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कविता

मुहब्बत की नकली दुकान

🇮🇳मुहब्बत की नकली दूकान 🇮🇳
घर में खाता घर में पीता घर में सोता है।
घर वालों पर ही भोंके जब बाहर होता है।
अनुचित अनपेक्षित अभद्र अपशिष्ट परोस रहा,
जब से राजनीति में एक गधे को जोता है।
तिलक जनेऊ धोती कुर्ता धारे पाखण्डी,
दाढ़ी बढ़ा कटा लेता कटवे का पोता है।
निन्दा करता लोकतंत्र की बाहर जा जाकर,
ज्ञानी बनता लेकिन केवल थूक बिलोता है।
मन्दबुद्धि बालक बचकानी हैं हरकत सारी,
आँख मारकर संसद में कुर्सी पर सोता है।
खुद को ही मालूम नहीं वह क्या क्या बक जाता,
पता नहीं चलता पागल हँसता या रोता है।
खोल मुहब्बत की दूकानें नफरत बेच रहा,
नफरत ही काटेगा जो भी नफरत बोता है।
भारत माँ सी पुण्यवान भू को गाली देता,
कल देखोगे रो रोकर पापों को धोता है।
करता है विरोध केवल विरोध की खातिर ही,
गप्पू पप्पू ने अपने विनाश को न्योता है।
देश कटे या धर्म कटे या संस्कृति कट जाए,
कट जायेगी जीभ उंगलियां अन्ध सरोता है।
उसको कैसे कहूं मनीषी मित्रो बतलाओ,
रटा रटाया बोल रहा वह रट्टू तोता है।
रचनाकार
प्रोफेसर (डॉ.)सारस्वत मोहन मनीषी

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