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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति : गतांक से आगे….

इन मंत्रों के द्वारा इस रहस्यपूर्ण कृत्य का वर्णन करके आगे वेद उपदेश करते हैं कि जब पति पत्नी गर्भस्थापन से निवृत्त हो जाय, तब वस्त्रों को धो डालें और दोनों स्नान करके गार्हपत्याग्नि में हवन करें तथा पति विनम्र भाव से परमेश्वर की इस प्रकार प्रार्थना करे कि

विष्णुर्योनि कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिशतु । आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते॥1॥
गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि सरस्वति । गर्भं ते अश्वनौ देवावा धत्तां पुष्करस्त्रजा॥2॥
हिरण्ययी अरणी यं निर्मन्थतो अश्विना । तं ते गर्भ हवामहे दशमे मासि सूतवे॥3॥ (ऋ०10/184)

अर्थात् हे वधु ! विष्णु तेरे गर्भस्थान को गर्भ ग्रहण करने के योग्य करे, स्वष्टा तेरे गर्भ के आकारों को स्पष्ट करे, प्रजापति जीवनी शक्ति का संचार करे और धाता गर्भ की पुष्टि करे। चन्द्रशक्ति गर्भ को धारण करे, सरस्वती गर्भ को धारण करे और आकाशपुत्र अश्विनी देवता गर्भ का पोषण करें। अश्विनदेवता जिस विद्युत् प्रेरणा से गर्भ को बाहर लाते हैं, उस शक्ति द्वारा दशवें महीने में गर्भ को बाहर लाने के लिए हम उनका आवाहन करते हैं । इस प्रकार से गर्भाधानसंस्कार के बाद प्रातः काल गांव घर के वृद्ध पुरुष वधू का मुख देखते हैं और आशीर्वाद देते हैं। वेद उपदेश करते हैं कि-

ये पितरो वधूदर्शा इमं वहतुमागमन् ।
ते अस्यै वध्वै संपत्नयै प्रजावच्छर्म यच्छन्तु ।। (अथर्व०14/2/73)

अर्थात् वधू के देखनेवाले पितर जो इस विवाह में आये हैं, वे सब पतिसहित वधू को उत्तम प्रजा के लिए आशीर्वाद दें। इस प्रकार से यह वैदिक विवाह और गर्भाधान समाप्त होता है, किन्तु कभी कभी दुर्भाग्य से पतिसंयोग के पूर्व ही कन्या विधवा हो जाती है। ऐसे आपत्काल के लिये वेद उपदेश देते हैं कि-

ग्राह्या गृहाः सं सृज्यन्ते स्त्रिया यन्त्रियते पतिः ।
ब्रह्मवै विद्वानेष्यो३ यः कव्यादं निरादधत् । (अथर्व० 12/2/39)

या पूर्व पति वित्त्वाथान्यं विन्दतेऽपरम् ।
पञ्चोदनं च तावजं ददातो न वि योषतः॥27॥
समालोको भवति पुनर्भुवापरः पतिः ।
यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति॥28॥ (अथर्व० 9/5/27-28)

अर्थात् जब स्त्रियों के पति मर जाते हैं, तब घर उजड़ जाते हैं. इसलिए कन्या का पति सदैव वेदवेत्ता ही ढूँढना चाहिये, जिसने कभी मांस न खाया हो। जो स्त्री पहिले पति को पाकर दूसरे पति को प्राप्त होती है, वह पञ्चौदन के द्वारा उससे जुदा नहीं होती। दूसरा पति विधवा स्त्री के साथ पञ्चौदन-यज्ञ द्वारा विवाह करके अपनी जाति में समानता से स्थान पाता है। यहाँ तक हमने वेदमन्त्रों से विवाह और गर्भाधानसंस्कार का वर्णन किया ।
अब आगे पुंसवनसंस्कार से सम्बन्ध रखनेवाले मन्त्रों को लिखते हैं। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भस्थ को
पुत्र बनाना है। यह कार्य एक औषधि के द्वारा किया जाता है। वेद में लिखा है कि-
शमीमश्वत्थ आरूढ़स्तन पुंसुवनं कृतम् ।
तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत्स्त्रीष्वा भरामसि॥1॥
पुंसि वै रेतो भवति तत्स्त्रियामनु षिच्यते।
तदै पुत्रस्य वेदनं तत्प्रजापतिरब्रवीत् ॥2॥ (अथर्व० 6/11/1-2)

अर्थात् जिस शमी वृक्ष पर अश्वत्थ वृक्ष उगा हो, उसकी जड़ को गर्भाधान के दिन से दो तीन मास तक स्त्री को देने से पुत्र की प्राप्ति होती है जो वीर्य स्त्री में डाला जाता है, यह सत्व (पुत्र) को प्राप्त हो जाता है और पुत्र की प्राप्ति होती है, यह बात प्रजापति परमात्मा ने कही है। इस पुरावनसंस्कार के आगे सीमन्तोत्रयनसंस्कार होता है। जब गर्म चार पांच महीने का हो जाता है तब मस्तिष्क उन्नत होता है और बुद्धि जागृत होती है। इसी को सीमन्त- उन्नयन अर्थात् शिर की उपति कहते हैं।
क्रमशः

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