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कविता

कुंडलिया, भाग – 6 मैं बोला बदरी बता ! ..

कुंडलिया, भाग – 6

मैं बोला बदरी बता ! ….

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ज्योति जिसकी बुझ गई, हुआ वही गतिहीन।
बुद्धि पर पत्थर पड़े तो, कहलावे मतिहीन।।
कहलावे मतिहीन, साथ ना कोई देता।
दुर्दिनों में स्वबंधु भी , छोड़ अकेला देता।।
विचारपूर्वक काम करे जो मानव वही कहाता।
मधुरस अमृत की वर्षा में, नियम से है नहाता।।

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मैं बोला बदरी बता ! क्यों खोती निज भार।
बरस बरस होती खतम, कैसा ये ब्यौहार।।
कैसा ये ब्यौहार ? बात कुछ समझ ना आती।
ये बणज करने को किसने भेजी तुझपे पाती।।
बदरी बोली – मैं बतलाती, बात नहीं कुछ खास।
धर्म को मैंने ओढ़ लिया, यही जीवन की आस।।

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मलमल में है मल छुपा, मनवा करे पुकार।
नित्य नियम से धोए जा तू होगा बेड़ा पार।।
होगा बेड़ा पार , अमरपद का हो अधिकारी।
मुदित हंस होके मन का मारेगा किलकारी।।
अमृत के प्याले को पी, जिस पर मस्ती छाई।
बंधन को तोड़ा उसने, मंजिल प्यारी पाई।।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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