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भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 46 सनातन संस्कृति के रक्षक महर्षि दयानंद

सनातन संस्कृति के रक्षक महर्षि दयानंद

 सनातन के रक्षक के रूप में महर्षि दयानंद जी का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने सनातन धर्म और वैदिक सत्य सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए अनेक प्रकार के यत्न किए। जीवन को ज्ञान की भट्टी में तपाया और अपनी तपश्चर्या से जीवन और जगत का कल्याण करते हुए वैदिक संस्कृति का डंका सारे विश्व में बजाया ।
स्वामी दयानंद जी ने देश की सोई हुई युवा पीढ़ी को जगाकर युवाओं को आजादी के लिए प्रेरित किया । ‘वेदों की ओर लौटो’ का उद्घोष कर मां भारती के सपूतों को फिर से उनका वास्तविक स्वरूप दिखाने का प्रशंसनीय कार्य किया। उन्होंने वेदानुकूल मान्यताओं को आचरण में लाने और उनका ही अनुकरण करने पर बल दिया। महर्षि ने लोगों को बताया कि आपके जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति करना है। सांसारिक विषय और वासनाओं में फंसाकर जीवन को नष्ट करने से आवागमन का चक्र नहीं छूटता। इससे हमको बार-बार दु:ख भोगना पड़ता है।
स्वामी दयानंद जी ने शस्त्र और शास्त्र दोनों का अद्भुत संगम बनाकर अपने विचारों को लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। यही कारण रहा कि उनके जीवनकाल में बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी बात को मानकर देश-धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने का संकल्प लिया। देश की स्वाधीनता के क्रांतिकारी आंदोलन के अधिकांश नेता उनके विचारों से प्रभावित थे। 1857 की क्रांति में स्वामी जी महाराज बहुत अधिक सक्रिय रहे थे। इसके पश्चात भी वह देश की राजनीतिक घटनाओं के प्रति निरपेक्ष नहीं रहे। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना 1875 में की थी। इस पवित्र संस्था ने अनेक क्रांतिकारियों को जन्म दिया।

ऋषि दयानंद आए जगत में बेड़ा पार लगाने को,
भटकी हुई थी मानवता, राह सही दिखलाने को।
अंधकार में भटक रहे थे आशा नजर ना आती थी,
तब नभ में चमका सूरज, जग अंधकार मिटाने को।।

 महर्षि दयानंद की पुण्य प्रेरणा का ही प्रताप था कि देश और आर्यसमाज को स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, महाशय राजपाल, रानी लक्ष्मीबाई, कोतवाल धन सिंह, तात्या टोपे, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह ,चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र प्रसाद लाहिड़ी, मदनलाल धींगरा सुभाष चंद्र बोस, पं. गणपति शर्मा, अमर स्वामी जी महाराज, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, महात्मा आनन्द स्वामी, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. भगवद्दत्त जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, आचार्य डाॅ. रामनाथ वेदालंकार जैसे उच्च कोटि के विद्वान और देशभक्त क्रांतिकारी नेता मिले। जिन्होंने देश में राजनीतिक और वैचारिक क्रांति का सूत्रपात किया। राष्ट्रबोध और आत्मबोध कराने की इस पवित्र परंपरा ने लोगों पर चमत्कारी प्रभाव दिखाए। इन्हीं चमत्कारी प्रभावों के कारण लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का बहिष्कार किया इसके साथ-साथ अंग्रेजी न्यायालयों को भी लोगों ने मान्यता प्रदान नहीं की। लोगों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी उपायों से लड़ने को प्राथमिकता दी।

देश धर्म की पगडंडी को पकड़ लिया दीवानों ने,
गीत मां के गाते – गाते ,निज शीश चढ़ाए सारों ने।
कोतवाल धन सिंह से लेकर रानी लक्ष्मीबाई तक ,
नाम लिखा दिया वीरों ने, देशहित बलिदानों में ।।

स्वामी दयानंद जी महाराज ने चुपचाप घुन की तरह देश के वैदिक धर्मी हिंदुओं को क्षति पहुंचाने वाले विदेशी मतों की पोल खोली और ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उनके मजहबी सिद्धांतों और मान्यताओं को भी लोगों के समक्ष उजागर किया। स्वामी जी के इस प्रकार के महान कार्य से अनेक लोग इस्लाम या ईसाई मत को स्वीकार करने से बच गए। यदि स्वामी जी इन विदेशी मजहबों की सच्चाई को लोगों के समक्ष प्रकट न करते तो आज भारतवर्ष में हिंदुओं की संख्या और भी कम होती।
उन्होंने शुद्धि अभियान पर भी बल दिया और जो लोग स्वेच्छा से वैदिक धर्म को अपनाने के लिए आ रहे थे, उनके लिए वैदिक मत अर्थात सनातन धर्म को स्वीकार करने की प्रक्रिया को बहुत सरल किया।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने जन्मना जाति की व्यवस्था का विरोध किया और भारतवर्ष की प्राचीन वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया। उन्होंने महर्षि मनु द्वारा प्रतिपादित सभी आश्रमों के कर्तव्य धर्म को स्थापित करने के लिए लोगों को प्रेरित किया।
स्वामी जी महाराज ने गुण – कर्म – स्वभाव के आधार पर लोगों को अंतर्जातीय विवाह करने के लिए प्रेरित किया। हिंदू समाज में जिस प्रकार छुआछूत की भावना बलवती हो चुकी थी, उसे रोकने की दिशा में भी उन्होंने सराहनीय कार्य किया। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह पर बल दिया । बाल-विवाह को रोकने के लिए भी लोगों में जागृति पैदा की। उन्होंने गुरुकुलों के माध्यम से संस्कार आधारित शिक्षा देने पर बल दिया। जिससे लोगों में परस्पर प्रेम पूर्ण व्यवहार में वृद्धि हो और सब मिलकर समाज व राष्ट्र के प्रति समर्पित हों।
प्रत्येक प्रकार के पाखंडवाद, छल-छद्म और दुराचरण से लोगों को दूर करने की दिशा में भी स्वामी दयानंद जी महाराज ने अनुकरणीय कार्य किए। इनको लेकर उन्होंने अपने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ सहित कई ग्रंथ लिखे। समाज में नई जागृति लाने के लिए उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों में संस्कृत वाक्य प्रबोध (1879), गोकरुणानिधि (1880 ), आर्योद्देश्यरत्न माला ( 1877) ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (1878), व्यवहार भानु (1879) चतुर्वेद विषय सूची (1871), व्यवहार भानु, (1879) ऋग्वेद भाष्य , यजुर्वेद अध्याय (1877), यजुर्वेद भाष्य (1878) अष्टाध्यायी भाष्य (1879), इसके अतिरिक्त उन्होंने भागवत खंडन, पाखंड खंडन ,वैष्णव मत खंडन , पंच महायज्ञ विधि जैसी पुस्तकों की रचना की।

अनेक ग्रंथ लिखे ऋषिवर ने आर्य राष्ट्र बनाने को,
आवाहन किया लोगों का, आर्य मत अपनाने को।
कदम कदम आगे बढ़ना,अरे!धर्म बताया वीरों का ,
कायर बन जो बैठ गए थे, उनको आगे लाने को।।

स्वामी दयानंद जी महाराज भारतीय समाज और राष्ट्र के साथ-साथ यहां के लोगों को आर्य बनाकर सबल और सशक्त बनाने के पक्षधर थे। वह भारत को विश्व गुरु के उस सम्मानित पद पर विराजमान होते देखना चाहते थे जो कभी संपूर्ण विश्व को ज्ञान प्रदान किया करता था। उनकी इच्छा थी जिस प्रकार प्राचीन काल में ज्ञान-विज्ञान की खोज में लोग संसार के कोने-कोने से चलकर भारतवर्ष आते थे, वैसी ही स्थिति फिर से बने।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने शिक्षा के क्षेत्र में सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था करने पर बल दिया। उनकी मान्यता थी कि विद्यार्थियों को वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। वह शिक्षा के साथ-साथ संस्कारों पर विशेष ध्यान देते थे। एक संस्कारित और सुशिक्षित व्यक्ति ही देश का सुसंस्कृत नागरिक बनकर समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण कर सकता है। इसके लिए स्वामी जी महाराज ने शिक्षक की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण माना। शिक्षक यदि स्वयं दुराचारी है तो वह सदाचारी शिष्यों का निर्माण नहीं कर सकता । अतः शिक्षक स्वयं आदर्श व्यक्तित्व का स्वामी होना चाहिए। शिक्षक और शिष्य के मध्य संबंध भी अत्यंत मर्यादित होने चाहिए। दयानंद जी महाराज समग्र व्यक्तित्व विकास के समर्थक थे।
उन्होंने शिक्षा के केंद्रों में वेद और उपनिषदों की नैतिक शिक्षाओं को लागू कराने पर बल दिया। उन्होंने समझ लिया था कि भारत में भारतीयता का प्रचार-प्रसार केवल भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों से ओतप्रोत पाठ्यक्रम को लागू कराने से ही हो सकता है। इसके लिए स्वामी दयानंद जी ने अंग्रेजी शिक्षा का पूर्ण बहिष्कार करने का देशवासियों से आवाहन किया था। यह स्वामी दयानंद जी के व्यक्तित्व का ही प्रताप था कि लोगों पर उनके इस प्रकार के आवाहन का गहरा प्रभाव पड़ा। लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का तो बहिष्कार किया ही साथ ही अंग्रेजी न्यायालयों का भी बहिष्कार किया। ये अंग्रेजी न्यायालय हमारे देशभक्तों को फांसी पर चढ़ा रहे थे और जो लोग देश धर्म की चिंता छोड़कर अंग्रेजों का गुणगान कर रहे थे उन्हें उस समय की अंग्रेजी सरकार ‘सर’ और ‘रायबहादुर’ जैसी उपाधि देकर सम्मानित कर रहे थे।

आर्यवर्त्त आर्यों का है- ऐसा था उद्घोष किया ,
ऋषि के विचारों ने ही देश को चंद्र बोस दिया।
आर्य धर्म की चिंता करते जीवन का संग्राम किया,
देश धर्म से विमुख हुए, भर उनमें था जोश दिया।।

स्वामी जी महाराज ने ‘भारत भारतीयों के लिए’ का उद्घोष किया। वह भारत के लोगों को आर्यजन की संज्ञा से संबोधित करते थे। भारत के लिए उनकी दृष्टि में सबसे पवित्र नाम आर्यावर्त था और यहां की भाषा को वह आर्य भाषा के रूप में सम्मान देते थे। उनकी अपनी भाषा गुजराती होने के उपरांत भी उन्होंने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिंदी में की। इससे पता चलता है कि वह राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति कितना समर्पित भाव रखते थे? उनके विरोधियों ने चाहे उन पर किसी संप्रदाय विशेष का विरोधी होने का आरोप लगाया, पर सच यह था कि वह प्राणीमात्र से प्रेम रखते थे। सांप्रदायिक मान्यताओं का विरोध करना उनके लिए किसी व्यक्ति विशेष का या किसी समुदाय विशेष के व्यक्तियों का विरोध करना नहीं था। वह मुल्ला- मौलवियों का या पादरियों व मठाधीशाें की उन मान्यताओं का विरोध करते थे जो उन्होंने निहित स्वार्थों में बना ली थीं और उनके आधार पर वे मानवता का दोहन करते थे।
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का जन्म- 12 फरवरी, 1824 को गुजरात के मोरबी राज्य के शंकर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम अमृता बाई (अम्बा बाई) था। स्वामी जी की मृत्यु- 30 अक्टूबर, 1883 को अजमेर ( राजस्थान) में हुई थी।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

               

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