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संपादकीय

देश विभाजन और सावरकर, अध्याय 7 ( क ) सावरकर और हिंदू-हित

मुस्लिम लीग की स्थापना से भी पहले से और 1857 की क्रांति के बाद से अंग्रेजों ने मुस्लिम तुष्टिकरण का कार्ड भारत में खेलना आरंभ कर दिया था। जिससे मुसलमान ब्रिटिश सत्ता के चहेते बन चुके थे। मुस्लिम नेतृत्व इस बात से बहुत प्रसन्न था कि उसे ब्रिटिश सरकार से मनचाही सुविधाएं प्राप्त हो रही हैं। उन मनचाही सुविधाओं की प्राप्ति के चलते उनमें से अधिकांश के लिए राष्ट्रहित गौण हो चुका था। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि उनके लिए देशहित बाद में था ,पहले उन्हें अपने कौमी स्वार्थों की चिंता थी। इसका एक कारण यह था कि मुसलमान की सोच उस समय यह थी कि यदि अपनी सत्ता भारतवर्ष पर स्थापित करने में हम सफल नहीं हो पा रहे हैं तो वर्तमान सत्ता से जितना अधिक लाभ लिया जा सकता है उसे लेने में कोई बुराई नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में ब्रिटिश और मुस्लिम लीग के बने इस अघोषित गठबंधन का भारत के हिंदू समाज के लोगों पर और उनके हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। जिससे हिंदू ब्रिटिश सत्ताधारियों के निशाने पर आ गए थे। ब्रिटिश सत्ताधारी लोग हिंदू को अकेला करके पीसना चाहते थे। उधर कांग्रेस थी जिसके नेता अपने आपको हिंदू कहने में भी शर्म की अनुभूति करते थे। ऐसी परिस्थितियों में हिंदूहित की बात करना राष्ट्र की बात करना था। क्योंकि राष्ट्र का प्रतिनिधित्व केवल हिंदू भावना ही कर रही थी। जिसे कुचलने के लिए जहां मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सत्ताधारी लोग एक हो चुके थे, वहीं कांग्रेस का भी मौन समर्थन इस गठबंधन के साथ ही था।
तब एक पत्रक के माध्यम से जुलाई 1938 में फैजाबाद (संयुक्त प्रांत) के मतदाताओं का सावरकर जी ने आह्वान किया था कि वे हिंदू सभा समर्थक डॉ. सुरजितपाल सिंह को ही अपना वोट दें। “फैजाबाद स्थित हिंदू मतदाताओं, राष्ट्रहित दक्ष हिंदू महासभा इच्छुक (उम्मीदवार) को ही-जो हिंदुओं के हित की रक्षा करने के लिए वचनबद्ध हैं- अपना मत देकर अपना कर्तव्य निभाओ । बहुसंख्य हिंदुओं के हित की सुरक्षा रूढ़ होना भारतीय राष्ट्रीय हित की सुरक्षा से सुसंगत ही है। कांग्रेस दर्शिका पर खड़े उम्मीदवार को मत देना अराष्ट्रीय कृत्य है, इस प्रकार एक धारणा जो चाहती है वह अनुचित है। इतना ही नहीं, वह हिंदुओं के लिए विघातक है। प्रत्येक पक्ष को अपना इच्छुक खड़ा करने का नैतिक एवं संविधानात्मक अधिकार है। मुसलमानों को उन्हीं के अधिकार की रक्षार्थ स्वतंत्र मतदार संघ है। ईसाइयों के लिए भी ऐसी सुविधा है। तिस पर हिंदुओं के हित रक्षार्थ जो मतदाता संघ है उसे भूल से सर्वसाधारण ‘मतदाता संघ’ नाम दिया गया है। इससे ऐसी अवस्थाओं में हिंदुओं को ही हिंदू इच्छुक खड़े रहने का अधिकार होकर हिंदुओं की एकमेव संघटित संस्था हिंदू महासभा हिंदू हित रक्षार्थ कर्तव्य करने के लिए यह चुनाव लड़ रही है।” (सावरकर समग्र ,खंड – 3)

हिंदू का देश की माटी से संवाद

सावरकर जी के लिए यह पूर्णतया उचित ही था कि जब कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर मुस्लिमों को लुभाने का काम कर रही थी और मुस्लिम लीग सीधे मुस्लिमों के हितों की राजनीति करते हुए उनसे अलग देश मांगने के नाम पर उनका वोट मांग रही थी, तब हिंदुओं को इस देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए एकजुट कर उनकी एकजुटता को राष्ट्रहित में संगठित करने के प्रयास किए जाते। इसका एक कारण यह भी है कि हिंदू ही इस देश की माटी से अपना आत्मिक जुड़ाव अनुभव करता है, देश के प्रति सर्वस्व समर्पण का भाव भी हिन्दू ही रखता है और हिन्दू ही इसके प्रति आत्मीय संबंध विकसित कर इसके साथ संवाद भी कर सकता है। हिंदू को जागृत करने का अर्थ है देश की माटी के कण कण में संवाद शक्ति को पुनः स्थापित करना। जी हां , वही संवाद शक्ति जिसे अहिंसावादियों की चांटा खाने की नीति शांत करती जा रही थी और मुस्लिम लीग का देश विरोधी आचरण उसे खून के आंसू रोने के लिए बाध्य कर रहा था।
महापुरुष वही होते हैं जो देश की मिट्टी के कण-कण से संवाद स्थापित कर लेते हैं ,उसके साथ समय आने पर रो भी सकते हैं आंसू बहा सकते हैं और समयानुकूल उसके साथ नृत्य भी कर सकते हैं। संवेदनाशून्य लोग मिट्टी के कण-कण से कभी संवाद स्थापित नहीं कर पाते। यहां तक कि देश की माटी का कोई कण स्वयं भी उनके प्रति आकर्षित वैसे ही नहीं होता जैसे कोई बालक किसी पराए, नीरस और संवेदनाशून्य व्यक्ति की ओर आकर्षित नहीं होता।

सावरकर जी की स्पष्टवादिता

सावरकर जी बिना लागलपेट के अपनी बातों को कहने के अभ्यासी थे। अपनी बात को कहते समय वह यह नहीं देखते थे कि आगे मुस्लिम लीग है या कांग्रेस है या फिर ब्रिटिश हुकूमत के लोग हैं? उन्हें जो कुछ कहना होता था उसे वह धड़ल्ले से कहते थे। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। इसी भाव और भावना को लेकर वह विचार करते थे । इसी विचार मंथन की प्रक्रिया में गहरे डूब जाते थे। उनकी कविता जब बोलती थी तो उससे भी राष्ट्र राष्ट्र शब्द ही निकलता था। उनका गद्यमय लेखन जब अपनी तान छेड़ता था तो उससे भी राष्ट्रानुभूति होती थी । उनका वक्तव्य कभी किसी विशेष बिंदु पर आता था तो उसमें भी राष्ट्र शब्द की अनुगूंज सुनाई देती थी। उनका चिंतन, उनका मंथन और उनके हृदय का स्पंदन आदि सभी कुछ राष्ट्र के लिए समर्पित था। उनका इस प्रकार का राष्ट्रवाद कॉन्ग्रेस को पहले दिन से अखरता था। क्योंकि कांग्रेस इस प्रकार के चिंतन को छू तक नहीं गई थी। इसी कारण वह आज तक भी मुस्लिम लीग समर्थक मुस्लिमों और कांग्रेसियों के साथ-साथ कम्युनिस्टों के भी निशाने पर रहते हैं।
कांग्रेसी अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए अभी तक हिंदुओं का मूर्ख बनाते रहे थे। राष्ट्रहित को पीछे धकेल कर स्वहित के लिए वह हिंदुओं का सहयोग तो लेते थे पर हिंदुओं के लिए कुछ करने के नाम पर पीछे हट जाते थे। आर्यराष्ट्र, आर्य भाषा और आर्य जन के चिंतन की तो कांग्रेस से अपेक्षा तक नहीं की जा सकती थी। इन सब बातों को कांग्रेस ने तुच्छ और हीन भावना से देखा । प्रगतिशीलता के नाम पर उसने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना तो स्वीकार किया पर अपने वास्तविक मूल्य को पहचानने तक से इनकार कर दिया। ऐसे व्यक्ति के लिए आप क्या कहेंगे जो अपने पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मार रहा हो और अपने मूल्य को अपने आप ही आंकने या पहचानने से इंकार कर रहा हो ?
ब्रिटिश अधिकारियों या हुकूमत में बैठे लोगों के समक्ष कांग्रेस के नेता हिंदूहित की बात को उठाने में संकोच करते थे। ऐसे संकोच को करते-करते वह मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर उतर आते थे। यदि कभी हिंदूहित के लिए या देश की आम सहमति के लिए कुछ मांगने या कुछ काम करने निकलते भी थे तो हिंदू हित या राष्ट्रहित को पीछे धकेल कर वे मुसलमानों के लिए मांग कर बैठते थे। कांग्रेसियों, मुस्लिमों और अंग्रेजों की इस प्रकार की षड्यंत्रपूर्ण नीति – रणनीति को समझकर ही सावरकर जी ने 1938 में हिंदुओं से सीधे-सीधे और स्पष्ट शब्दों में उपरोक्त अपील की।

हिंदुओं ने सलाह नहीं मानी

हिंदुओं ने परंपरागत ढंग से सावरकर जी की सलाह पर ध्यान न देकर उन लोगों को चुनाव में जिताया जो उनके हितों के विरुद्ध कार्य कर रहे थे। ‘सावरकर समग्र’ के उपरोक्त खंड से हमें पता चलता है कि हिंदू मतदाताओं ने यह सावधानी नहीं बरती और मुसलमानों ने अराष्ट्रीय मुसलमानों को भी जिताया। संपूर्ण देश में मुसलमानों के हित रक्षार्थ दंगे-फसाद हुए, किंतु उसका प्रतिकार करने के लिए एक भी हिंदू आगे नहीं आया। उसी प्रकार हिंदू प्रतिनिधि न चुनने की यह भूल हिंदुओं के लिए प्राण घातक बनी। उदाहरण के लिए पंजाब और बंगाल के मुसलिम मंत्रियों के कृत्य देखिए। वे सरेआम भरे बाजार मुसलमानों का पक्ष लेकर हिंदुओं को तंग करने की धमकियाँ दे रहे हैं। इसके विपरीत संयुक्त प्रदेश (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के कांग्रेसी हिंदू मंत्री हिंदुओं की बात नहीं सुनते। हिंदू सभा, आर्यसमाज, हिंदू संघटन जैसे शब्द भी उन्हें तिरस्करणीय लगते हैं। वे कहते हैं कि आर्यसमाज के कारण ही मुसलमान चिढ़ते हैं। वे शिवाजी, राणा प्रताप तथा अन्य पराक्रमी हिंदू देशभक्तों को भूले-भटके समझते हैं और कहते हैं कि मुल्ला तथा मौलवियों ने मुसलमानी शब्दों का प्रभाव वृद्धिंगत करके हिंदुस्थानी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ये मंत्री नागरी लिपि का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि मुसलमानों को वह अप्रिय है। मुसलमानी भावना का आदर करने के लिए उन्होंने ‘वंदेमातरम्’ राष्ट्रगीत काट-छाँट दिया और हिंदुओं की भावनाओं को कुचल डाला। इस प्रकार हिंदू मतदाताओं द्वारा निर्वाचित कांग्रेसी प्रतिनिधि हिंदू मतदाताओं की भावनाएँ पैरों तले रौंदकर जिन्ना, हक प्रभृतियों को आश्वस्त कर रहे हैं कि वे गोवधबंदी कदापि नहीं करेंगे।”
यदि उस समय का बहुसंख्यक हिंदू समाज सावरकर जी की अपील पर ध्यान देता तो आगे की देश विरोधी और देश विभाजन की परिणति से हम बच सकते थे। जब हम देश विभाजन के लिए दोषी कौन ? – इस विषय पर चिंतन करें तो उस समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हिंदू समाज ने भी सही समय पर नेताओं के परामर्श को स्वीकार न करके देश विभाजन की मुस्लिम लीग की मांग को और अधिक बलवती कर दिया था। यह एक कटु सत्य है कि उस समय का हिंदू नेतृत्व समय से आगे चल रहा था और हिंदू समाज काल की बेड़ियों में जकड़ा पड़ा था।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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