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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति , गतांक से आगे …

इससे स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक शिक्षा में बड़े बूढ़ों के मान और सेवा के लिए कितना जोर दिया गया है। इस कौटुम्बिक व्यवहार के आगे हम दिखलाना चाहते हैं कि वेदों में अपने कुटुम्ब से सम्बन्ध रखनेवाले अन्य जातिबन्धुयो के लिये किस प्रकार सुख की कामना करने का उपदेश है। ऋग्वेद में लिखा है कि–

सस्तु माता सस्तु पिता सस्तु श्वा सस्तु विश्पतिः ।
ससन्तु सर्वे ज्ञातयः सस्स्वयमभितो जनः ॥ ( ऋ० 7/55/5 )

आत्मानं पितरं पुत्रं पौत्रं पितामहम् । जायां जनित्रीं मातरं ये प्रियास्ताप ह्वये ।। (अ० 9/5/30 )

अर्थात् माता, पिता, जातिवाले, नौकर, चाकर और कुत्ते आदि पशु सब सुख से सोवें । आत्मीय जन, पिता, पुत्र, पौत्र, पितामह, स्त्री, पितामही, माता और जो स्नेही हैं, उनको मैं आदर से बुलाता है। इन कुटुम्बियों और जाति से सम्बन्ध रखनेवालों के साथ व्यवहार का वर्णन करके आगे मित्रों के साथ व्यवहार करने का उपदेश इस प्रकार है-

सर्व नवन्ति यशसागतेन सभासाहेन सख्या सखायः |
किल्विषस्पृत्पितुषणिर्होषामरं हितो भवति वाजिनाय ।। (ऋ०10/71/10 )

न स सखा यो न ददाति सख्ये सचाभुवे सवमानाय पित्वः । अपास्मात्प्रेयात्र तदोको अस्ति पृणम्समन्यमरणं चिदिच्छेत् ।। (ऋ०10/117/4 )

अर्थात् मित्र के सहवास और यश से सब आनन्दित होते हैं। मित्र धन देकर समाज के पापों को दूर करता है और सबका हितकारी होता है। यह सखा अर्थात् मित्र नहीं है, जो धनवान् होकर अपने मित्र को सहायता नहीं करता । उसका घर सच्चा घर नहीं है। उसके पास से तो सदैव दूर ही भागना चाहिये। इन दोनों मन्त्रों में मैत्री का भाव और कर्त्तव्य अच्छी तरह बतला दिया गया है और दिखला दिया गया है कि मित्र को भी कुटुम्ब और जाति की भाँति ही सहायता देना चाहिये। इसके आगे सब समस्त आर्यजाति के साथ व्यवहार करने का उपदेश इस प्रकार है-

प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु ।
प्रियं सर्वस्य पश्यतः उत शूद्र उतायें ( अथवं०19/62/1 )

रूचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रूचं राजसु नस्कृधि ।
रूचं विश्येषु शुद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् (यजु०18/48)

अर्थात् मुझको ब्राह्मणों में प्रिय कीजिये, क्षत्रियों में प्रिय कीजिये, वैश्यों में प्रिय कीजिये और शूद्रों में प्रिय कीजिये । हमारी ब्राह्मणों में रुचि हो, क्षत्रियों में रुचि हो, वैश्यों और शूद्रों में रुचि हो तथा इस रुचि में भी रुचि हो । इन मन्त्रों में आर्य जाति के चारों वरणों के साथ रुचि रखने और उनके बीच में प्रिय होने का उपदेश है। इसके आगे समस्त मनुष्यजाति के साथ व्यवहार करने का आदेश इस प्रकार है-

समानी प्रपा सह वोऽत्रभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि ।
सम्यञ्चोऽग्नि] सपर्यतार नाभिमिवाभितः ॥ ( अथर्व०3/30/6 )
सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः ।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाध्या ( अथर्व०3/301 )
ये समाना: समनसो जीवा जीवेषु मामकाः ।
तेषां श्रीमंयि कल्पतामस्मिल्लोके शतं समाः । (यजुर्वेद 19/46 )

अर्थात् तुम सब मनुष्यों के जलस्थान एक सामान हों और तुम सब अन्न को एक समान ही बाँट छूटे कर लो। मैं तुमको एक ही कौटुम्बिक बन्धन से बांधता है, इसलिए तुम सब मिलकर कर्म करो, जैसे रथचक्र के सब ओर एक हो नाभि में लगे हुए झारे कर्म करते हैं। मैं तुम्हारे हृदयों को एक समान करता हूँ और तुम्हारे मनों को विद्वेषरहित करता है । तुम एक दूसरे को उसी तरह प्रीति से चाहो, जैसे गौ अपने सद्याजात बछड़े को चाहती है। जो जीव, मन, वाणी से इस प्रकार की समानता के पक्षपाती हैं, उन्हीं के लिए मैंने इस लोक में सौ वर्ष तक समस्त ऐश्वर्या को दिया है।
क्रमशः

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