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हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

दयानन्द का राष्ट्रवाद

लेखक आर्य सागर खारी ✍

(महर्षि दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती के उपलक्ष्य में 200 लेखों की लेखमाला के क्रम में आर्य जनों के अवलोंकनार्थ लेख संख्या 27)

महर्षि दयानन्द स्वराष्ट्र, स्वभाषा, स्वभूषा ,स्वसंस्कृति ,स्वतंत्रता के प्रबलतम पक्षधर दिव्य राष्ट्र पुरूष थे। उनका संपूर्ण चिंतन कार्य जहां आध्यात्मिकता से युक्त था वही राष्ट्र उनके लिए सर्वोपरि था।

अपने समाकालीन सुधारकों में महर्षि दयानंद स्वराज, स्वतंत्रता के प्रथम उद्घोषक पक्षधर थे।

महर्षि दयानंद के राष्ट्रवादी चिंतन को समझने से पूर्व 17वीं व 18 वीं शताब्दी के भारत पर विचार करते हैं।

17वीं शताब्दी के प्रारंभ में अर्थात 1600 ईस्वी में इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ ने अपने राजदूत सर थॉमस रो को भारत में भेजा सर थॉमस रौ ने तत्कालीन अय्याश मुगल बादशाह जहांगीर से सूरत के समुद्र तट पर एक व्यापारिक कोठी बनाने की अनुमति प्राप्त कर ली या यूँ कहे व्यापार का लाइसेंस प्राप्त कर लिया ।यही कोठी भारत में विदेशी राज्य की नींव का पत्थर सिद्ध हुई।
अंग्रेजों ने अपना कारोबार ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से शुरू किया यह कंपनी केवल व्यावसायिक कंपनी न होकर राजनीतिक संस्था थी जिसकी सोच साम्राज्यवादी थी जिसकी अपनी एक सशक्त सैनिक इकाई भी थी तत्कालीन भारतीय रियासतों के परस्पर संघर्ष देशी राजाओं की फूट का फायदा उठाकर कंपनी की सेना ने भारत के हिस्सों पर धीरे-धीरे कब्जा करना शुरू कर लिया ।18 50 आते पंजाब पर भी अंग्रेजों का यूनियन जैक फहराने लगा।

अंग्रेजो कंपनी राज के अत्याचार के प्रतिरोध स्वरुप भारत की आम प्रजा किसानो स्वाभिमानी छोटे-छोटे जागीरदारों कुछ रियासतों के राजाओं ने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए 10 मई 1857 को प्रथम स्वाधीनता संग्राम का सूत्रपात किया ।संगठनात्मक कौशल के अभाव में कुछ आपसी फूट के कारण यह प्रथम स्वाधीनता संग्राम असफल हो गया लेकिन इसने ब्रिटिश अंग्रेजी शासन की नींव की ईट को हिला दिया। अंग्रेजों ने ब्रिटिश पार्लियामेंट ने गवर्नमेंट इंडिया एक्ट 1858 पास किया जिसके तहत कंपनी से हटकर भारत का शासन ब्रिटिश पायलट के अधीन हो गया। इंग्लैंड की महारानी ने लॉर्ड कैनिंग को अपना दूत भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा।
पूर्व के लेख में हमने बताया था आगरा में उसका दरबार लगा उसने महारानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र पढ़कर सुनाया।

जो इस प्रकार था।

“हमारी प्रबल इच्छा है कि अब हम भारत में शांतिपूर्ण उद्योगों को प्रोत्साहन दें, लोक उपयोगी और नीति के कार्यों को आगे बढ़े और अपनी प्रजा के हित की दृष्टि में कार्य करें उनकी समृद्धि ही हमारी शक्ति होगी उनकी संतुष्टि ही हमारी सुरक्षा होगी उनकी कृतज्ञता ही हमारा पुरस्कार होगा यद्यपि ईसायत में हमारा पूर्ण विश्वास है फिर भी हम अपने विश्वास को अपनी प्रजा पर थोपना नहीं चाहते हम अपनी यह शाही इच्छा घोषित करते हैं कि अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण किसी के प्रति किसी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाएगा इसके विपरीत सबको समान रूप से कानून का निष्पक्ष संरक्षण प्राप्त होगा ।अपने अधीनस्थ समस्त कर्मचारियों को हम चेतावनी देते हैं कि यदि किसी ने हमारी प्रजा के धार्मिक विश्वास और पूजा पद्धति में हस्तक्षेप किया तो उसे हमारी तीव्र कोप का भाजन होना पड़ेगा।”

महारानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र महज एक छलावा था। अंग्रेज शासन के संरक्षण में ईसाई पादरी भारत की प्रजा का धर्मांतरण कर रहे थे। ब्रिटिश पार्लियामेंट के अधीन भारत का शासन आते ही कानून के राज के नाम पर भारत की प्रजा पर अंग्रेजों का अत्याचार शोषण और अधिक बढ़ता गया। इस अंग्रेज नस्ल ने जिसका कुनबा ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड अमेरिका ब्रिटेन अमेरिका कनाड़ा में आज भी फैला हुआ है कानून के राज के नाम पर पूरी दुनिया में बहुत बर्बरता की है मानव अधिकारों का हनन किया है । हाल ही के ताजा कनाडा- भारत कूटनीति विवाद में भी कनाडा का अंग्रेज मूल का प्रधानमंत्री कानून के राज की दुहाई देकर खालिस्तानी आतंकवादियों को सुरक्षा प्रदान कर रहा है।

विषय पर लौटते हैं।

महर्षि दयानंद ने अपने क्रांतिकारी ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश से पूर्व ईश्वर भक्ति को समर्पित ग्रंथ आर्याभिविनय की रचना की थी ,उसमें उन्होंने लिखा था।

हे! ईश्वर अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी शासन ना करें हम कभी पराधीन ना हो

उसे संन्यासी के मन में विदेशी शासन के विरुद्ध कितना आक्रोश क्रोध की ज्वाला धधक रही थी यह इस तथ्य से बोध होता है ईश्वर भक्ति को समर्पित अपनी प्रार्थना पुस्तक में महर्षि दयानंद ने ईश्वर से मोक्ष ही नहीं मांगा अपितु प्रतिदिन विदेशी शासन से मुक्त होने की प्रार्थना की।

गांधी का ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो नारा ‘दयानंद के इसी कथन से प्रेरित था, इस सत्य को कौन ठुकरा सकता है।

सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद का यह कथन इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र का जवाब था या यू कहे ईट का जवाब पत्थर से था। जिसमें दयानंद महाराज कहते हैं, लिखते है

कोई कितना ही करें परंतु जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत मतांतर करके आग्रह से रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा दया और न्याय के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं हो सकता।”

महर्षि दयानंद के इस कथन को महारानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र के साथ जोड़कर हम समझे तो यह अंग्रेजो के कूटनीतिक घोषणा पत्र का एक सन्यासी बागी फकीर द्वारा एक कूटनीतिक उत्तम जवाब था।

यह कथन महर्षि दयानंद ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से 10 वर्ष पूर्व लिखा था।

यदि हम पूर्वापर विचार करें तो कितना प्रखर तेजस्वी था दयानंद का राष्ट्रवाद। उस समय के समकालीन किसी भी सुधारक की राजनीतिक सामाजिक संकल्पना सुधारवादी गतिविधियों में स्वदेशी स्वराज शब्द का कोई प्रयोग हमें नहीं मिलता वही दयानंद के वांगमय को हम पढ़ते हैं तो ऐसे उज्जवल वैदिक राष्ट्रवादी चिंतन की अनेक अवसर स्थलों पर उपलब्धि भरमार हमें मिल जाती है।

गुजरात के ही लाल सरदार वल्लभभाई पटेल ने महर्षि दयानंद के संदर्भ में यह वाक्य कहा था भारत की स्वाधीनता की नींव रखने वाला वास्तव में स्वामी दयानंद ही था

शेष अगले अंक में।

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