नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार के बहाने विपक्ष 2024 के लोकसभा चुनावों की अपनी भूमि और भूमिका तैयार कर रहा है। जितने भर भी राजनीतिक दल नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार कर रहे हैं उन्हें 2024 के चुनावों की राजनीति ऐसा करने के लिए बाध्य कर रही है। माना जा रहा है कि सारा विपक्ष एक हो गया है। यद्यपि विपक्ष इस समय भी एक नहीं है । उसके भीतर संतरे की फाड़ियां आज भी बनी हुई हैं। तात्कालिक आधार पर ऊपरी आवरण उनके एक होने का भ्रम पैदा कर रहा है। राजनीति में सत्ता स्वार्थ किसी को निकट तो किसी को दूर कर देते हैं । इन सत्ता स्वार्थों को पहचानने वाले लोग कभी यह नहीं कहते कि ये लोग एक हो गए हैं या स्थायी रूप से दूर हो गए हैं।उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने की घोषणा करने वाली पहली राजनीतिक पार्टी तृणमूल कांग्रेस थी। तृणमूल कांग्रेस की राजनीति को समझ कर 20 और विपक्षी दल भी बहिष्कार की राजनीति पर उतर आए। इन राजनीतिक दलों में आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, राजद, जदयू, राकांपा के अलावा वाम दल भी सम्मिलित हैं। ये सारे के सारे राजनीतिक दल राजनीति में शुचिता की बात करते हुए सिद्धांतों को लागू कराने और लोकतंत्र के नाम पर लोकतांत्रिक परंपराओं का निर्वाह करने की दुहाई देते दिखाई दे रहे हैं। यद्यपि इनमें से एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसने लोकतांत्रिक मान्यताओं ,सिद्धांतों, परंपराओं और मूल्यों का कभी अक्षरश: पालन किया हो। जिस प्रकार राजनीतिक दलों का इस समय 21 बनाम 24 के आंकड़े के साथ ध्रुवीकरण हुआ है उसका एक ही कारण है कि सभी को 2024 के लोकसभा चुनाव दिखाई दे रहे हैं।
यदि बात कांग्रेस की करें तो कांग्रेस के नेता राहुल गांधी स्वयं लोकतंत्र की हत्या करते हुए सबसे पहले उस समय देखे गए थे जब उन्होंने अपने ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक विधेयक को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया था। हम सभी जानते हैं कि राहुल गांधी उस समय केवल एक सांसद थे और सांसद को कभी भी यह अधिकार नहीं होता कि वह देश के प्रधानमंत्री का सार्वजनिक रूप से इस प्रकार अपमान करे। पर कांग्रेस के एक परिवार के ‘राजकुमार’ को यह विशेषाधिकार था कि वह लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या करते हुए संविधान को भी फांसी पर चढ़ा दे ? इसीलिए उन्होंने ऐसा किया। कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी उस समय यूपीए की चेयरपर्सन होने के नाते राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी नमस्कार नहीं करती थीं। वह अपने आप को संविधानेत्तर मानती थीं और इसी रूप में लोगों से मिला करती थीं। उन्होंने उस समय देश के प्रधानमंत्री की उपस्थिति में पूर्वोत्तर भारत के एक राज्य मणिपुर और उसके अतिरिक्त एक दूसरे राज्य छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं का उद्घाटन भी किया था । उस समय उन प्रान्तों के राज्यपाल तक को आमंत्रित नहीं किया गया था। धर्म का पाठ पढ़ाने वाली कांग्रेस के लिए धर्म या नैतिकता उस समय कहां चली गई थी?
सवाल हैं, और लोग सवाल अवश्य पूछेंगे। सवाल यह भी है कि जब द्रौपदी मुर्मू एक आदिवासी महिला के रूप में चुनाव लड़ रही थीं तो उस समय उनका विरोध कांग्रेस और उसके साथी दल क्यों कर रहे थे? यदि उनसे इतना ही प्रेम था तो वह एक आदिवासी महिला को ससम्मान राष्ट्रपति भवन पहुंचने देते ।
सवाल यह भी है कि जबसे प्रधानमंत्री मोदी ने प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला है क्या तबसे लेकर आज तक कोई भी ऐसा मुद्दा, विधेयक या प्रस्ताव संसद में आया है जिसे विपक्ष ने अपनी सहज स्वीकृति देकर पारित होने दिया? जबकि अनेक विधेयक और प्रस्ताव ऐसे आए हैं जो राष्ट्रहित में यथावत पारित हो ही जाने चाहिए थे। परंतु कांग्रेस ने सरकार और संसद को न चलने देने की कसम खा ली। यही कारण रहा कि पिछले 9 वर्ष में संसद का एक सत्र भी ऐसा नहीं गया जिसमें केवल और केवल अड़ंगा डालने की नीति से अलग कांग्रेस और उसके साथी दलों ने कभी सहयोगी दृष्टिकोण अपनाकर विधायी कार्य करने में सरकार की सहायता की हो।
कांग्रेस को अभी तक के स्वाधीन भारत के इतिहास में सबसे अधिक केंद्र में शासन करने का अवसर प्राप्त हुआ है। इस पार्टी में भी एक ‘परिवार’ को यह सौभाग्य अधिक मिला है। राजनीति का यह सिद्धांत है कि जो व्यक्ति अधिक देर तक सत्ता में रह लेता है उसे सत्ता का मद भी आ जाता है। पद और मद दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश पर 2 सितंबर 1946 से लेकर 1964 की 27 मई तक निरंतर शासन किया। उनके भीतर राजशाही ठाट से रहने की प्रवृत्ति थी। दुर्भाग्य से उन्होंने अपनी इस प्रवृत्ति को सत्ता प्राप्त करने के पश्चात भी परिवर्तित नहीं किया था। कदाचित यही कारण था कि उन्हें अपने प्रधानमंत्रित्व काल में देश के राष्ट्रपति भवन में एक सीधा-सादा, जमीन से जुड़ा हुआ, सादगी पसंद और भारत व भारतीयता से प्रेम करने वाला राष्ट्रपति अर्थात डॉ राजेंद्र प्रसाद पसंद नहीं थे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कोई भी ऐसा अवसर खाली नहीं जाने दिया था जब उन्होंने डॉ राजेंद्र प्रसाद की उपेक्षा न की हो। राजेंद्र बाबू जहां देश के पहले राष्ट्रपति थे, वहीं वे आज तक के ऐसे पहले राष्ट्रपति भी हैं जिनकी राष्ट्रपति भवन में रहते हुए अपने समकालीन प्रधानमंत्री के द्वारा सर्वाधिक उपेक्षा की गई हो। राजेंद्र बाबू चाहते थे कि भारतीय संस्कृति को क्षतिग्रस्त करने वाले कानून न बनाए जाएं तो अच्छा है , पर हिंदू कोड बिल को लाकर जवाहरलाल नेहरू ने राजेंद्र बाबू की भावनाओं को आहत किया और आहत राष्ट्रपति से हिंदू कोड बिल पर हस्ताक्षर करवाकर उन्हें नीचा दिखाने का काम भी किया।
पंडित जवाहरलाल नेहरु नहीं चाहते थे कि देश का पहला राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को बनाया जाए। वे शाही तड़क-भड़क रखने वाले सी0 राजगोपालाचारी को अपने अनुकूल मानते थे और चाहते थे कि देश का पहला राष्ट्रपति बनने का सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त हो। इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए उन्होंने झूठ बोलते हुए एक पत्र डॉ राजेंद्र प्रसाद को लिख दिया था कि वे स्वयं और सरदार पटेल नहीं चाहते कि आप देश के पहले राष्ट्रपति बनें। इस पत्र को पढ़कर डॉ0 राजेंद्र प्रसाद को अत्यंत कष्ट हुआ था। उन्होंने इस पत्र को जब सरदार पटेल के पास भेजा तो वह भी इस पत्र को पढ़कर सन्न रह गए थे। वास्तव में पटेल और नेहरू के बीच ऐसी कोई बात हुई ही नहीं थी।
राजेंद्र प्रसाद देश के दो बार राष्ट्रपति बने और दोनों बार ही उन्हें नेहरू के विरोध का सामना करना पड़ा। डॉ राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति तो बन गए पर उन्हें राष्ट्रपति भवन में रहते हुए 12 वर्ष तक नेहरू की उपेक्षा ,तिरस्कार और बहिष्कार की नीति का सामना करना पड़ा। आज की राहुल गांधी की कांग्रेस उस उपेक्षा, तिरस्कार और बहिष्कार की नीति को संविधान सम्मत मानती है या संविधान विरोधी मानती है?
हम सभी जानते हैं कि जिस समय सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का समय आया था तो उस समय देश के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उस कार्यक्रम में जाने की इच्छा व्यक्त की थी। जिस पर नेहरू ने असहमति व्यक्त की थी। यद्यपि भारतीय अस्मिता के प्रतीक सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के संबंध में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में डॉ राजेंद्र प्रसाद उपस्थित हुए, पर यह सच है कि नेहरू ने अपनी खिन्नता को उस समय सार्वजनिक भी कर दिया था। सोमनाथ मंदिर के प्रकरण को लेकर डॉ0 राजेंद्र प्रसाद पूर्णतया सरदार पटेल के साथ थे।
सरदार पटेल के जाने के पश्चात जब इस मंदिर का उद्घाटन 1951 में किया गया तो उस समय भी डॉ0 राजेंद्र प्रसाद को उस कार्यक्रम में जाने से नेहरू ने रोका था। राजन बाबू न केवल इस कार्यक्रम में उपस्थित हुए थे बल्कि उन्होंने वहां जाकर बहुत ही ओजस्वी भाषण भी दिया था।
डॉ राजेंद्र प्रसाद नेहरू की चीन और तिब्बत नीति के प्रति प्रारंभ से ही असहमत रहे थे। देश ने देखा कि उस मुद्दे पर देश के राष्ट्रपति ठीक थे और प्रधानमंत्री नेहरु पूर्णतया गलत थे। इसी प्रकार राजभाषा को लेकर भी डॉ राजेंद्र प्रसाद की स्पष्ट नीति थी। राजन बाबू ने 1961 में मुख्यमंत्रियों की एक बैठक के लिए अपनी ओर से यह सुझाव प्रेषित किया था कि जैसे यूरोप में सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, वैसे ही यदि भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि को अंगीकार कर लें तो इससे देश की एकता मजबूत होगी। राष्ट्रपति के इस प्रस्ताव को सभी मुख्यमंत्रियों ने स्वीकार कर लिया था पर नेहरू ने उन्हें नीचा दिखाने के लिए इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया था।
नेहरू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को नीचा दिखाने का क्रम उस समय भी जारी रखा था जब वह राष्ट्रपति पद के दायित्वों से मुक्त हो गए थे। वह दिल्ली में रहकर अपने संस्मरणों पर आधारित पुस्तक लिखना चाहते थे । जब नेहरू को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने राजन बाबू को दिल्ली छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया था। उनका सामान उठाकर पटना भेज दिया गया था। पटना में भी उन्हें कोई सरकारी बंगला नहीं दिया गया था। डॉ राजेंद्र प्रसाद के पास अपना कोई निजी आवास नहीं था। तब देश के पहले राष्ट्रपति को सदाकत आश्रम के एक सीलन भरे कमरे में रहकर जीवन व्यतीत करना पड़ा था। वह उस कमरे में कुछ समय ही रह पाए थे। क्योंकि वहां जाकर वह बीमार रहने लगे थे। उन्हें दम की बीमारी हो गई थी। प्रधानमंत्री नेहरू ने कभी जाकर उनकी सुध नहीं ली थी। हां , जब जयप्रकाश नारायण उनसे उस आवास में मिलने के लिए गए तो उस कमरे की हालत को देखकर वह अत्यंत व्यथित हुए थे। कहते हैं कि तब उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों के माध्यम से राजन बाबू के उस आवास को रहने लायक करवाया था, पर कुछ समय पश्चात ही अर्थात 28 फरवरी 1963 को डॉ राजेंद्र प्रसाद संसार से विदा ले गए। बिहार में उस समय कांग्रेस की सरकार थी । पर नेहरु की सोच को समझकर कांग्रेस की सरकार की ओर से भी डॉ राजेंद्र प्रसाद को कोई सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई थी।
अंतिम संस्कार के दिन भी नेहरू डॉ राजेंद्र प्रसाद के अंतिम संस्कार में सम्मिलित न होकर राजस्थान के दौरे पर चले गए थे। राजस्थान के राज्यपाल उस समय डॉ संपूर्णानंद थे। वह डॉ राजेंद्र प्रसाद के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना चाहते थे। नेहरू ने उनसे भी यह कह दिया था कि यह कैसे संभव है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और वहां का राज्यपाल वहां उपस्थित ना हो ? तब दु:खी मन से डॉ संपूर्णानंद ने भी राजन बाबू के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होने के निर्णय को टाल दिया था। यद्यपि नेहरू के मना करने के उपरांत भी के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन राजन बाबू के अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुए थे।
यदि बात नेहरू के बाद इंदिरा गांधी की करें तो उन्होंने जब देश में 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा की थी तो रात्रि में जाकर देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ फखरुद्दीन अली अहमद से जबरन आपातकाल लागू कराने के कागजात पर हस्ताक्षर कराए थे। उन कागजात पर हस्ताक्षर करते हुए फखरुद्दीन अली अहमद को पसीने आ गए थे । वह इतने दु:खी हुए थे कि कुछ समय पश्चात ही सदमे से उनकी मृत्यु हो गई थी। वी0वी0 गिरि को इंदिरा गांधी ने एक कमजोर राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रपति भवन भेजने का निर्णय लिया था। उन्हें वह अपनी मर्जी से चलाती थीं। इस प्रकार देश के राष्ट्रपति भवन में प्रधानमंत्री की कठोर छाया वी0 वी0 गिरि के राष्ट्रपति काल में स्पष्ट देखी जा सकती थी। जब जनता पार्टी के शासनकाल में डॉ नीलम संजीव रेड्डी देश के राष्ट्रपति बने और जनता पार्टी की सरकार के पश्चात इंदिरा गांधी की सरकार फिर बनी तो उस समय भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच अच्छे संबंध नहीं रहे थे।
बात राजीव गांधी की करें तो उन्होंने तो ज्ञानी जैल सिंह से इतनी खटास पैदा कर ली थी कि उन्हें सरकारी फाइलों को दिखाने तक से प्रतिबंधित कर दिया गया था। ज्ञानी जैल सिंह से आयु में बहुत छोटे रहे राजीव गांधी को उनसे नमस्कार करने तक में भी कष्ट होने लगा था। हमारे देश की लोकतांत्रिक परंपरा है कि जब देश का प्रधानमंत्री विदेश से लौटता है तो वह अपने विदेश दौरे की जानकारी देने के लिए राष्ट्रपति भवन जाता है। लेकिन राजीव गांधी ने इस संवैधानिक परंपरा को भी तोड़ दिया था।
कितने दुख की बात है कि जिस कांग्रेस पार्टी ने कदम कदम पर राष्ट्रपतियों का अपमान किया है आज वही पार्टी राष्ट्रपति के सम्मान की बात करते हुए देश के नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार कर रही है ? कांग्रेस की इस कार्यप्रणाली को कोरी राजनीति तो कहा जा सकता है पर राष्ट्रनीति नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि सत्ता आनी जानी चीज होती है। यदि यह उसके पास नहीं रही तो यह रहेगी भाजपा के पास भी नहीं। पर जब वह कभी भविष्य में सत्ता में लौटेगी तो क्या राष्ट्र विरोधी आचरण से लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या करने से बने राख के ढेर पर बैठकर छाती पीटेगी या देश को चलाने के लिए कुछ बेहतर करने का प्रयास करेगी ? आज के किए का भुगतान उस समय करना पड़ेगा। अच्छी बात होगी कि विपक्ष विधवा विलाप को छोड़कर राष्ट्र हित में उचित निर्णय ले।
(26 मई 2023)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत