जीविका, उद्योग और ज्ञानविज्ञान
जीविका उत्पन्न करने के लिए सवको कृषि, पशुरक्षा और वाणिज्य का ही सहारा लेना पड़ता है। कृषि, पशुपालन और व्यापार पृथिवी की उपज से ही सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए बिना भौगोलिक ज्ञान के जीविका का प्रश्न हल नहीं हो सकता । वेदों में भौगोलिक शिक्षा इस प्रकार दी गई है-
पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः । पृच्छामि त्वा दृष्णो अभवस्य रेतः पृच्छामि वाचः परमं ध्योन ।।61।।
इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं पक्षो भुवनस्य नाभिः । अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ।।63।। (यजु० 23/61-62 )
अर्थात तुझसे इस पृथिवी का अन्त पूछता हूँ, भुवन का मध्य पूछता हूँ, सेचन करनेवाला अश्व का रेत पूछता है और इस आकाशमयी वाणी को पूछता है। यह बेदी ही पृथिवी की अन्तिम सीमा है, यह यज्ञ ही भुवन का मध्य है, यह सोम ही सेचन करनेवाला अश्व का रेत है और यह वेद ही आकाशमयी वाणी है। इन दोनों मन्त्रों में प्रभोत्तर की रीति से बतला दिया गया है कि यह यज्ञवेदी अर्थात् जहाँ खड़े हो, वही पृथिवी का अन्त है और यही स्थान भुवन का मध्य है। क्योंकि गोल पदार्थ का प्रत्येक बिन्दु (स्थान) ही उसका अन्त होता है और यही उसका मध्य होता है। पृथिवी और भुवन दोनों गोल हैं, इसलिए दोनों का प्रत्येक बिन्दु ही अन्त और मध्य है। इस भूगोलवर्णन के आगे पृथिवी के जल स्थल विभागों का ज्ञान कराने के लिए टापुओं का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि一
वि द्वीपानि पापतन्तिष्ठद्दुच्छ्रुनोने युजन्ते रोदसी ।
प्र धन्वान्यैरत शुभ्रखादयो यदेजथ स्वभानवः । (ऋ० 8/20/4 )
नव भूमीः समुद्रा उच्छिष्टेऽपि श्रिता दिवः ।
आ सूर्यो भात्युच्छिष्टेऽहोरात्रे अपि तन्मयि ।। (अथर्व० 11/7/14 )
एना व्याघ्रं परिषस्वजानाः सिहं हिन्वन्ति महते सौभगाय ।
समुद्रं न सुभुवस्तस्थिवांसं मर्मृज्यन्ते द्वीपिनमप्स्वन्तः ।। (अथर्व०4/8/7)
अर्थात् जब पृथिवी और आकाश में आकर्षण होता है और कंपन होता है, तब कहीं न कहीं या तो नवीन द्वीप उत्पन्न हो जाते हैं या नष्ट हो जाने हैं और समस्त स्थावर दुःख पाते हैं। नई भूमि समुद्र से बाहर निकलती है और सूर्य रातदिन अपना प्रभाव करता है। पृथिवी के स्थलभाग समुद्र से घिरे हुए हैं, जिनमें सिहव्याघ्रादि जन्तु गर्जते हैं। इन मन्त्रों में द्वीपों और टापुओं की उत्पत्ति और उनका समुद्र से घिरा रहना बतलाया गया है। इसके आगे पृथिवी की पैदावार का वर्णन करते हैं। सबसे पहिले जंगलों का वर्णन इस प्रकार है-
अरण्यान्यरण्यान्यसी या प्रेव नश्यसि । कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव चिन्वतोम् ।। 1।।
वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः। आयाटिभिरिव धावयतरण्यानिर्महीयते ।। 2 ।।
उत गाव इवादन्त्युत वेश्मेव दृश्यते । उत्तो अरण्यानिः सायं शकटोरिव सर्जति ।।3॥
गामङ्गष आ ह्वयति दार्वगैषो अपावधीत् । वसत्ररण्यान्यां सायमकुक्षदिति मन्यते ॥4॥
न वा अरण्यानिर्हन्त्यम्यश्चेन्नाभिगच्छति । स्वादोः फलस्य जग्ध्वाय यथाकाम नि पद्यते ॥5॥
आञ्जनर्गान्ध सुरभि बह्वन्नामकृषीवलाम् । प्राहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम् ।।6।।
(ऋ०10/146/1-6)
अर्थात् इस महावन में गौ आदि पशु घास चर रहे हैं। यह वन मकान के सदृश दिखता है। कोई गाड़ियों को भेज रहा है, कोई गायों को बुला रहा है, कोई सूखा काष्ठ काट रहा है और कोई सन्ध्या के समय घबरा रहा है। यदि कोई क्रूर जन्तु न हो, तो यह अरण्य किसी को नहीं मारता । अरण्य में स्वादिष्ट फल खाने को मिलते हैं, यह कस्तूरी और पुष्पों को सुगन्धि देता है और बिना खेती के बहुत सा अन्न देता है। अनेकों प्रकार के पशुओं का उत्पत्ति- स्थान यह अरण्य महाप्रशंसा के योग्य है। इस जङ्गल के अतिरिक्त अनेक प्रकार के यज्ञात्रों का वर्णन इस प्रकार है-
व्रीह्यश्च मे यवाश्व में माषाश्र्व मे तिलाश्च मे मुग्दाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियंगवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ।। (यजु०18/12)
अर्थात् मेरे धान, यव, उड़द, तिल, मूग, चना, काकुन, कोदो, साँवाँ, पसाही, गेहूँ और मसूर आदि सब अन्न यज्ञ से उत्पन्न हुए हैं। इन अन्नों के झागे हरप्रकार के जलों का वर्णन इस प्रकार है-
या आपो दिव्या उत्त वा स्त्रवन्ति खनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः । समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ।। (ऋ०7/49/2)
अर्थात् जो पवित्र जल बरसते हैं, जो खोदने से होते हैं, जो खुद (नदियों द्वारा) उत्पन्न होते हैं और जो समुद्र से बनाये जाते हैं, वे दिव्य जल यहाँ मेरी रक्षा करें।
क्रमशः