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हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

महर्षि दयानन्द का विषपान से ही बलिदान

लेखक :- श्री स्वामी ओमानन्द सरस्वती
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा

        महर्षि दयानन्द के जीवनकाल में ही उनके भक्तों तथा विरोधियों की पर्याप्त बड़ी संख्या हो गयी थी । सच्चे वैदिक धर्म के पारखी और जिज्ञासु तो उनके उपदेश से सहज में उनके श्रद्धालु भक्त व शिष्य बन जाते थे । जैसे एक रिवाड़ी के राव राजा युधिष्ठिर पाखण्डी स्वार्थी ब्राह्मणों के बहकाने से अपने महल से हथियार बांधकर अपने घोड़े पर यह निश्चय करके सवार हुये थे कि हमारे देवी देवताओं और गंगा - यमुना आदि पवित्र नदियों का तथा तीर्थों का खण्डन वा निन्दा स्वामी दयानन्द ने आज अपने व्याख्यानों में की तो मैं अपनी तलवार से उनका सिर काट दूंगा । व्याख्यान के स्थान पर जब राव राजा युधिष्ठिर पहुंचे उस समय स्वामी दयानन्द का व्याख्यान गोरक्षा पर हो रहा था । अहंकार के वशीभूत अपने घोड़े पर सवार राव राजा युधिष्ठिर दूर से ही उनका व्याख्यान सुनने लगा । जब उसने ६ फुट ९ इंच लम्बे स्वामी दयानन्द की दिव्य मूर्ति के दर्शन किये और स्वामी जी का गोरक्षा पर युक्ति - युक्त प्रभावशाली व्याख्यान सुना तो उसका वज्र हृदय पिघलने लगा और उसमें श्रद्धा के अंकुर अंकुरित होने लगे । वह घोड़े से नीचे उतर कर महर्षि के उपदेशामृत का पान करने लगा । आया था प्राणघातक शत्रु बनकर किन्तु प्रभावित होकर महर्षि का भक्त व शिष्य बन गया । फलस्वरूप अपने साथियों सहित महर्षि दयानन्द के पवित्र कर - कमलों से यज्ञोपवीत धारण करके शिष्य बनने की दीक्षा ली और सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द को आज्ञानुसार रिवाड़ी में प्रथम गोशाला की स्थापना की ।

      महर्षि दयानन्द सत्य और धर्म के सच्चे पुजारी थे । वे प्राचीन सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रचार व उद्धार करने के लिए आये थे । कितने निर्भीक सत्यधर्म के प्रचारक और प्रसारक थे । सत्यार्थप्रकाश में लिखे उनके वचनामृत प्रमाण हैं “ मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे , अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे । इतना ही नहीं , किन्तु , अपने सर्वसामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वह महाअनाथ , निर्बल और गुणरहित क्यों न हों , उनकी रक्षा उन्नति , प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती , सनाथ महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उनका नाश , अनवति , अप्रियाचरण सदा किया करे । अर्थात् जहाँ तक हो सके वहाँ तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे । इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी भले ही चले जावें परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवे । " इस दयानन्द वचनामृत को पढ़कर प्रत्येक विचारशील व्यक्ति सहसा कह उठेगा कि इस पांच हजार वर्ष के समय में अर्थात् महर्षि व्यास के पीछे दयानन्द के समान कौन आचार्य सच्चे वैदिक धर्म अर्थात् घेद आर्यज्ञान , वैदिक सिद्धान्तों का प्रचारक हुआ है । क्या दयानन्द के समान दूसरा वेदसर्वस्व वा वेदप्राण मनुष्य दिखाया जा सकता है ?

   कोई माने या न माने वर्तमान युग में एकमात्र वेदप्राण पुरुष और आर्षज्ञान का अद्वितीय प्रसारक दयानन्द ही हुआ है । उसने इस पवित्र कार्य के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया । उनका यह दृढ़ निश्चय था कि “ यथा राजा तथा प्रजा " अर्थात् जैसा राजा होता है वैसी ही उसकी प्रजा होती है । यह विचार कर राजारों के सुधार के लिए उन्होंने राजस्थान की ओर अपना मुख किया था । उनको धारणा थो कि उदयपुर ओर जोधपुर आदि प्रदेशों के राजा उनके उपदेश से प्रभावित होकर बदल गये तो उनके सुधरने से वैदिक धर्म के प्रचार का कार्य सरलता से शीघ्र हो जायेगा । वे दु:खी होकर अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया । क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह है । जब बड़े बड़े विद्वान् राजा - महाराजा , ऋषि महर्षि लोग महाभारत युद्ध में बहुत से मारे गये और बहुत से मर गये तब विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार नष्ट हो चला । जो बलवान् हुआ वह देश को दबाकर राजा बन बैठा । वैसे ही सर्व आर्यावर्त देश में खण्डमण्ड राज्य हो गया । पुनः द्वीप द्वीपान्तर के राज्य की व्यवस्था कौन करें " यही विचार करके बचे - खुचे देशी राजाओं के सुधार के लिए जयपुर , शाहपुरा , उदयपुर , जोधपुर आदि राज्यों में प्रचारार्थ गये ।

       उस समय ये सभी राज्य अंग्रेजों के अधीन तो थे ही । प्राय: सभी राजे महाराजे बुरी तरह भोग विलास में फंसे हुए थे । जोधपुर राज्य को ही ले लीजिए । उस समय के महाराजा यशवन्तसिंह के भाई अपने स्वलिखित जीवन चरित्र में लिखते हैं - मेरे आने से पहले जोधपुर रियासत पर साठ लाख रुपया कर्जा था इसमें से बारह लाख रुपया सूद और काट का था । तीस लाख रुपया ब्रिटिश सरकार का था । इस प्रकार जोधपुर राज्य कर्ज के नीचे दबा हुआ था । जोधपुर राज्य अजमेर की मशहूर फर्म सेठ सुमेरमल ( उमेदमल ) से दरबार का लेन - देन किया जाता था । उस पर एक प्रतिशत मासिक सूद देना पड़ता था । इस ऋण वा कर्जे का कारण राजाओं का मूर्खतापूर्ण व्यय ही था ।

      सर प्रतापसिंह अपनी जीवनी में लिखते हैं कि उनकी दो बहिन इन्द्रकंवर बाई जी और केशवकंवर बाई जी का विवाह जयपुर के महाराजा रामसिंह जी के साथ हुआ । इस अवसर पर जयपुर से बहुत धूमधाम के साथ बारात आई । बीस हजार आदमी इस बारात के साथ थे । राजा रामसिंह जी की सवारी पांच सौ सवारों के साथ आगे चली आ रही थी । वे लिखते हैं रात को नाच रंग , शराब भांग के दौर शुरु हुए । इस बारात को जब एक मास होने को आया तो उनके दीवान पं० शिवदीन जी ने प्रार्थना की कि अब अवकाश लेना चाहिए । बीस हजार आदमी हैं उनके खाने पीने पर बहुत व्यय हो रहा है । जोधपुर दरबार की ओर तो कोई कमी नहीं किन्तु हमें स्वयं विचार करना चाहिए । बीस हजार मनुष्यों के अतिरिक्त हजारों पशु अर्थात् हाथी , खोड़े ऊँट , बैल आदि भी हैं उनके चारे और खुराक का प्रबन्ध भी जोधपुर को ही करना पड़ता है । जयपुर के महाराजा रामसिंह ने जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह जी से जब अवकाश चाहा तो उन्होंने हंसकर यह उत्तर दिया कि आना आपके हाथ में था जाना हमारे हाथ में है । पं० शिवदीन के बहुत अनुरोध पर यह निर्णय हुआ कि महाराजा रामसिंह दो हजार आदमियों के साथ अभी कुछ दिन और ठहरें । उधर जयपुर से बार - बार सन्देश प्राते थे कि रियासत के काम में बाधा हो रही है आप जल्दी पधारें । इस तरह राजे महाराजे धन का बुरी तरह अपव्यय करते थे । अपनी प्रजा के मुख दुःख का उन्हें कोई ध्यान नहीं था ।

   सर प्रतापसिंह ने सुधार के कार्य किए । वे राजपूतों के विषय में दुःख से कहा करते थे कि उन्हें शराब और वेश्यागमन ने नष्ट कर दिया है । यही दशा मुगलों की थी और यही अवस्था राज पूतों की हो रही है । सर प्रतापसिह जी स्वामी दयानन्द की शिक्षा से प्रभावित भी हुए । उनके पांच विवाह हुए थे । इसके अतिरिक्त तीन स्त्रियां पास रखते थे । यह शिकार के बड़े शौकोन थे और मांसाहारी थे । ऐसी ही अवस्था इनके बड़े भाई जोधपुर के महाराजा जशवन्त सिंह की थी । इनकी भी बहुत सी रानियां , रखैल और वेश्यायें थीं जिनमें से वेश्या नन्ही भक्तन के षड्यन्त्र से महर्षि दयानन्द को विष दिया गया । कुछ स्वार्थी लोग यह सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं कि महर्षि दयानन्द को जोधपुर में विष नहीं दिया गया , यह रोगी होकर स्वर्ग सिधारे । यह एक योजनाबद्ध कार्य है । जोधपुर का राजघराना भी इसमें मुख्य रूप से भाग ले रहा है । उस समय जोधपुर राज्य के शासक स्वयं भी अपनी लापरवाही के कारण ऋषि की मृत्यु के लिए दोषी थे । अत: उस समय के लोगों ने भी और इस समय का राज परिवार भी इस कलंक से बचने के लिए प्रत्येक सम्भव ढंग से यत्न कर रहा है ।

       इस समय “ सर प्रतापसिंह और उनकी देन ' नाम को एक पुस्तक प्रकाशित हुई है । इसके लेखक विक्रमसिंह एम. ए. हैं जो राजघराने के एक स्कूल चोपासनी जोधपुर में अध्यापक हैं । इस पुस्तक में एक अध्याय इसी विषय पर दिया गया कि स्वामी दयानन्द को जोधपुर में विष नहीं दिया गया । क्योंकि लेखक का जीवन - निर्वाह जोधपुर के राजघराने की सहायता या वेतन से हो होता है । वह तो राजघराने को महर्षि दयानन्द को मृत्यु से जो कलंक लगा है उसे धोने का यत्न करता है । ऐसे ही कई लेखक इस योजना में सम्मिलित हैं या किसी स्वार्थ , ईर्ष्या या द्वेष के कारण अन्य भी कई लेखक इस बात पर उतारू हैं कि स्वामी दयानन्द का देहान्त विष देने से नहीं हुआ किन्तु निमोनिया वा दस्तों के लगने से हुआ । ये सब इनकी कपोलकल्पना हैं । जितने भी जीवन चरित्र आरम्भ में तथा आज तक बिखे गए उन सबसे यही सिद्ध होता है कि महाराजा जशवन्तसिंह की रखैल नन्ही भक्तन ने रुष्ट होकर उनके रसोइये के द्वारा दूध में भयंकर विष दिलवाया । जोधपुर निवासी श्री भरोंसिंह ने अपना सारा ही जीवन इसी शोध कार्य में लगाया है । उनके पास इसके बहुत अधिक प्रमाण हैं । वे तो स्पष्ट और छाती ठोककर कहते हैं कि नन्ही भक्तन और रसोइया ही इस पाप के दोषी नहीं थे किन्तु अंग्रेजी सरकार और जोधपुर का राजघराना भी इस षड्यन्त्र में सम्मिलित था । 

      मैं अजमेर में जब महर्षि को अर्द्ध निर्वाण शताब्दी हुई उसमें गया था । उस समय तक बहुत से ऐसे व्यक्ति जीवित थे जिन्होंने महर्षि दयानन्द के दर्शन किये थे । उस समय मैंने भी उन सभी के दर्शन किये । उनमें से कुछ व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने महर्षि की अन्तिम दिनों में रुग्ण अवस्था में श्रद्धा पूर्वक सेवा की थी । उनके मुख से जिससे भी मैंने पूछ - ताछ की स्पष्ट यही शब्द निकले कि महर्षि दयानन्द को भयंकर विष दिया गया था । जोधपुर के राजघराने के एक आर्य सज्जन अजमेर में रहते हैं । मैं उनसे श्री दत्तात्रेय बाब्ले के साथ मिला । उनके पास महर्षि दयानन्द का एक हाथ का बनाया हुआ चित्र था । मैं उस चित्र को उनके पास से लाया था । मैंने उनसे भी यही प्रश्न पूछा था क्या महर्षि दयानन्द को जोधपुर में विष नहीं दिया गया तो उन्होंने साफ कहा कि हम जोधपुर राजघराने के लोग महर्षि दयानन्द की मृत्यु के कलंक से बचने के लिए झूठ बोलते हैं । यथार्थ में उनको विष दिया गया था और विष से ही उनकी मृत्यु हुई थी । सभी जीवन चरित्र व इतिहास लेखकों का एक हो मत है कि महर्षि दयानन्द का देहावसान कालकूट विष देने के कारण ही हुआ ।  

       हरयाणा के भजनोपदेशक महर्षि दयानन्द का जीवन गाते हुए यह गाते थे कि जब जमन्नाथ विष को रगड़ रहा था तो उसके हाथ कांप रहे थे । वे पंक्तियां जो गाई जाती थीं इस प्रकार हैं " रगडूं ना रगड़ा जाय हाथ मेरे कांप रहे " जिस डाक्टर अलीमर्दान खां ने जोधपुर के राजघराने को व्यवस्था से स्वामी दयानन्द को चिकित्सा की थी उस नीच ने औषध के स्थान पर स्वामी दयानन्द को विष दिया जिससे प्रतिदिन तीस से भी अधिक दस्त आते रहे । रोग बढ़ता गया ज्यों - ज्यों दवा की । महर्षि दयानन्द की अवस्था जोधपुर में ही सर्वथा बिगड़ गई थी और वे मरणासन्न हो गये थे । शरीर की सब शक्ति समाप्त हो गई थी । अलीमर्दान खां की चिकित्सा से विकराल काल के गाल में ऋषिवर चले गये थे । इस बार जोधपुर में मैंने पता लगाया कि यह व्यक्ति कहां का था । श्री भैरोंसिंह जी ने भी बताया कि उत्तर प्रदेश का था । मैंने उस समय भैरोंसिंह जी को एक सच्ची घटना जो रहस्यपूर्ण है इस डाक्टर अलीमर्दान खां के विषय में सुनाई । यह डाक्टर अलीमर्दान खां जो जोधपुर से उत्तर प्रदेश में चला गया । यह हस्तिनापुर के पास रहता था और यह पागल हो गया था । उसी गांव के पास आर्यसमाज के संन्यासी स्वामी शान्तानन्द जी रहते थे । 

       उन्होंने इस डाक्टर अलीमर्दान खां को पागल अवस्था में अनेक बार देखा । वह बार बार रोता था और उसके मुख से यही शब्द निकलते थे कि मैंने भारी पाप किया । महान् अपराध किया कि एक ऋषि को , एक महात्मा स्वामी दयानन्द को विष दिया । अनेक वर्ष तक ऐसी ही अवस्था में दुःखी होकर वह मर गया । 

    डा० अलोमन खां उत्तर प्रदेश का ही था और वह भी महर्षि दयानन्द को विष देने के षड्यन्त्र में सम्मिलित था । महर्षि दयानन्द को योजनाबद्ध षड्यन्त्र करके जोधपुर में मयंकर विष दिया गया जिसके कारण उनका अमर बलिदान हुआ । हो सकता है आगे चलकर यह भी सिद्ध हो जाए कि नन्ही भक्तन व रसोइया के अतिरिक्त जोधपुर का राजघराना व अंग्रेज सरकार भो विष देने में सम्मिलित थे।

     इस बार जोधपुर में कुछ व्यक्ति ऐसे मिले जिन्होंने नन्हीं भक्तन के विषय में ऐसा बताया रामलियावास ५० घर का एक छोटा सा ग्राम जिला नागौर में है । इसकी ग्राम पंचायत करड़ाया है । इस नन्ही भक्तन का जन्म तथा ननिहाल इसी ग्राम का था । यह नन्ही भक्तन दूर के कुएं से पानी लेने के लिए मा रही थी । जोधपुर के राजा जशवन्तसिंह इसकी सुन्दरता के कारण इसे जोधपुर ले आये । किसी समय इस नन्ही भक्तन ने महाराजा से यह वचन ले लिया था कि मेरे इस ननिहाल के ग्राम में एक अच्छा कूआं और भगवान् श्रीकृष्ण का मन्दिर बनवा दो । महाराजा ने इस मांग को पूरा किया । श्री कृष्ण जी महाराज का मन्दिर तथा बहुत सुन्दर कुआं वहां पर बनवाया । कुएं का पानी दो सौ फुट गहराई पर निकला किन्तु जल उसका खारा है । उस मन्दिर में पुजारी नन्ही भक्तन के ननिहाल का ही रहता है उस गांव में यह प्रसिद्ध है की नन्ही भक्तन ने स्वामी दयानन्द को विष दिलवाया था । इसी के कारण स्वामी दयानन्द को मृत्यु हुई । स्वामी दयानन्द को विष दिलवाकर उस नन्ही भक्तन ने महान् पाप किया था । इसी के कारण कुएँ का पानी खारा है । उस ग्राम में धार्मिक व्यक्ति चला जाता है तो उस ग्राम का अन्न व जल ग्रहण नहीं करता ऐसा धार्मिक व्यक्ति ही कहते हैं कि इस पापन भक्तन नन्ही जान ने महानात्मा स्वामी दयानन्द को विष देकर मारा था । इसके कारण इस ग्राम का अन्न व जल ग्रहण नहीं करना चाहिए । 


    ये सारी बात यही सिद्ध करती है कि महर्षि दयानन्द का बलिदान विष पान से ही हुआ और उनको विष देने के षड्यन्त्र में महाराजा जोधपुर की वेश्या नन्ही भक्तन का पूरा हाथ था । इस नन्ही भक्तन के पास लाखों रुपये की सम्पत्ति थी । इसके नाम का एक विशाल मन्दिर जोधपुर में भी बना हुआ है । इसके प्रभाव से जोधपुर के राजा भी दबे हुए थे । अन्य सभी राज्याधिकारी इससे डरते थे । इसलिए यह भेद इन्हीं कारणों से बहुत दिनों तक जोधपुर में छिपा रहा किन्तु आज जोधपुर के जाने माने लोग सभी यह जानते हैं कि महर्षि दयानन्द की मृत्यु का कारण विषपान ही था और रसोइये के द्वारा विष दिलाने में नन्ही भक्तन का पूरा हाथ था तथा इस षड्यन्त्र में डा ० अलीमर्दान खां भी सम्मिलित था । श्री प्रो. राजेन्द्र जी जिज्ञासु ने एक छोटी पुस्तक " महर्षि का विषपान अमर बलिदान " लिखो थी । पाठक अधिक जानना चाहे तो उसे अवश्य पढ़ें । 

       उपरोक्त सच्चाई का अनुमोदन अथवा पुष्टि शाहपुरा के कुछ आर्य सज्जन भी करते हैं । जगन्नाथ रसोइया को शाहपुर के राजा नाहरसिंह ने महर्षि दयानन्द का भोजन बनाने के लिए भेजा । क्योंकि जो रसोइया उदयपुर से उनके साथ आया था , वह वृद्ध होने से सेवा करने में असमर्थ था इसलिए उसके स्थान पर राजा नाहरसिंह ने अपना पाचक जगन्नाथ स्वामी जी की सेवा में साथ भेज दिया । जगन्नाथ के कई नाम थे । एक नाम धूलिया वा धूरिया भी था । जन्म का ब्राह्मण होने से इसे धौड़ मिश्र भी कहते थे । अधिकतर लेखकों ने यही लिखा है कि महर्षि दयानन्द को विष देने वाला जगन्नाथ रसोइया था । किसी - किसी लेखक ने धौड़ मिश्र भी लिखा है । अब इससे यही सिद्ध होता है कि जगन्नाथ और धौड़ मिश्र एक ही व्यक्ति के नाम थे और वह शाहपुरा का रहने वाला था । इसके प्राण बचाने के लिए महर्षि दयानन्द ने इसको रुपयों की थैली देकर भगा दिया था । यह जोधपुर से भागकर कहां - कहां गया भली प्रकार से विदित नहीं । कुछ लोग कहते हैं कि नेपाल भाग गया था । किन्तु शाहपुरा के आर्य सज्जन यही बताते हैं कि अपने अन्तिम जीवन में बहुत वर्ष तक शाहपुरा में ही रहता रहा और उसके बाल बच्चे भी वहीं रहते रहे । शाहपुरा के राजा नाहरसिंह ने उसको पूरा संरक्षण दे रखा था । शाहपुरा राज्य से उसे पेंशन मिलती थी । शाहपुरा के कुछ आर्य सज्जन तो यह कहते हैं कि महर्षि दयानन्द को विष देने की योजना में शाहपुरा के राजा भी सम्मिलित थे , क्योंकि वे अंग्रेजों के भक्त थे और अंग्रेजों का भी स्वामी दयानन्द को मरवाने में पूरा हाथ था । इस समय तो ईश्वर ही जानता है कि इसमें कितनी सच्चाई है । शाहपुरा में आज भी पूरी प्रसिद्धी है कि महर्षि दयानन्द को जगन्नाथ रसोइये ने ही विष दिया था । उसमें नन्हीं भक्तन और डा० अलिमर्दान खां का तो पूरा हाथ था ही जोधपुर नरेश और शाहपुरा नरेश इन दोनों का कितना हाथ था वा नहीं यह भविष्य की खोज पर निर्भर । एक बहिन श्रीमती कमलादेवी जी मन्त्राणी आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने चम्बा में महिला सम्मेलन में एक कविता पढ़ी वह भी महर्षि दयानन्द के विषपान को पुष्ट करती है । 

” विश्व को अमृत पिला , विष आचमन तुमने किया है।
देशहित तप त्याग संयम का चयन तुमने किया है।।
देह की समिधा बनाकर प्राणघृत की आहुति दे ,
धन्य ऋषिवर धन्य जीवन का हवन तुमने किया है। “

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