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संपादकीय

विश्व जनसंख्या दिवस 11 जुलाई पर विशेष: विश्व नेतृत्व और विश्व जनसंख्या दिवस का पाखण्ड

वर्ष भर में ऐसे बहुत से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय दिवस आते हैं जिनकी पहचान मानवता के हित में किसी विशेष उद्देश्य को लेकर की जाती है। जैसे नेत्रदान दिवस, डॉक्टर्स डे, फादर्स डे, मदर्स डे ,श्रम दिवस, पर्यावरण दिवस इत्यादि। इसी प्रकार वर्ष में हम एक बार विश्व जनसंख्या दिवस भी मनाते हैं। इन दिवसों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वर्ष भर में हम इनको केवल एक दिन याद करने की औपचारिकता का निर्वाह करते हैं और फिर अपनी नित्य प्रति की जीवन चर्या में लग जाते हैं। यही कारण है कि चाहे राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचो चाहे अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचो, कहीं पर भी हम किसी भी अभियान को लेकर सफल होते हुए दिखाई नहीं देते।
जहां तक विश्व जनसंख्या दिवस की बात है तो इसकी घोषणा वर्ष 1989 में “यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम” की प्रशासनिक परिषद द्वारा की गई थी। तभी से हम प्रतिवर्ष विश्व जनसंख्या दिवस के रूप में 11 जुलाई को मनाते आ रहे हैं।
इस दिवस का विशेष उद्देश्य यह है कि संपूर्ण भूमंडल पर जितने आर्थिक संसाधन हैं ,उन पर अलग-अलग देशों ने अपना अपना नियंत्रण कर रखा है। वैश्विक जनसंख्या के दृष्टिकोण से कई देश ऐसे हैं जिनके पास जनसंख्या घनत्व अधिक है पर उनके पास अपनी जनसंख्या के रक्षण पोषण के आर्थिक और प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं । ऐसी स्थिति में कई देशों में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति आ चुकी है। विश्व समुदाय के जिम्मेदार लोग अर्थात नेता इस बात के प्रति गंभीर हुए कि भूमंडल पर जितने भी लोग हैं उन सबके लिए प्रत्येक प्रकार के विकास के अवसर उपलब्ध हों और यह तभी संभव है जब जनसंख्या को नियंत्रित किया जाए।
वैश्विक नेताओं का यह विचार उचित और उत्तम था। परंतु इस दिशा में वही हुआ जो हर अभियान के साथ होता है। कुछ लोगों के पूर्वाग्रह आड़े आए और उन्होंने जनसंख्या बढ़ाने को अपना मजहबी अधिकार बनाने पर बल दिया। भारतवर्ष में ऐसे लोगों के समक्ष शासन में बैठे लोग झुके और तुष्टिकरण की नीति अपनाते हुए उन्होंने देश के बहुसंख्यक वर्ग से तो यह अपेक्षा की कि वह जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में महत्वपूर्ण सहयोग दे पर जिस मजहब ने अधिक बच्चे पैदा करना अपना नैसर्गिक अधिकार माना, उसकी ओर से आंखें मूंद ली गईं। कुल मिलाकर यही स्थिति वैश्विक स्तर पर भी आई। यही कारण रहा कि 1989 में जिस संकल्प के साथ वैश्विक जनसंख्या दिवस की घोषणा की गई थी उसमें शिथिलता आती गई। हमारे इस मत की पुष्टि इस बात से होती है कि जिस समय अभियान को चलाने का संकल्प लिया गया था उस समय विश्व की जनसंख्या 5 बिलियन थी जो आज बढ़कर 8 बिलियन से आगे पहुंच गई है।
इसका अभिप्राय है कि इस अभियान को अंतिम परिणति तक पहुंचाने वाले लोगों की ना तो सोच ठीक थी और ना ही दिशा ठीक थी।
जिन लोगों ने जनसंख्या नियंत्रण करने का संकल्प व्यक्त किया उन्होंने न केवल किसी वर्ग विशेष या संप्रदाय विशेष से समझौता किया बल्कि उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण के लिए जिन उपायों को अपनाने पर बल दिया वह भी हिंसा और पापाचरण को बढ़ावा देने वाले उपाय थे। जैसे इन लोगों ने युवा पीढ़ी को संयमित जीवन जीने की प्रेरणा नहीं दी बल्कि इसके विपरीत जाकर इन्होंने गर्भनिरोधक दवाइयां या गर्भपात को वैधानिकता प्रदान कर दी। भारत के ऋषि मुनियों ने संतुलित संयमित जीवन जीने और गृहस्थ में रहकर भी ब्रह्मचर्य का पालन करने की जिस पवित्र भावना के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण का संकेत और संदेश प्राचीन काल में दिया था और उसके लिए सुव्यवस्थित व्यवस्था भी बनाई थी उसकी ओर विश्व की तो बात छोड़िए भारत ने भी देखना उचित नहीं माना। जनसंख्या नियंत्रण के गर्भनिरोधक या गर्भपात के उपाय को वैधानिकता प्रदान करने के उपरांत डॉक्टर्स की चांदी कटी। देखते ही देखते अनेक डॉक्टर करोड़पति से अरबपति बन गए। कुछ देर पश्चात जिम्मेदार लोगों की आंखें खुली और देखा कि युवा दंपति लिंग के आधार पर गर्भपात करा रहे हैं तो उन्होंने गर्भपात पर कानूनी पहरा बैठाने का प्रयास किया। परंतु इसके उपरांत भी सब कुछ चुपचाप जारी है। हम सभी जानते हैं कि विश्व जनसंख्या दिवस को एक अभियान का संकेत मानकर उसे वैश्विक स्तर पर मान्यता देने का सुझाव डॉक्टर के. सी. जकारिया की ओर से आया था। इस दिन गरीबी, बच्चे का स्वास्थ्य, लैंगिक समानता, परिवार नियोजन, मानव अधिकार, गर्भनिरोधक दवाइयों के प्रयोग आदि पर चर्चा की जाती है।
यदि भारत में जनसंख्या नियंत्रण को बिना पक्षपात के लागू कराया जाता और लोगों को समझाया जाता, इसके साथ ही साथ लोगों की उत्सुकता और जिज्ञासा भी इस पर समान रूप से हर वर्ग संप्रदाय की ओर से आती तो आज जिस प्रकार भारत ने जनसंख्या के क्षेत्र में चीन को पछाड़ा है वह स्थिति ना आई होती। यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब देश की कुल जनसंख्या के आधे हिस्से के पास ही विकास के समान अवसर उपलब्ध होने की स्थिति दिखाई देती है। शेष आधी आबादी को हमने कीड़े मकोड़ों की भांति समझ रखा है। कहने का अभिप्राय है कि देश की आधी जनसंख्या धरती पर आ तो गई पर वह केवल और केवल भीड़ बढ़ाने के नाम पर धरती पर रेंग रही है। उसे हम विकास की मुख्यधारा में जोड़ नहीं पाए हैं । वह नहीं जानती कि आज 21वीं सदी चल रही है जा 14 वीं सदी का बर्बर मानव अपनी निर्दयता और अत्याचारों के माध्यम से उनके अधिकारों का शोषण कर रहा है?
भारत में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति की अब हमें प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि यह घोषित करना चाहिए कि हमारे देश में जनसंख्या विस्फोट हो चुका है। हम चाहे विकास प्रगति और उन्नति की कितनी डींगें क्यों न मार लें पर हम अपने देश के लोगों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय देने में असफल रहे हैं। यदि सरकारी स्तर पर यह माना जा रहा है कि हम प्रत्येक व्यक्ति को दो जून की रोटी उपलब्ध कराने के लिए उसे राशन मुफ्त दे रहे हैं तो यह पूर्णतया गलत है , क्योंकि रोटी की उपलब्धता व्यक्ति की मौलिक आवश्यकता नहीं है। यद्यपि आजकल अनेक लोगों ने रोटी को हो व्यक्ति की प्राथमिक और मौलिक आवश्यकता घोषित किया हुआ है, पर सच यह है कि रोटी से भी पहले व्यक्ति का अज्ञान मिटाना उसकी मौलिक आवश्यकता है। यदि अज्ञान मिट जाएगा तो किसी को किसी के अधिकारों का शोषण करने या सोचने का न तो समय मिलेगा और ना ही व्यक्ति भुखमरी और लाचारी की स्थिति से गुजरेगा। यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जहां ज्ञान है वहां रोटी का जुगाड़ अपने आप हो जाता है।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि 1950 में विश्व आबादी ढाई करोड़ थी जिसमें 3 गुने से अधिक इजाफा होकर अब यह 800 करोड़ तक पहुंच गई है। यदि यही स्थिति रही तो अगले 20 वर्ष में हम विश्व में 1000 करोड़ की जनसंख्या को देखेंगे। कहने का अभिप्राय है कि 1989 में जिस संकल्प को लेकर विश्व नेतृत्व आगे बढ़ा था की जनसंख्या को नियंत्रित करेंगे वह उन सब के रहते हुए मात्र 50 वर्ष के काल में ही बढ़कर दोगुनी हो जाएगी। इसका अभिप्राय है कि विश्व नेतृत्व की पोल विश्व जनसंख्या को लेकर खुल चुकी है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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