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पर्व – त्यौहार

ऋषि भूमि भारत का पर्व श्रावणी उपाकर्म*।

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लेखक आर्य सागर खारी 🖋️

वैदिक संस्कृति पर्व प्रधान रही है। वैदिक संस्कृति के नियामक ग्रंथ ग्रह्य सूत्र हैं। आपस्तम्ब आश्वलायन, गोभिल, पारस्कर जैसे असंख्य ऋषियों द्वारा समय समय पर वेदानुकूल प्रणीत ग्रह्य सूत्रों ने भारतीय जीवन को परिष्कृत नियमित व्यवस्थित आदर्श बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।अध्यात्म आधिदैव, धर्माचार, कर्तव्य ,यज्ञ कर्मकांडादि विषयक वेद के गहन गंभीर दुर्ह अर्थ को सरल समाजोपयोगी करने के लिए सूत्र साहित्य रचा गया।

भारतीय जीवन के समस्त धार्मिक ,सामाजिक आध्यात्मिक पारिवारिक वैयक्तिक कर्तव्यों का विधान सूत्र साहित्य में मिलता है। वैदिक संस्कार पर्व विशेष पर वेदी निर्माण से लेकर विधि- निषेध विकल्प का गहन सूक्ष्म से व्यापक व्यवस्था विधान ग्रह्य सूत्रों में उपलब्ध है। उलेखनीय होगा महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने गृह सूत्रों का प्रतिनिधि ‘संस्कारविधि’ ग्रंथ रचा है।

भारतीय संस्कृति आचरण प्रधान रही है। ईश्वर की वाणी वेद आदि सत्य शास्त्रों के स्वाध्याय से हमें हमारे कर्तव्यों का बोध होता है तदनुकूल आचरण से हम अपवर्ग के अधिकारी बनते हैं। ब्राह्मण ग्रंथो उपनिषदों से लेकर योगदर्शन में स्वाध्याय के महत्व को विशेष बल देकर स्वाध्याय की स्तुति की गई है । योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने तो स्वाध्याय को क्रियायोग का ही एक अंग बतलाया है। ब्रह्मचर्य से लेकर संन्यास आश्रम तक किसी भी आश्रमी को स्वाध्याय से निवृत्ति छुट प्रदान नहीं की गई है। विद्या के चिन्ह यज्ञोपवीत ,द्रव्य यज्ञादि कार्यो से मुक्त संन्यासी के लिए भी स्वाध्याय करना महर्षि मनु आदि ने अनिवार्य बताया है। फिर पांच कलेशों से पिस रहे हम और आप जैसे साधारण जनों के लिए तो कहना ही क्या?

ब्राह्मण ग्रंथों में स्वाध्याय को यज्ञ बताया गया है इस यज्ञ की वाणी जुहू है ।मन उपभ्रत है चक्षु ध्रुवा है मेधा स्त्रुवा है सत्य इसका अवभ्रथ है ।अलंकारिक तौर पर यह सभी स्वाध्याय यज्ञ के पात्र हैं।

स्वाध्याय की महिमा को जानने वाले आचार्य भूमि भारत के विदेह ऋषियों ने स्वाध्याय के लिए चारों आश्रमों के लिए एक पूरा पर्व ही स्मार्त कर्मों में उल्लेखनीय रूप से समायोजित कर दिया । एक स्वर से जिसे नाम दिया गया श्रावणी उपाकर्म । चारों वेदों की 1000 से अधिक शाखों के अनेकों ऋषि हुए हैं जिन्होंने अपनी-अपनी शाखा वेद को लेकर ग्रह्य सुत्र रचे। दुर्भाग्य है बौद्ध जैन व मुसलमानो के आघात दुष्कृत्य से अर्वाचीन आचार्यों के प्रमाद स्वार्थ से हमारा 90 फ़ीसदी से अधिक वैदिक वांगमय लुप्त हो गया है। फिर भी सुखद तथ्य यह है जो शेष उपलब्ध है वह गर्व करने योग्य, जीवन उपयोगी है।लोक से लेकर पारलौकिक अप्राप्त की प्राप्ति में सहयोगी है ।विचार व मनन करने योग्य है हमें मूल वैदिक सिद्धांतों से जोड़ने में समर्थ है।

आज जितने भी गृह्य सूत्र उपलब्ध है सभी में पठन-पाठन के पर्व (श्रावणी उपाकर्म ) का उल्लेख एक स्वर में मिलता है। कुछ में अल्प तो कुछ में विस्तृत विधान इसका मिलता है।

इस लेख के विस्तार भय से हम केवल पारस्कर व आश्वलायन ग्रह्य सूत्र का विवेचन करेंगे। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने संस्कार विधि में सर्वाधिक प्रमाण पारस्कर ग्रह्यसूत्र के ही दिए हैं।

पारस्कर सूत्रकार के अनुसार श्रावण मास की श्रवण नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा को श्रावणी उपाक्रम (वेदाध्ययन) कर्म का आरंभ किया जाता है।

पारस्कर ग्रह्य सूत्र की दसवीं कण्डिका में ‘ उपकर्म विधि’ शीर्षक से निम्न सूत्रों से इसका विधान इस प्रकार है।

ओषधीनाम् प्रादुर्भावे श्रवणेन श्रावण्याम् पौणर्णमास्या श्रावणस्य पञ्चमी हस्तेन वा 2/10/2 पारस्कर ग्रह्य सुत्र

अर्थात अपामार्ग काँस मूंज आदि औषधीयो के उग जाने पर श्रवन नक्षत्र से युक्त श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन अथवा विकल्प के तौर पर हस्त नक्षत्र से युक्त श्रावण मास की पंचमी को वेद अध्ययन का प्रारंभ करें।
इसी प्रसंग मे सूत्रकार नहीं यह भी विधान किया है यदि ऋग्वेद का अध्ययन आरंभ करें तो आवस्थय अग्नि में ‘पृथिव्यै स्वाहा’ तथा ‘अग्ने स्वाहा’ आदि से घी की आहुति दे। ऐसे ही यजुर्वेद सामवेद, अथर्ववेद वेद आदि के लिए ‘अंतरिक्षाय वायवीय इति ‘ सूर्याय व चन्दमसै स्वाहा आदि से आहुति देने का विधान किया है।
स्पष्ट है कि श्रावणी उपाकर्म का आरंभ विशेष यज्ञ के माध्यम से किया जाता है इसमें चावल तथा जो की आहुति देने का भी विधान है। अलग-अलग ऋषियों ने अलग-अलग मंत्र से आहुति देने का विधान किया है। ऋषि लोग अपनी स्वतंत्र व्यवस्था देते हैं।

जहां पारस्कर सूत्रकार ने ब्रह्मचारियों को भी इस अनुष्ठान में सहभागी बनाया है वही आश्वलायन ऋषि ने केवल इस अनुष्ठान को उस व्यक्ति के लिए करणीय बताया है जिसका दारकर्म हो चुका है अर्थात जो विवाहित है । आश्वलायन ग्रह्यसूत्रकार ने सूत्रकार ने श्रावणी उपाक्रम के सम्बन्ध में ग्रहस्थ पति-पत्नी को संबोधित करते हुए निर्देश दिये है। संभवतः ऋषि क्रांतिदृर्शी होते हैं आश्वलायन ऋषि की मान्यता यह रही होगी ग्रहस्थ को छोड़कर अन्य तीन आश्रमी तो मनोयोग से अध्ययन अध्यापन में जुटे रहते हैं । ग्रहस्थ के दायित्व निर्वहन में लगे हुए गृहस्थी सहज ही स्वाध्याय जैसे महान कर्म में उपेक्षा या प्रमाद प्रकट कर सकते हैं।

श्रावणी उपाकर्म में स्वाध्याय काल की अवधि को लेकर अनेक ऋषियों के भिन्न भिन्न मत है लेकिन हमें ध्यान रखना होगा ऋषियों के इस पर्व अनुष्ठान के क्रिया व सिद्धांत को लेकर कोई भेद नहीं है सामूहिक व्यापक एकरूपता है। आश्वलायन आदि कुछ ऋषि साढे चार मास तो कुछ 6 मास तो कुछ साढे 7 मास का स्वाध्याय काल मानते हैं ।जिस दिन स्वाध्याय कार्य को बंद किया जाता है ,उसे उत्सर्जन या उत्सर्ग या विसर्जन की संज्ञा दी गई। यहां ध्यान रखा होगा जो विशेष होम स्वाध्याय आरंभ करने के अवसर पर किया जाता है वही होमादि कृत्य स्वाध्याय को समाप्त करने के पश्चात किए जाते हैं। ऐसा ऋषियों ने विधान किया है।
उत्सर्ग काल को लेकर हम ऋषियों के विधान को निम्न सूत्रों से समझ सकते हैं प्रथम पारस्कर सूत्रकार के मत का उल्लेख करते हैं जो 12वीं कंडिका में है।

पौषस्य रोहिण्या मध्यमाया वाष्टकायामध्यायानुत् सृजेन्।।

व्याख्या —- पौष मास की रोहिणी नक्षत्र में अथवा मध्य अष्टमी कृष्ण पक्ष की अष्टमी में वेद अध्ययन का त्याग करें आगे ना पढ़कर इस पढ़े हुये को दोहराते रहे पढ़े हुए को याद रखें।

आश्वलायन ऋषि ने अध्ययन की अवधि को 6 महीने माना है।

तथोत्सरर्गे 13 सुत्र आश्वलायन ग्रह्य सुत्र
तीसरा अध्याय

षण्मासानधीयीत
14 आश्वलायन ग्रह्य सुत्र

व्याख्या— जिस प्रकार स्वाध्याय का आरंभ किया जाता है उसी प्रकार उत्सर्जन किया जाता। 6 महीने तक अध्ययन करना चाहिए।

आश्वलायन ऋषि ने तो इसी प्रसंग में गृहस्थों को यह निर्देश दिया है ब्रह्मचारी के समान आचरण करना चाहिए ।मद्य मांस स्त्रीसंसर्ग से विरत चारपाई आदि पर भी शयन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार स्वाध्याय करने वाले का जीवन होना चाहिए।

स्वाध्याय करने वाले व्यक्ति के वेद अध्ययन उत्सर्जन के पश्चात सभी ऋषियों ने एक मत से ऋषि तर्पण करने को निर्देश किया है ।ऋषि तर्पण का अर्थ यह है स्वाध्याय करने वाला अपने जीवित गुरु आचार्य जनों को तन मन धन भोजन वस्त्र आदि से उनकी सेवा कर उन्हें तृप्त करें।

कितनी सुंदर पावन थी यह ऋषि भूमि । तप से सेवित थी यह आर्यों की आदि भूमि। आर्यो का आदिदेश आर्यवर्त । जिस देश के संन्यासी वानप्रस्थी ब्रह्मचारी वर्ष भर ज्ञान की आराधना में रत रहते हो। जिस देश के गृहस्थी वर्ष में 6 महीने स्वाध्याय करते वह देश क्यों विश्व गुरु नहीं बन सकता था क्यों हो वह सब विद्यां कला कौशल वैभव समृद्धि आदि नैसर्गिक स्रोत क्योंकर नही हो सकता था।

आज हमने अपनी अविद्या से प्रमाद के कारण अपनी परंपरा को विकृत कर दिया है आज हम वैदिक स्वरूप में किसी भी पर्व को नहीं मना रहे हैं रही सही कसर पाखंडी पंडितो कथावाचको ज्योतिषियों ने पूरी कर दी है जो मनमानी व्याख्या करते हैं पर्वो आदि की। क्या अनपढ़ पढ़ी-लिखी मूर्ख जनता को मुहूर्त के पचड़े में पीस देते हैं।

हमारे अनेक वैदिक पर्व अनुष्ठानों के स्वरूप में विकृति आई है श्रावणी उपकर्म भी इससे अछूता नहीं है। आज यह पर्व भाई-बहन के त्यौहार के रूप में मनाया जा रहा है लेकिन हमें मीमांसा करनी होगी वैदिक संस्कृति में जहां प्रत्येक व्यक्ति का जीवन आदर्श संयमित पवित्र था वहां भाई द्वारा बहन की रक्षा का तो प्रश्न उठता ही नहीं है। जहां गांव की बेटी पूरे गांव की बेटी मानी जाती रही है । वहां बहन अपनी रक्षा के लिए भाई की कलाई पर राखी बांधे यह बुद्धि से स्वीकार्य नही है।

मूल रूप से यह पर्व पढ़ने पढ़ने का पर्व है आत्मिक मानसिक तेजस्विता का यह पर्व है। सभी आचार्य अध्येता संन्यासी गृहस्थी बड़े उत्साह से इसे मनाते थे। अनेक महीने तक यह बौद्धिक उत्सव चलता था। आचार्य कुलों की शोभा देखते ही बनती थी।
आज भी हम देखते हैं उत्तर भारत के ग्रामीण लोक जीवन में इस दिन गेरू रंग से प्रतीकात्मक मानव आकृतियां मनाई जाती हैं जो ऋषि तर्पण का ही विकृत रूप है उन्हें मिष्ठान पकवान खीर आदि बनाकर उन्हें भोग लगाया जाता है। कभी जीवित ऋषि मुनियों का भोजन आदि से उनका तर्पण किया जाता था आज प्रतीकात्मक तौर पर चित्र बनाकर ‘सलूने’ पुजने के नाम पर हम कर रहे अब तो यह विकृति भी लुप्त हो रही है।

प्रत्येक भाई को आज की देश काल परिस्थिति में गिरते पारिवारिक आदर्श सामाजिक मूल्य के इस वातावरण में अपनी बहन की रक्षा में उद्धत रहना चाहिए लेकिन हमें मूल पर्व को तलांजलि नहीं देनी चाहिए ऋषियों का हमारे ऊपर ऋण है उस ऋण को हम तब ही चुका सकते हैं जब हम उनके शास्त्रों में उनके द्वारा बताए गए निर्देश का अक्षरशः से पालन करेंगे । ज्ञान के समान पवित्र करने वाली कोई वस्तु नहीं है ज्ञान के समान रक्षा करने वाली दुनिया में कोई वस्तु नहीं है वेद आदि शास्त्र अतिशय ज्ञान बल आदि का खजाना है।सभी सुधि अध्यताओं विचारशील जनों से अनुरोध है इस श्रावणी उपाकर्म रूपी वैदिक पर्व को वैदिक रूप से ही मनाना चाहिए जैसा ग्रह्य सूत्रों में इसके मनाने का विधान है ।

आपका सेवक

आर्य सागर खारी 🖋️

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