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विश्वगुरू के रूप में भारत

भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 49 देशभक्त राजर्षि चाणक्य

देशभक्त राजर्षि चाणक्य

संसार के एक बहुत बड़े भूभाग के लोगों पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार कर करके सिकंदर एक विशाल साम्राज्य का स्वामी बना। जिस समय वह संसार से विदा ले रहा था उस समय उसके साम्राज्य में इतिहासकारों की मान्यताओं के अनुसार मैसीडोनिया,सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, आज का अफ़ग़ानिस्तान एवं उत्तर पश्चिमी भारत के कुछ भाग सम्मिलित थे। सिकन्दर के देहान्त के पश्चात सेल्युकस ने इस विशाल साम्राज्य की देखभाल करने का प्रयास किया, परंतु वह अपने इस प्रयास में सफल नहीं हो सका। क्योंकि उसके साम्राज्य की चूलों को हिलाने के लिए उस समय मां भारती की कोख से जन्मे एक ऐसे वीर सपूत, रणनीतिकार ,देशभक्त क्रांतिकारी राजर्षि चाणक्य का आविर्भाव हो चुका था जिसने चंद्रगुप्त मौर्य के साथ मिलकर सिकंदर के पापों से जन्मे साम्राज्य को छिन्नभिन्न करने के लिए अपनी रणनीति पर सफलतापूर्वक काम करना आरंभ कर दिया था।

सिकंदर जैसे हमलावर का असर नहीं रहने पाया।
महामती चाणक्य ने आकर , उल्टा चक्र चलाया।।
देश-धर्म की रक्षा हेतु , सीमाओं को ठीक किया।
देश के लोगों ने चाणक से राष्ट्रधर्म को सीख लिया।।

राजनीति में रहकर भी राजनीति से दूर एक संत की भांति जीवन जीने वाले चाणक्य उस समय भारतीय राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सच्चे दूत बनकर प्रकट हुए थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने जीवन को राजनीति के माध्यम से लोकहित के लिए समर्पित कर दिया था। उन्हें अपने लिए किसी भी प्रकार के राजसिक वैभव की आवश्यकता नहीं थी। उनके चिंतन में केवल राष्ट्र बसता था और उसी के लिए वे जीते थे।
राजनीति के महान विद्वान चाणक्य ने अपने मनोरथ को पूर्ण करने के लिए उस समय चंद्रगुप्त मौर्य को चुना। चंद्रगुप्त मौर्य ने भी अपने आपको चाणक्य के बताए नियमों के अनुसार समर्पित कर दिया। दोनों ने समर्पण भाव से और एक-दूसरे पर अटूट विश्वास रखते हुए देश-धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए आगे बढ़ना आरंभ किया। उनके पूर्ण समर्पण भाव से काम करने का ही परिणाम था कि सिकंदर ने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी और भारत के थोड़े से भू-भाग को लेकर इसे काटने या बांटने का अपराध किया था उसके घाव को इन दोनों महान देशभक्तों के परिश्रम और प्रयास से भर दिया गया।
चंद्रगुप्त मौर्य के साथ खड़े चाणक्य ने राष्ट्रवाद ,राष्ट्रीयता और राष्ट्रधर्म पर न केवल अपनी चाणक्य नीति में भरपूर प्रकाश डाला है अपितु उसने अपने शासन के लिए भी इन सबकी बहुत अधिक आवश्यकता मानी है और चंद्रगुप्त मौर्य ने इन्हीं सबको दृष्टिगत रखकर शासन किया था।

राजनीति का कुशल खिलाड़ी कूटनीति का जादूगर।
माना जाता अपने फन में वीर, चतुर और कद्दावर।।
चाणक्य जैसा बुद्धिशाली मिलना कठिन अन्यत्र कहीं।
लिया साथ में चंद्रगुप्त को ,जोड़ी मिलती सर्वत्र नहीं।।

भारत से ईर्ष्या भाव रखने वाले इतिहासकारों ने इस घटना को बहुत हल्के से लिखा है । उनकी दृष्टि में यह बड़ी बात थी कि सिकंदर ने भारत का कुछ भूभाग जीता। आज हमें इतिहास के भंवर जाल से बाहर निकलकर चाणक्य और चंद्रगुप्त की जोड़ी के द्वारा राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए अपने काल में किए गए महान कार्य को सम्मानित करने की आवश्यकता है।
सत्यकेतु विद्यालंकार जी अपनी पुस्तक ‘मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति ‘ के पृष्ठ 10 पर लिखते हैं कि – चंद्रगुप्त मौर्य ने 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस को हराकर हिरात , कंधार ,काबुल और मकरान उससे ले लिए थे। राजनीति व कूटनीति के महान पंडित चाणक्य की नीति आज तक भी भारत सहित सभी देशों के शासकों को यह प्रेरणा देती है कि किस प्रकार अपने पड़ोसी शासक को दुर्बल रखकर अपने राष्ट्रीय हितों की साधना शासकों को करनी चाहिए ?
वास्तव में चंद्रगुप्त मौर्य का यह कार्य राष्ट्रीय एकता के दृष्टिकोण से ही किया गया कार्य था । वह आर्यावर्त की उन सीमाओं के प्रति सचेत और सावधान थे जो कभी भारत के विशाल साम्राज्य को टर्की तक फैलाए हुए थीं । उनकी दृष्टि में यदि आज के अफगानिस्तान और ईरान में भी कोई व्यक्ति उथल – पुथल करता था तो वह भी आर्यावर्त या भारत की सीमाओं में की गई उथल – पुथल ही मानी जाती थी । इसलिए चंद्रगुप्त मौर्य के इस प्रयास को विदेशी धरती पर किया गया कार्य न समझ कर तत्कालीन आर्यावर्त की सीमाओं में किए गए कार्य के रूप में देखा जाना चाहिए । जिससे पता चलता है कि वह अपनी राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए कितने क्रियाशील थे ? 
जिस समय महामति चाणक्य स्वयं जीवित थे , उस समय उन्होंने ऐसी साधना न की हो यह कैसे संभव है ? निश्चित ही उन्होंने ऐसे सारे उपाय किए होंगे जिससे सिकंदर के द्वारा स्थापित किया गया ‘पड़ोस का साम्राज्य ‘ छिन्न-भिन्न होकर रह जाए और भारत अपने पुराने वैभव को फिर से प्राप्त करने में सफल हो । इस प्रकार चाणक्य की देशभक्ति और सफल कूटनीति के कारण ही सिकंदर के द्वारा स्थापित किया गया वर्तमान अफगानिस्तान और उससे लगता हुआ उसका सारा साम्राज्य बहुत शीघ्र बिखर कर समाप्त हो गया । सचमुच प्राचीन भारत के इस महान प्रधानमंत्री की इस महान योजना को इतिहास में समुचित स्थान मिलना अपेक्षित है ।

बिखेर दिया शत्रु को क्षण में, रच डाला ऐसा चक्रव्यूह।
देश की सीमा करी सुरक्षित, भागा शत्रु छुपाकर मूंह।।
जितने भर भी घुसे राक्षस चुन चुनकर उनको भगा दिया।
सोए पड़े निज बंधु को भी, बांह पकड़कर जगा दिया।।

इतिहासकारों ने सिकंदर के आक्रमण को धूमकेतु की भान्ति उठने वाला एक तूफान कहकर संबोधित किया है ,जो शीघ्र ही कहीं अनंत में विलीन हो गया । जबकि सच यह है कि यह तूफान स्वयं विलीन नहीं हुआ था , अपितु उसे विलीन किया गया था और उसके पीछे चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य की जोड़ी काम कर रही थी । 
लगभग ई. पू. 250 में बैक्ट्रिया के प्रशासक डियोडोटस एवं पार्थिया के गवर्नर औरेक्सस ने अपने आपको स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। बैक्ट्रिया के दूसरे राजा डियोडोटस द्वितीय ने अपने देश को सेल्युकस के साम्राज्य से पूर्णतः अलग कर लिया। सिकंदर के साम्राज्य के इस प्रकार से दुर्बल पड़ जाने के पीछे चाणक्य की कूटनीति ने काम किया और जो लोग भारत को नीचा दिखाने के लिए चले थे , वह स्वयं ही कुछ देर पश्चात मिटकर समाप्त हो गए। यद्यपि उनके पतन के काल में चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य तो नहीं थे , परंतु उनकी कूटनीति और उनके द्वारा स्थापित किया गया मजबूत साम्राज्य तो अभी काम कर ही रहा था।
अपनी महान देश भक्ति और कूटनीतिक क्षमताओं के कारण ही चाणक्य आज भी भारत के जनमानस में विशेष सम्मान और श्रद्धा के पात्र हैं। उनके नाम और काम को मिटाने का चाहे जितना प्रयास किया गया हो परंतु इस सबके उपरांत भी वह भारतीय राजनीति में आज भी चर्चा का विषय बने ही रहते हैं। जो व्यक्ति अपनी महान कूटनीतिक क्षमताओं का प्रदर्शन करते हुए राजनीति के क्षेत्र में अपनी महान देशभक्ति का प्रदर्शन करता है, उसी को लोग आजकल भी चाणक्य कहने लगते हैं । चाणक्य की महानता भारत की संस्कृति की रक्षा के उनके संकल्प में निहित है , उनकी महानता अपने धर्म को संसार का सबसे पवित्र धर्म मानने में अंतर्निहित है, उनकी महानता भारत की ओर आंख उठाकर देखने वाले व्यक्ति का विनाश करने की उनकी संकल्प शक्ति में अंतर्निहित है, और उनकी महानता भारत की वैदिक मान्यताओं और परंपराओं को माध्यम बनाकर भारत को विश्वगुरु बनाने के उनके पुरुषार्थी स्वभाव में अंतर्निहित है। उनके रहते किसी भी शत्रु का भारत की ओर देखने का साहस नहीं हुआ । उन्होंने भारत को इतनी मजबूती प्रदान की कि वह सैकड़ों वर्ष तक विदेशियों के आक्रमण से सुरक्षित बना रहा। कालांतर में भारत के प्रतिहारवंशीय सम्राट मिहिर भोज, पृथ्वीराज चौहान ,महाराणा संग्राम सिंह, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज, हेमचंद्र विक्रमादित्य आदि जितने भी भारतीय शासक हुए उन सबने चाणक्य को अपना आदर्श बना कर काम किया।
हमें अपने ऐसे चाणक्य का सम्मान करते हुए उसे राजर्षि चाणक्य के रूप में स्वीकृति प्रदान कर देश के आदर्श चरित्र नायकों में उनकी गिनती करनी चाहिए।
यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि व्यक्ति तो चला जाता है , परंतु उसकी नीतियां , उसके विचार और उसकी विचारधारा बहुत देर बाद तक लोगों का मार्गदर्शन करती रहती है । जितनी ही अधिक शुद्ध और पवित्र नीतियां , विचार और विचारधारा उसकी होती है, उतनी ही दूर तक वह देश , समाज और राष्ट्र का मार्गदर्शन करने में सक्षम होती हैं । इसी प्रकार प्रधानमंत्री चाणक्य और सम्राट चंद्रगुप्त की नीतियों ने उनके उत्तराधिकारियों का दूर तक मार्गदर्शन किया ।

प्रधान का विधान था, निशान चंद्रगुप्त का।
शत्रु भागा दुम दबाकर माल खाता मुफ्त का।।
की नकेल मर्यादा की पड़ी ना कोई उन्मुक्त था।
देश का परिवेश सारा, दुर्गुणों से मुक्त था।।

यही कारण था कि चाहे सिकंदर के संसार से चले जाने के पश्चात बहुत देर तक उसके वंशज या उत्तराधिकारी भारत के पश्चिमी भू-भाग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर राज्य स्थापित करने के सपने संजोते रहे , परंतु उनमें से कोई भी फिर से न तो सिकंदर बन पाया और न ही अपना राज्य स्थायी रूप से किसी भारतीय भू-भाग पर स्थापित करने में सफल हो पाया। इसका कारण यही था कि भारत का पराक्रम जाग चुका था और वह अब किसी दूसरे सिकंदर को अपने देश की सीमाओं में प्रवेश करने देने को तैयार नहीं था। यद्यपि सिकंदर के उत्तराधिकारियों की ओर से भारत की सीमाओं के साथ छेड़छाड़ दीर्घकाल तक होती रही , परंतु वह इतनी महत्वपूर्ण नहीं थी , जितना कि सिकंदर के द्वारा किया गया स्वयं का आक्रमण महत्वपूर्ण था।
डियाडोटस एवं उसके उत्तराधिकारी मध्य एशिया में अपना साम्राज्य सुगठित करने में व्यस्त रहे , किन्तु उनके उत्तरवर्ती एक शासक डेमेट्रियस प्रथम (ई. पू. 220–175) ने भारत पर आक्रमण किया। ई. पू. 183 के लगभग उसने कुछ भाग अफगानिस्तान का तो कुछ भाग भारत के तत्कालीन पंजाब का जीतने में सफलता प्राप्त की । इतना ही नहीं उसने साकल को अपनी राजधानी बना कर वहां से शासन करना भी आरंभ कर दिया । डेमेट्रियस ने भारतीयों के साथ अपना तारतम्य स्थापित करने और उन पर अपना राजकीय वर्चस्व स्थापित करने के दृष्टिकोण से भारतीयों के राजा की उपाधि धारण की । इस विदेशी शासक ने यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों वाले सिक्के चलाए। यहां पर यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि जब डेमेट्रियस भारत में व्यस्त था, तभी उसके बैक्ट्रिया में एक युक्रेटीदस की अध्यक्षता में विद्रोह हो गया और डेमेट्रियस को बैक्ट्रिया से हाथ धोना पड़ा। 

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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