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संपादकीय

देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -14 क मालवीय, अंबेडकर और गांधीजी

इस्लाम के खूनी इतिहास को समझ कर भी उसके प्रति लापरवाह रहे गांधीजी लोगों के द्वारा बार-बार यह समझाने पर कि मुस्लिम किस प्रकार उनका अपमान कर रहे हैं ? हत्या कर रहे हैं और महिलाओं के साथ अत्याचार कर रहे हैं , अपनी मान्यताओं से तनिक भी हटने को तैयार नहीं थे। उनके बारे में यह एक वास्तविकता है कि वे बहुत ही जिद्दी स्वभाव के थे। अपनी हर उल्टी-सीधी बात को मनवाना उनके स्वभाव में सम्मिलित था। यदि कोई नहीं मानता था तो वह उसे बाध्य करने के लिए गांधीजी प्रतिक्रिया स्वरूप अनशन करते थे, न मानने वाले उस व्यक्ति से बोलना छोड़ते थे या प्रतिशोध लेने के दृष्टिकोण से उसे कांग्रेस से बाहर निकलने का रास्ता दिखाते थे। विभाजन से 10 दिन पहले की बात है। जब 5 अगस्त को
रावलपिंडी में शरणार्थी शिविर में गांधी जी पहुंचे। गांधी जी को अपने बीच आया देखकर भीड़ में से 2 सिक्ख खड़े हुए। उनका कहना था, “यह शिविर तत्काल पूर्वी पंजाब में स्थानांतरित किया जाए , क्योंकि 15 अगस्त के बाद यहाँ पाकिस्तान का शासन हो जाएगा। पाकिस्तान का शासन, यानि मुस्लिम लीग का शासन । जब ब्रिटिशों के शासन में ही मुसलमानों ने हिंदुओं और सिखों के इतने सारे कत्ल-बलात्कार किए हैं तो जब उनका शासन आ जाएगा, तब हमारा क्या होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ”

गांधी ना तो राजनीतिज्ञ थे और ना ही महात्मा थे

मुसलमानों की हिंसा से त्रस्त उन लोगों के दुख दर्द पर कोई सहानुभूति व्यक्त न करते हुए उल्टे इस्लाम की पैरोकारी करते हुए गांधी जी ने तब मुस्कुराते हुए कहा था कि ‘आप लोगों को 15 अगस्त के बाद के दंगों का भय सता रहा है, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता। मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए था, वह उन्हें मिल चुका है। इसलिए अब वे दंगा करेंगे, ऐसा मुझे तो कतई नहीं लगता। इसके अलावा स्वयं जिन्ना साहब और मुस्लिम लीग के कई नेताओं ने मुझे शांति और सौहार्द का भरोसा दिलाया है। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि पाकिस्तान में हिंदू और सिख सुरक्षित रहेंगे। इसलिए हमें उनके आश्वासन का आदर करना चाहिए। यह शरणार्थी शिविर पूर्वी पंजाब में ले जाने का कोई कारण मुझे समझ नहीं आता। आप लोग यहाँ पर सुरक्षित रहेंगे। अपने मन में से दंगों का भय निकाल दें। यदि मैंने पहले से ही नोआखाली जाने की स्वीकृति नहीं दी होती, तो 15 अगस्त को मैं आपके साथ यहीं पर रहता । इसलिए आप लोग चिंता न करें।” (Mahatma Volume 8, Life of Mohandas K. Gandhi-D.G. Tendulkar)
गांधी जी के इस वक्तव्य से पता चलता है कि वह मुसलमानों की हर बात पर विश्वास करते थे। जो लोग देश को तोड़ने की सौगंध उठा चुके थे, उनकी बातों पर इतना अधिक विश्वास करना किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए बहुत ही खतरनाक होता है। गांधीजी की इस प्रकार की असावधान कार्यशैली को देखकर लगता है कि वह ना तो राजनीतिज्ञ थे और ना ही महात्मा थे। वह राजनीति में राजनीतिज्ञ और महात्मा की एक ऐसी बेमेल सी खिचड़ी थे जिसे न तो कोई समझ पाया और ना ही कोई खा पाया और यदि किसी ने खा लिया तो उसको डायरिया अवश्य हुआ। डायरिया हुए व्यक्ति को यह खिचड़ी आगे रास आए, इसके लिए उसका उपचार ऐसा किया गया कि वह स्वयं की दोगला हो गया।

दीवार पर लिखे सच को भी नहीं पढ़ते थे गांधीजी

मौलाना मौदूदी ने कहा है कि मुस्लिम भी भारत की स्वतंत्रता के उतने ही इच्छुक थे जितने दूसरे लोग, किंतु वह इसको एक साधन, एक पड़ाव मानते थे, मंजिल नहीं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि गांधीजी दीवार पर लिखे सच को भी पढ़ने से इंकार कर देते थे। यही कारण था कि उन्होंने मौलाना मौदूदी के इस चिंतन को किसी भी मुसलमान पर लागू करके नहीं देखा। जबकि सच यही था कि मुसलमानों का प्रत्येक नेता इसी बिंदु पर काम कर रहा था । प्रत्येक मुस्लिम नेता को यह पूर्ण विश्वास था कि वह संपूर्ण भारतवर्ष को एक इस्लामिक राष्ट्र बना सकता है। 

गांधीजी उस भीड़ के सामने पूर्णतया अव्यावहारिक बात कर रहे थे। वे मुस्लिम तुष्टीकरण करते हुए सच से आंखें फेर रहे थे और दीवार पर लिखी इबारत भी उन्हें दिखाई नहीं दे रही थी। यही कारण था कि जब वह इस प्रकार का भाषण वहां पर दे रहे थे तो लोग मुंह बिगाड़कर उनकी बातों को सुन रहे थे । लोगों को उस समय राजनीतिज्ञों की ऐसी बातों पर हैरानगी होती थी। इसके साथ – साथ गांधीजी जैसे नेताओं पर लोगों को क्रोध भी आता था। लोगों के भीतर गुस्सा था, आक्रोश था और साथ ही गांधीजी के प्रति घृणा के भाव भी उनके चेहरे पर पढ़े जा सकते थे। कांग्रेस के दृष्टिकोण से जिस व्यक्ति पर सबसे अधिक विश्वास किया जा सकता था, वह भी लोगों के भरोसे को तोड़ रहा था। लोग गांधीजी के सामने अपने दुख – दर्द को इसलिए सुनाने लगे थे कि वे उनका कोई उपचार बताएंगे , पर जब उन्हें उपचार के स्थान पर उपहास दिखाई दिया तो वे पूर्णतया हताशा की स्थिति में आ चुके थे। अच्छी बात होती कि गांधीजी उस समय उन लोगों के दु:ख दर्द को सुनते और उसका कोई उपचार करते । इसके साथ ही वह मुस्लिम नेतृत्व से भी इस प्रकार के अन्याय और अत्याचार को रोकने की अपील करते। गांधीजी की दोगली और मुस्लिमपरस्ती की बातों को सुनकर लोगों को हताशा तो हुई ही साथ ही वह मुस्लिमों के अत्याचारों के प्रति और भी अधिक भयभीत हो उठे।

सच को सावरकर समझ रहे थे

‘इन द पाथ ऑफ गॉड’ में प्रोफेसर डेनियल पाइप्स लिखते हैं कि यदि मुसलमानों का शासन न होगा तो काफिरों का होगा? काफिरों के लिए शरीयत पवित्र कानून नहीं है। इस स्थिति से निपटने के लिए और राजनीतिक सुविधा के लिए गैर मुस्लिम सरकारें कुछ इस्लामी मान्यताओं को लागू करती हैं। विशेष रूप से व्यक्ति संबंधी। किंतु वह कभी भी शरिया कानून के सामाजिक प्रावधानों को लागू नहीं कर सकतीं। इस स्थिति में इस्लाम अपने अनुयायियों से गैर मुस्लिमों को सत्ता से हटाने की अपेक्षा करता है, यदि आवश्यक हो तो बल द्वारा।’
इस सच्चाई को सावरकर जी तो समझ रहे थे पर यह बात गांधीजी की समझ में नहीं आ रही थी। यही कारण था कि सावरकर जी हिंदुओं को मुस्लिमों की हिंसा से बचाने की युक्तियां खोज रहे थे और उन्हें किसी भी आकस्मिकता के लिए तैयार रहने की प्रेरणा भी दे रहे थे। जबकि गांधीजी हिंदुओं को मेमने बनाते जा रहे थे। वह भेड़ियों के सामने हिंदू रूपी मेमना को अपने हाथों से फेंक रहे थे। हिंदू को मुस्लिम भेड़ियों के सामने अपने हाथों से फेंकते गांधी को देखकर लोगों का आक्रोश फूट पड़ता था। उस समय हिंदू समाज के लोग सचमुच असहाय प्राणी के रूप में अपना जीवन भिन्न प्रकार की बंदिशों के बीच काटने के लिए बाध्य कर दिए गए थे।

मुनीर कमीशन की रिपोर्ट और मुस्लिम सांप्रदायिकता

यदि मुसलमान इस्लामिक राष्ट्र बनाने के नाम पर भारतवर्ष की सत्ता को आजादी के बाद प्राप्त करने में सफल हो जाते तो क्या होता? इस बात को समझने के लिए पाकिस्तान बनने के बाद आई मुनीर कमीशन की रिपोर्ट के इस निष्कर्ष को हमें समझना चाहिए कि मुस्लिम राज्य में गैर मुस्लिम प्रजा जिम्मी बनकर रह सकती है। जिसका अभिप्राय है कि उन्हें मुस्लिम नागरिकों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं होंगे। राज्य की नीति निर्धारण में और जिम्मेदारी के पदों पर नियुक्ति में उनका कोई स्थान नहीं हो सकता। इस्लाम के राजनीतिक सिद्धांतों की समीक्षा की जाए तो यह सिद्धांत उसका मौलिक सिद्धांत है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतवर्ष में जब-जब भी इस्लामिक सत्ता स्थापित हुई तो उसने मुस्लिम मजहब से विपरीत संप्रदायों के लोगों के सारे मौलिक अधिकारों को छीन लिया। इतना ही नहीं, आज भी संपूर्ण भूमंडल पर जितने भर भी मुस्लिम राष्ट्र हैं, उन सब में विप
गैर मुस्लिमों के प्रति ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाया जाता है। उन लोगों को कोई संवैधानिक मौलिक अधिकार इन देशों में प्रदान नहीं किए जाते।
मौदूदी ने स्पष्ट कहा है कि ‘ इस इस्लामी दृष्टिकोण का सबूत यह है कि पैगंबर अथवा खलीफाओं के काल में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जिसमें किसी गैर मुस्लिम को संसद का सदस्य, किसी सूबे का गवर्नर, न्यायाधीश , किसी सरकारी विभाग का निर्देशक अथवा खलीफा के चुनाव में वोट देने का भी अधिकार दिया गया हो। सेनापति अथवा मंत्री बनाया गया हो।’
गांधीजी ने इस्लाम के नेताओं के इस प्रकार के बयानों या सोच पर कभी चिंतन करने का प्रयास नहीं किया। वह देश विभाजन न होने की बात कर रहे थे पर जब देश विभाजन हो गया और 15 जून को कांग्रेस ने उसे अपनी स्वीकृति भी प्रदान कर दी तो उस समय भी गांधीजी भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू मुस्लिम की कोई समस्या नहीं मान रहे थे। पूर्णतया सांप्रदायिकता के आधार पर बांटे गए देश में भी उन्हें मुस्लिम सांप्रदायिकता नहीं दीख रही थी।

डॉक्टर अंबेडकर का व्यावहारिक दृष्टिकोण

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी उस समय जो काम कर रहे थे उससे गांधीजी और नेहरू जी को कुछ शिक्षा लेने की आवश्यकता थी। बाबासाहेब विभाजन के पक्षधर थे पर उनकी एक शर्त थी कि यदि विभाजन सांप्रदायिकता के आधार पर हो रहा है तो जनसंख्या की पूर्ण अगला बदली की जाए। वह एक ऐसा ‘मुकम्मल ऑपरेशन’ चाहते थे, जिसमें आगे के लिए ‘कैंसर’ का कोई रोगाणु शेष न रहने पाए। जबकि गांधी जी बीज रूप में नहीं बल्कि पर्याप्त मात्रा में कैंसर के रोगाणुओं को रोकना चाहते थे।
‘वो पंद्रह दिन’ के लेखक के माध्यम से हमें पता चलता है कि
कांग्रेस के अन्य कई नेताओं, विशेषकर गांधीजी और नेहरू के कारण बाबासाहब का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुआ, इसका उन्हें बहुत दुःख हुआ था । उन्हें बार-बार लगता था कि यदि योजनाबद्ध तरीके से हिंदू-मुस्लिमों की जनसंख्या की अदला-बदली हुई होती, तो लाखों निर्दोषों के प्राण बचाए जा सकते थे। गांधीजी के इस वक्तव्य पर कि ‘भारत में हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई की तरह रहेंगे,’ उन्हें बहुत क्रोध आता था।’
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी के इस प्रकार बार-बार क्रोधित होने का कारण केवल एक ही था कि वह इस्लाम के सच को जानते थे। वे भली प्रकार जानते थे कि मुसलमान किस प्रकार हिंदुस्तान को अपने कब्जे में लेकर यहां के समस्त हिंदू समुदाय को समाप्त करने की योजना पर काम कर रहा है? अब जबकि आजादी की घड़ी निकट आती जा रही है तो मुसलमान अलग देश लेने के लिए इसलिए आतुर है कि वह इस देश में अपने मंसूबे पुरे होते नहीं देख पा रहा है।
उपरोक्त पुस्तक से एक और तथ्य स्पष्ट होता है: – “7 अगस्त का वाकया है। इन दिनों कांग्रेस के अध्यक्ष कृपलानी थे।कराची की एक बड़ी सी हवेली में आचार्य कृपलानी की पत्नी श्रीमती सुचेता कृपलानी उन दिनों बड़ी सक्रियता से कार्य कर रही थीं। अपनी इसी प्रकार की सक्रियता को दिखाते हुए वे लगभग सौ-सवा सौ सिंधी महिलाओं की एक बैठक ले रही थीं। ये सभी सिंधी स्त्रियाँ इतने असुरक्षित वातावरण के बारे में अपनी व्यथा कथा श्रीमती सुचेता कृपलानी को बता रही थीं। उनसे स्पष्ट कर रही थीं कि वह किस प्रकार यहां तक पहुंचने में सफल हुई हैं? उधर श्रीमती सुचेता कृपलानी सिंधी महिलाओं की बातों को सुनने को भी तैयार नहीं थीं।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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