काशी को एक अकेले वीतराग स्वामी ने चुनौती दी कि “मूर्तिपूजा वेद-सम्मत नहीं है”। वेदों में मूर्तिपूजा का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इसलिए यह त्याज्य है। काशी के पंडितों के लिए यह अचरज की बात थी। उनकी आमदनी जिस मूर्तिपूजा पर आधारित थी। उसी मूर्तिपूजा को एक वीतराग सन्यासी वेदों के आधार पर मिथक सिद्ध कर रहा था। जब यह समाचार काशी नरेश को मिला। तो उन्होंने भी मूर्तिपूजा में दृढ़ आस्था होने के कारण स्वामी जी को प्रलोभन देकर चुप कराना चाहा। मगर स्वामी दयानन्द के लिए तुच्छ प्रलोभन किसी काम के नहीं थे। उनके लिए तो सत्य और ईश्वर अनुराग ही एकमात्र प्रलोभन था। आखिर में काशी नरेश ने काशी के प्रसिद्द पंडितों के साथ स्वामी जी का शास्त्रार्थ करवाना स्वीकार किया। स्वामी दयानन्द को ज्ञात था कि पूरी काशी में कोई भी पंडित चारों वेदों का ज्ञाता नहीं है। इसलिए विरोधी पक्ष अपने अज्ञान को छुपाने के लिए उनके साथ छल करने का पूरा प्रयास करेगा। उनके गुरु प्रज्ञाचक्षु विरजानन्द दण्डी जी से भी काशी में ऐसे ही पहले छल हो चूका था । इसलिए उन्होंने शांत चित से शास्त्रार्थ करने का निश्चय किया। पंडित लोग अपने शिष्यों द्वारा स्वामी जी के भेद जानने करते पर विफल रहे। निष्कपट साधु के समक्ष उनकी एक न चली।
आखिर 16 नवंबर, 1869 (विक्रमी सम्वत 1926, कार्तिक सुदी 12 मंगलवार) को स्वामी दयानन्द का काशी नरेश की उपस्थिति में विशुद्धानन्द सरस्वती और बालशास्त्री आदि पंडितों के साथ आनंदबाग (दुर्गाकुंड के समीप) शास्त्रार्थ हुआ। पंडित वर्ग वेदों में मूर्तिपूजा को सिद्ध न कर सका तो उसने छल से काम लिया। स्वामी जी को माधवाचार्य ने दो पत्रे निकाल कर दिए। स्वामी जी उसे पढ़ने लगे तो तालीबजाकर दयानन्द की हार हुई कहकर पंडित वर्ग उठ खड़ा हुआ। चारों ओर अपने समर्थकों द्वारा कोलाहल करवा कर सत्य को दबाने का षड़यंत्र काशी नरेश की उपस्थिति में किया गया। परन्तु उस सभा में अनेक पक्षपाती लोगों के मध्य कुछ निष्पक्ष पवित्र आत्माएं भी उपस्थित थी। जिन्होंने स्वामी दयानन्द के सिद्धांत की विजय अपनी आँखों से देखी थी। अगले दिनों के समाचार पत्रों में स्वामी जी का विजय का समाचार प्रकाशित हुआ तो उससे सामान्य प्रजा को सत्य का आभास हुआ। काशी के पंडित यहाँ पर भी न रुकें। उन्होंने एक पुस्तक स्वामी जी की जूठी निंदा के लिए काशीराज के छापेखाने से प्रकाशित करवाई। मगर स्वामी जी पर इस कुकृत्य का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उन्होंने स्वस्मृति से काशी शास्त्रार्थ के एक मास के पश्चात शास्त्रार्थ प्रकरण को बनारस लाइट प्रेस से 1869 में ही प्रकाशित कर दिया। जिससे जनसाधारण भ्रमित होने न बच के। ज्ञात रहे कि स्वामी दयानन्द काशी शास्त्रार्थ के विक्रमी संवत 1926 से 1937 तक 6 बार काशी पधारे। हर बार उन्होंने विज्ञापन देकर वेदों में मूर्तिपूजा विषय पर शास्त्रार्थ के लिए काशीस्थ पंडितों को प्रेरित किया। पर मूर्तिपूजा पक्ष को सिद्ध करने के लिए उनके समक्ष कोई भी पंडित उपस्थित न हुआ। स्वामी जी ने पंडितों को दुराग्रह छोड़ने और सत्य मार्ग के अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया। पर इसके विपरीत अज्ञानी जो लोग यह कहते फिरते कि स्वामी जी की शास्त्रार्थ में हार हुई थी। उनका यह पक्ष निराधार सिद्ध होता है क्यूंकि स्वामी दयानन्द का पक्ष सत्य पर आधारित था। स्वामी दयानन्द जब पाँचवीं बार काशी पधारे तो काशी महाराज ने उन्हें अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया और अपने किये के लिए क्षमा मांगी। काशी नरेश द्वारा क्षमा माँगना ही यह सिद्ध करता है कि काशी शास्त्रार्थ में स्वामी दयानन्द की विजय हुई थी । इसलिए उनको न कोई लोभ-भय आदि था। उनकी इच्छा वेद-रूपी ईश्वरीय ज्ञान को पुन: स्थापित करने की थी। ताकि भारत वर्ष प्राचीन काल के समान विश्वगुरु रूप में पुन: स्थापित हो। उनके इस प्रयोजन में वर्तमान समाज में धर्म के नाम पर प्रचलित रूढ़िवादी परम्पराएं और मान्यताएं सबसे बड़ी बाधक थी। जिसके स्वामी जी ने अपने भागीरथ प्रयास से इन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनका प्रयास ठीक वैसा ही था जैसा प्राचीनकाल में आदि शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ परम्परा द्वारा नास्तिक मतों को परास्त कर उज्जैन के राजा सुन्धवा की सहायता से प्राचीन धर्म की पुन: स्थापना करना था। परन्तु स्वामी जी और आदि शंकराचार्य के काल में बहुत परिवर्तन आ चूका था। शंकराचार्य से पराजित आचार्यों ने और राजा ने जैसे उनके मत को स्वीकार कर लिया था । वैसा सौभाग्य दयानन्द स्वामी को प्राप्त न हुआ। काशी नरेश ने पक्षपात के चलते हिन्दू समाज के भाग्योदय को ऐसे महान अवसर को खो दिया। जिसकी कल्पना उस काल के पंडित कभी स्वप्न में भी नहीं कर सकते थे। शताब्दियों पश्चात एक महान आत्मा ईश्वरीय कार्य करने को प्रकट हुई। परन्तु अपने तुच्छ लाभों के समक्ष उस महान उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए पंडित लोग भागीदार न बन सकें। इसलिए एक वीतराग सन्यासी की हुंकार के सामने कोई न आया। वर्तमान स्थितियों में भी उस सन्यासी का चिंतन भारतीय समाज अपना ले और वैदिक धर्म की मान्यताओं को अपने आचरण में समाहित कर ले। तो भी वैदिक धर्म की संसार भर में दुन्दुभि बजने से कोई नहीं रोक सकता।
स्वामी दयानन्द द्वारा स्वयं से काशी शास्त्रार्थ में वेदों में प्रतिमा शब्द से मूर्तिपूजा का सिद्ध न होना की पुष्टि उनके पूना प्रवास के समय दिए गए भाषण में इस प्रकार से होती है।
“प्रयाग से मैं रामनगर को गया। वहाँ के राजा की इच्छानुसार काशी के पण्डितों से शास्त्रार्थ हुआ। इस शास्त्रार्थ में यह विषय प्रविष्ट था कि वेदों में मूर्तिपूजा है या नहीं। मैंने यह सिद्ध करके दिखा दिया कि ‘प्रतिमा’ शब्द तो वेदों में मिलता है, परन्तु उसके अर्थ तौल नाप आदि के हैं। वह शास्त्रार्थ अलग छपकर प्रकाशित हुआ है, जिसको सज्जन पुरुष अवलोकन करेंगे। ‘इतिहास’ शब्द से ब्राह्मण ग्रन्थ ही समझने चाहिए, इस पर भी शास्त्रार्थ हुआ था। गत वर्ष के भाद्रपद मास में मैं काशी में था। आज तक चार बार काशी में जा चुका हूँ। जब-जब काशी में जाता हूँ तब-तब विज्ञापन देता हैं कि यदि किसी को वेद में मूर्तिपूजा का प्रमाण मिला हो तो मेरे पास लेकर आवें, परन्तु अब तक कोई भी प्रमाण नहीं निकाल सका।”
आर्यसमाज की स्थापना के पश्चात से मूर्तिपूजा विषय पर अनेक विद्वानों के शास्त्रार्थ प्रकाशित हुए। उन शास्त्रार्थों में आज मूर्तिपूजा को वेद सम्मत सिद्ध नहीं कर पाया। यह स्वामी दयानन्द के सत्य ज्ञान का प्रताप नहीं तो क्या है। काशी शास्त्रार्थ से आरम्भ हुई यह परम्परा आज तक अविरल रूप से चल रही है। आर्यसमाज के इतिहासकारों ने काशी शास्त्रार्थ पर अपने विचारों को बड़े प्रभावशाली रूप में लिखा है।
सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द ने ही काशी शास्त्रार्थ के एक मास के पश्चात दिसंबर 1869 में प्रकाशित किया था। शास्त्रार्थ प्रकरण पूर्वार्ध 24 पृष्ठों में छपवाकर प्रकाशित करवाया। इसके उत्तरार्ध भाग में स्वामी दयानन्द के उपदेशों का ‘सद्धर्म विचार’ के नाम से प्रकाशित किया गया था। शास्त्रार्थ का संस्कृत भाग स्वामी दयानन्द जी ने लिखवाया था। जबकि हिंदी भाग मुंशी हरवंशलाल द्वारा किया गया था। सद्धर्म विचार स्वामी दयानन्द ने नहीं लिखवाया था। न ही उन्होंने इसे छपने से पहले देखा था। इस विवरण का प्रकाशन काशी के मुंशी हरवंशलाल की सम्मति से पं गोपीनाथ पाठक ने बनारस लाइट प्रेस से किया था। मुंशी बख्तावर सिंह के अनुसार यह शास्त्रार्थ पुन: दूसरी बार सम्वत 1927 में काशी के स्टार प्रेस से छपा। सन् 1880 में आर्यदर्पण पत्रिका में तीसरी बार प्रकाशित हुआ। आर्यभाषानुवाद के साथ साथ उर्दू भाषा में भी यह शास्त्रार्थ प्रकाशित हुआ। वैदिक यंत्रालय से प्रथम बार सम्वत 1937 में प्रकाशित हुआ जिसे चतुर्थवृति समझना चाहिए। स्वामी दयानन्द के जीवनकाल में पुन: 1939 विक्रमी में प्रकाशित हुआ। इस प्रकार से स्वामी दयानन्द के जीवन काल में ही यह शास्त्रार्थ छह बार प्रकाशित हुआ।
काशी शास्त्रार्थ के विषय में स्वामी दयानन्द के जीवन काल में और उसके पश्चात प्रकाशित हुए जिनकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार हैं।
1. दयानन्दपराभूति:- यह संस्कृत में काशी नरेश के यहाँ से प्रकाशित हुआ। इसमें मनमानी रीती से पंडितों ने स्वामी जी के अभिप्राय के विरुद्ध अपना मत प्रकाशित किया। पंडितों ने पक्षपात आचरण का प्रदर्शन करते हुए अपनी अज्ञानता का परिचय इसमें दिया।
2. दुर्जनमतमर्दन-19 पृष्ठों की इस पुस्तक में वेद मन्त्रों के स्थान पर पुराण के वाक्यों की भरमार थी। पंडित लेखराम ने इस पुस्तक की समीक्षा इस प्रकार से की हैं- ‘इसका अध्ययन करने वालों पर पंडितों की असभ्यता, अयोग्यता, वेद और शास्त्रों की अनभिज्ञता तथा असत्य की पराजय स्पष्ट प्रकट हो जाती है और इसी प्रकार राजा साहब का मिट्टी के माधों या महादेव होना भी प्रकट हो जाता है।’
3. पं सत्यव्रत सामश्रमी ने ‘प्रत्नकम्रनन्दिनी’ के दिसंबर 1869 अंक सं 28 में काशीस्तराजभायां प्रतिमापूजनविचार: शीर्षक से प्रकाशित किया। यद्यपि पंडित जी का विवरण पूरी तरह से असत्य नहीं था। तथापि इस विवरण को पढ़कर यह सिद्ध हो जाता है कि काशी के पंडित वेदों से प्रतिमापूजन के पक्ष में एक भी प्रमाण को प्रस्तुत न कर सकें।
‘प्रत्नकम्रनन्दिनी’ में छपे वृतांत को पढ़कर एक जागरूक पाठक ने आर्य दर्पण पत्रिका को पत्र लिखकर स्वामी दयानन्द के शास्त्रार्थ में विजयी होने का समर्थन किया। यह पत्र फरवरी 1880, आर्यदर्पण अंक में प्रकाशित हुआ। डॉ जवलंत कुमार शास्त्री के अनुसार 1906 में सामश्रमी जी ने अपने ग्रन्थ ऐतरेयलोचन में शास्त्रार्थ के 37 वर्ष पश्चात अपने आपको पण्डितवर्ग की ओर से लेखक नियुक्त होना स्वीकार किया हैं। डॉ भारतीय जी ने पं सामश्रमी जी के विवरण को द्वितीय परिशिष्ट के रूप में इसी संस्करण में सम्मिलित किया है।
4. इसके अतिरिक्त मथुरा प्रसाद दीक्षित द्वारा काशी के विद्वानों का और स्वामी दयानन्द जी का सच्चा काशी शास्त्रार्थ एवं भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा दूषण मालिका एवं प्रतिमा-पूजन-विचार के नाम से स्वामी दयानन्द प्रतिकूल विचार प्रकाशित किये गए थे।
5. ‘काशी शास्त्रार्थ का सत्य’ के नाम से लाल बिहारी मिश्र द्वारा रचित एक छोटी पुस्तक 1969 में काशी शास्त्रार्थ की शताब्दी बनाने के पश्चात मूर्तिपूजा समर्थक पंडितों ने प्रकाशित की थी। खेद है कि इस पुस्तक में भी पंडित वर्ग वेदों से मूर्तिपूजा के समर्थन में एक भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाया।
काशी शास्त्रार्थ के बहुत काल बाद तक भी काशी के पंडित स्वामी दयानन्द के मंतव्य को स्वीकार न कर पाए। पदमविभूषण पं बलदेव उपाध्याय अपनी पुस्तक ‘काशी की पांडित्य परम्परा’ में काशी शास्त्रार्थ के विषय में यह टिप्पणी लिखते हैं-
‘शास्त्रार्थ की समाप्ति पर दयानन्द जी चिंतित तथा अन्यमनस्क हो गए। पराजय की पीड़ा उनके हृदय को बेधने जो लगी। स्वामी विशुद्धानन्द जी तब स्वामी दयानन्द की पीठ को अपने हाथों से ठोकते हुए बनारसी भोजपुरी में बड़े प्रेम से बोलते लगे- स्वामी, अभी नया मूँड़ मूँड़ौले हवा। कुछ दिन काशी में रहिकै पंडितन के साथ कुछ सीखSS तब वेदशास्त्र के मरम कSS पता लगी। धरम के मरम समझल बड़ा कठिन काम हवे। ‘धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्’- त जनते हवSS। उदास भइले कSS अवसर कवन बाटे।’ विशुद्धानन्द जी की प्रेमभरी वाणी सुनकर दयानन्द जी मुसुकाने लगे, प्रसन्न हुए और इसी प्रसन्न वातावरण में यह ऐतिहासिक शास्त्रार्थ समाप्त हुआ।
स्पष्ट है कि पं बलदेव उपाध्याय की कपोलकल्पना पर टिप्पणी देने की कोई आवश्यकता ही नहीं हैं।
इसके विपरीत निष्पक्ष लेखक पं चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की टिप्पणी पठनीय हैं-
‘और न वह समय आता जब एक वेदपाठी गुजराती सन्यासी काशी के पंडितों को खसूचि बनाकर छोड़ जाता—स्वामी दयानन्द धूमकेतु की तरह काशी में आ पहुँचे और अक्षोभ्य समुद्र की तरह काशी की सतह उनके आने से पेंदे तक हिल गई। लोग विस्मय से ऑंखें फाड़े हुए रह गये कि स्वामी जहाँ मन्त्रपाठ करनेवाले वैदिकों से मिलता है वहाँ उन्हें भाष्यव्यापी व्याकरण के उपरस्थित अर्थज्ञान से गूँगा कर देता है और जहाँ नव्य वैयाकरण मिलते हैं, वहाँ वह घटो घट: का तुषकण्डन छोड़कर उन्हें अपने सीधा व्याकरण की चकाबू में गोते खिलाता है। जिन्होंने नव्य निर्दयता के साथ ‘कल्मसंज्ञा’ में उलझा दिया और जिन्हें सारा शतपथ ब्राह्मण कण्ठ था उन्हें एक शब्द का अर्थ पूछकर चुप कर दिया।’
काशी शास्त्रार्थ के 100 वर्ष पूर्ण होने पर 1969 में आर्यसमाज द्वारा बनारस में पौराणिक विद्वानों को वेदों में मूर्तिपूजा को सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ के लिए फिर से चुनौती दी गई। श्री करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में पौराणिक दल बनारस में एकत्र होकर केवल बयानबाजी करता रहा। आर्य विद्वानों से शास्त्रार्थ के लिए सामने नहीं आया। कुछ पौराणिक लेखकों ने काशी शास्त्रार्थ पर स्वामी दयानन्द के विरोध में वेदों के प्रमाण देने के स्थान पर ब्राह्मण ग्रंथों, पुराणों, उपनिषदों आदि से मूर्तिपूजा को सिद्ध करने का असफल प्रयास मात्र किया। यह स्वामी दयानन्द के मत की अटल विजय नहीं तो क्या हैं।
स्वामी दयानन्द के जीवनी लेखकों में गोपाल राव हरि ने स्वामी दयानन्द के जीवनकाल में प्रकाशित उनकी जीवनी दयानन्द दिग्विजयार्क में काशी शास्त्रार्थ में इसका संक्षिप्त विवरण प्रकाशित किया था। कालांतर में पं लेखराम लिखित स्वामी दयानन्द जीवन चरित में उर्दू में इसका वृहद विवरण प्रकाशित हुआ। पं लेखराम जी के उर्दू चरित्र का हिंदी अनुवाद कालांतर में प्रकाशित हुआ। अन्य हिंदी चरित्रों में पंडित लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, श्री देवेंद्रनाथ बाबू मुखोपाध्याय ,स्वामी सत्यानंद , घासीराम आदि द्वारा काशी शास्त्रार्थ पर विचार प्रकट किये हैं। अंग्रेजी में सर्वप्रथम काशी शास्त्रार्थ का संक्षिप्त वर्णन संभवत दुर्गा प्रसाद द्वारा रचित सत्य धर्म विचार अर्थात चांदपुर मेला शास्त्रार्थ में मिलता है। अंग्रेजी में काशी शास्त्रार्थ का विवरण स्वामी दयानन्द की संक्षिप्त जीवनी के साथ डॉ तुलसीराम द्वारा अनुवाद किया हुआ प्राप्य है। स्वामी जी के काशी शास्त्रार्थ के उद्देश्य को अंग्रेजी में बाबू दुर्गाप्रसाद ने बड़े सुन्दर शब्दों में लिखा हैं। दिवान हरबिलास शारदा , बावा छज्जू सिंह द्वारा लिखित अंग्रेजी जीवनियों में विस्तार से चर्चा हैं। संस्कृत काव्य में पंडित अखिलानंद शर्मा और आचार्य मेधाव्रत ने दयानन्द दिग्विजयं नाम से संस्कृत काव्य में ऋषि जीवन के अंतर्गत काशी शास्त्रार्थ का वर्णन किया हैं। इसके अतिरिक्त आर्यसमाज के इतिहास में प्रथम भाग में सत्यकेतु विद्यालंकार ने इसकी चर्चा की हैं । आर्यसमाज के विद्वानों ने मूर्तिपूजा की वेद प्रतिकूलता पर अनेक शास्त्रार्थ किये जिनका संग्रह प्रकाशित है। इन रोचक शास्त्रार्थों का स्वाध्याय करने से अनेक वैदिक सिद्धांतों का परिचय मिलता हैं।आर्यसमाज के भजनोपदेशकों ने काशी शास्त्रार्थ पर अनेक भजन लिखे। जिनमें पंडित बस्तीराम जी, मंगल वैद्य पोली आदि के भजन प्रसिद्द है। ‘काशी शास्त्रार्थ का इतिवृत’ नामक ग्रन्थ आचार्य विश्वश्रवा व्यास द्वारा इसी विषय पर रचित है।
जो लोग स्वामी दयानन्द की काशी में पराजय होने की मनगढ़त बात करते है। शास्त्रार्थ के वर्षों पश्चात भी स्वामी जी के पत्रों और विज्ञापनों में हम मूर्तिपूजा को वेदों के अनुकूल न मानने की उनकी मान्यता पर स्वामी जी को अडिग पाते हैं। काशी शास्त्रार्थ के 6 वर्ष पश्चात प्रकाशित सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी जी मूर्तिपूजा का पुरजोर खंडन करते हैं। यह स्वामी जी के वेदों पर अप्रतिम विश्वास एवं सत्यता के प्रति निष्ठा प्रतीक है।
डॉ भवानीलाल भारतीय रचित नव जागरण के पुरोधा महर्षि दयानन्द सरस्वती , काशी में स्वामी दयानंद, ऋषि दयानन्द सरस्वती के शास्त्रार्थ और प्रवचन (संपादक) में काशी शास्त्रार्थ विषयक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती हैं। पंडित युधिष्ठिर मीमांसक जी द्वारा काशी शास्त्रार्थ पर अप्रतिम शोध कार्य किया गया। आपने ऋषि दयानन्द सरस्वती के शास्त्रार्थ और प्रवचन का डॉ भारतीय जी के साथ मिलकर संपादन किया । वहीं वेदवाणी पत्रिका से आपने इस अनेक दयानन्द विशेषांक प्रकाशित किये। आपने डॉ ब्रजमोहन जावलिया, अध्यक्ष पोथीखाना जयपुर के सहयोग से “काशी शास्त्रार्थ और सद्धर्म विचार” की मूलप्रति से छायाप्रति प्राप्त कर उसे वेदवाणी के दयानन्द विशेषांक में प्रकाशित किया । डॉ ज्वलंतकुमार शास्त्री द्वारा वेदवाणी पत्रिका के दयानन्द विशेषांक के अंतर्गत “काशी शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में विशेष टिप्पणियां” शीर्षक से महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित किया गया। डॉ ज्वलंतकुमार शास्त्री द्वारा डॉ भारतीय जी कृत काशी में महर्षि दयानंद का पुन: प्रकाशन किया गया।
इस लेख में मैंने काशी शास्त्रार्थ के इतिहास, उद्देश्य, विरोधी पक्ष के प्रकाशन, शास्त्रार्थ से सम्बंधित प्रकाशित साहित्य का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया हैं।

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