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विशेष संपादकीय

चीन: एक धोखेबाज पड़ोसी

चीन इस समय बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहा है। वहीं उसके एक प्रमुख प्रांत में लोकतंत्र की मांग पुन: जोर पकड़ती जा रही है। चीन की कम्युनिस्ट विचारधारा देश के हर व्यक्ति की समस्या का समाधान करने में असफल सिद्घ हो चुकी है। मुझे याद आता है कि रूस के राष्ट्रपति ख्रुश्चेव एक बार साइबेरिया की यात्रा पर थे। उन्होंने नब्बे वर्ष के बुड्ढे से अपनी गाड़ी से उतरकर पूछा-बाबा, आप समाजवादी क्रांति के बारे में क्या विचार रखते हैं? उस बुड्ढे ने कहा-मुझे समाजवादी क्रांति के बारे में तो कुछ पता नही, परंतु मैं इतना अवश्य जानता हूं कि क्रांति से पहले मेरे पास दो जोड़ी जूते, दो जोड़ी कोट, दो जोड़ी पेंट, दो जोड़ी टोपी और दो बेंत होते थे, जो आज घटकर एक एक जोड़ी रह गये हैं। इस पर रूस के राष्ट्रपति ने बुड्ढे से कहा-दादा, आपको मालूम है कि भारत, चीन, जापान, बर्मा आदि देशों में तो लोगों के पास इतना भी नहीं है। बुड्ढे ने बड़ी बेबाकी से ख्रुश्चेव को निरूत्तर करते हुए कहा-तब तो वहां क्रांति हमसे भी पहले हो गयी होगी। सचमुच खु्रश्चेव के पास बुड्ढे की इस बेबाकी का कोई जवाब नहीं था।
चीन की स्थिति भी यही है। लोगों की समस्याओं का समाधान साम्यवादी व्यवस्था चीन में दे नहीं पायी है। ऐसे में लोकतंत्र की मांग का रह रहकर उठना कोई अप्रत्याशित बात नहीं है। चीन अपनी इन्हीं आंतरिक विपरीत परिस्थितियों से देश की जनता का ध्यान हटाने के लिए अपने पड़ोसियों को धमकाने की कोशिश कर रहा है। उसका भारत, जापान, ताइवान, रूस आदि अपने लगभग सभी पड़ोसियों से सीमा विवाद है। अब उसने भारत को 1962 की याद दिलाते हुए कहा कि भारत पचास वर्ष पूर्व के युद्घ को याद रखे। हमारे देश की ओर से रक्षामंत्री के रूप में प्रणव मुखर्जी ने एक बार चीन की धरती पर खड़े होकर ही चीन को यह बता दिया था कि आज का भारत 1962 का भारत नही है।
चीन की धमकी को हम दो रूपों में देखें एक तो इसे यूं कहा जा सकता है कि चीन भारत को धमका रहा है और एक यूं कहा जा सकता है कि भारत चीन से धमक रहा है। पहली बाली बात पर विचार करें तो चीन का भारत को धमकाना नितांत हमारी सैनिक तैयारियों और हमारे सैनिकों के मनोबल पर निर्भर करता है। अब यदि सैनिकों के मनोबल की बात करें तो हमारे सैनिकों ने 1962 में भी अपने ऊंचे मनोबल और अनुकरणीय राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया था। तब चीन के नेता चाऊ एन लाई ने देश के साथ मित्रघात किया था और वह पांच अक्टूबर 1962 को भारत की यात्रा पर आकर हिंदी चीनी भाई भाई का नाटक करके गये थे। भारत का नेतृत्व जब इस नाटक के मंचन में मदहोश था, तभी चीन ने अपने नाटक मंचन के महज पंद्रह दिन बाद ही भारत पर जबर्दस्त हमला कर दिया। भारत की बीस हजार की सेना से लडऩे के लिए तब चीन की 80 हजार की सेना आयी थी। हमारे पास तब हथियार नहीं थे और चीन की सेना के पास उस समय के आधुनिकतम हथियार थे। फिर भी भारत के रणबांकुरों ने चीन के 722 सैनिकों को मौत की नींद सुला दिया था और 1697 को गंभीर रूप से घायल कर दिया था। भारत के सैनिकों ने स्पष्ट कर दिया था कि वह भूखे रह सकते हैं, मर सकते हैं पर अपनी जमीन का एक इंच का टुकड़ा भी दुश्मन को नहीं दे सकते। भारत के सैनिकों का यह उच्च राष्ट्रभक्ति का भाव विश्व के लिए अनुकरणीय बन गया। चीन को भी लगा कि निहत्थे राष्ट्रभक्तों से लडऩा भी कितना महंगा पड़ सकता है। उसने बाद में पाकिस्तान की पीठ पर बैठकर 1965 और 1971 में पुन: भारत के जवानों की देशभक्ति का जज्वा देख लिया है। फिर भी उसने भारत की जवानी और जवानों के जोश को ललकारा है तो देश मनोवैज्ञानिक रूप से तथा हमारे बहादुर सैनिक प्रत्येक प्रकार से इस चुनौती का सामना करने को तैयार हैं। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां रोमिला थापर जैसी कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने देश के इतिहास की मिटटी पीट दी है, अन्यथा इस देश के विषय में यह सत्य है कि ये देश सचमुच वीर जवानों का देश है। बप्पारावल का राज्य चित्तौड़ से लेकर अफगानिस्तान तक था। रावलपिण्डी उसी बप्पारावल की यशकीर्ति का गुणगान कर रही है। इसी प्रकार महाराजा रणजीत सिंह भी अफगानिस्तान तक शासन करते थे। लेकिन यहां इतिहास की ऐसी उल्टी परंपरा चलायी गयी हैं कि दिल्ली से मध्य प्रदेश तक और बिहार के कुछ क्षेत्रों से लेकर गुजरात के कुछ क्षेत्रों तक शासन करने वाले अकबर को यहां महान कहा जाता है और देश की शान को बढ़ाने वाले देशभक्त यहां उपेक्षित किये जाते हैं। अब यदि चीन हमको धमका रहा है तो हमारे बारे में चीन समझ ले कि हमारे पूर्वज कौन थे और हम कौन हैं? यहां फिर बप्पा रावल, महाराजा रणजीत सिंह, राणाप्रताप, शिवा, चंद्रशेखर, सुभाष पैदा होने में देर नहीं लगती है। दूसरी बात ये है कि भारत चीन से धमक रहा है तो ये बात हम इसलिए उठा रहे हैं कि हमारे नेताओं ने रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों को सम्मानित करके हमें इस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। भारत नही धमकता भारत तो अपने सैनिकों की आंखों में आंख डालकर सीमा की चौकसी करता है और जागता रहता है। धमकते हमारे नेता हैं जो जागते हुए भारत की बात को कहने में हिचकते हैं। डॉ. मनमोहन सिंह इस समय भारत के नेता हैं, पर वह अपनी बात को सही ढंग से कह नहीं पा रहे हैं, इसलिए चीन हमारे नेतृत्व की इस कमजोरी का लाभ उठाना चाहता है। हालांकि चीन ये भी जानता है कि भारत के पास प्रणव आज भी हैं। लेकिन फिर भी वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरे भारत को फंसाकर रखने में ही अपना भला देख रहा है। पर चीन को हमारे आंतरिक मतभेदों के बावजूद यह समझ लेना चाहिए कि भारत अब विश्व की सबसे विशाल और अनुशासित सेना रखने वाले देशों में शामिल है। उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और एक मजबूत सैनिक शक्ति के रूप में अपनी धाक जमा चुका है। वो दिन अब लद चुके हैं कि जब भारत के दुश्मन परमाणु बम बनाते थे तो भारत उनके जवाब में रसगुल्ले बनाया करता था। अहिंसावाद की गलत व्याख्या को हमने नेहरू के साथ ही दफन कर दिया था और आज हम एक हाथ में शस्त्र तो एक हाथ में शास्त्र लेकर चलने की अपनी पुरानी नीति को ही अपने लिए उचित मानने लगे हैं। हमारे राष्ट्रीय उत्थान और चीन के प्रति बदलते दृष्टिकोण का यही कारण है। 1962 में तो देश का नेता भी चीन से धोखा खा गया था पर अब तो एक बच्चा भी धोखा नहीं खा सकता।

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