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संपादकीय

कब्रिस्तान और श्मशान की राजनीति

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के चलते राजनीतिज्ञों की ओर से मतदाताओं को लुभाने हेतु कई प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया गया है। बेचारेे सीधे-सीधे तो संप्रदाय या जाति के आधार पर वोट मांग नहीं सकते। अत: घुमा-फिराकर अपनी बात को कहने के लिए शब्दों को ढूंढऩे का प्रयास हमारे राजनीतिज्ञ करते दिखाई दिये हैं। सपा ने अपने राज में कब्रिस्तानों की ओर विशेष ध्यान दिया, तो पी.एम. मोदी ने श्मशानों की ओर भी इसी प्रकार ध्यान देने की बात कही। इससे सपा का कब्रिस्तान की ओर ध्यान देने का ‘एकाकी व्रत’ उसे अपने लिए जी का जंजाल बनता दिखायी दिया और उसे लगा कि इससे प्रदेश का बहुसंख्यक मतदाता भाजपा के साथ जा सकता है तो सपा की ओर से चुनाव प्रचार कर रहे मुख्यमंत्री अखिलेश, उनकी धर्मपत्नी डिंपल यादव और कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री के इस वार को असंवैधानिक और अनुचित बताना आरंभ कर दिया। उनका कहना रहा है कि प्रधानमंत्री प्रदेश के मतदाताओं को परस्पर द्वेषभाव में जीने के लिए प्रेरित कर रहे हैं-उनका यह ‘वार’ पूर्णत: अनुचित है।
अभी यह वाद-विवाद चल ही रहा था कि भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने देश में कब्रिस्तानों के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। वह कहते हैं कि देश में हर व्यक्ति को अपने मृत परिजनों को जलाना चाहिए। इसलिए देश में कब्रिस्तानों की कोई आवश्यकता ही नहीं है। साक्षी महाराज के इस बयान ने नयी बहस को जन्म दे दिया है। अब कुछ लोगों ने इस बयान को इस्लाम के निजी मामलों में हस्तक्षेप करने की साक्षी महाराज जैसे लोगों की दूषित मानसिकता के साथ जोडक़र देखने की बातें करनी आरंभ कर दी हैं, तो कुछ लोग शवों को जलाने या गाडऩे में कौन सी प्रक्रिया वैज्ञानिक है और कौन सी अवैज्ञानिक है? इस बहस में पड़ गये हैं।
वैसे राजनीतिज्ञों की वाणी अक्सर फिसल जाती है इनकी बातों में ‘वोटों की फसल’ काटने का जुगाड़ अधिक झलका करता है। वोटों की फसल काटते ही इनके लिए कब्रिस्तान या श्मशान कोई अर्थ नहीं रखते हैं और यदि रखते हैं तो ये समझ लेना चाहिए कि ये लेाग उनमें भी राजनीति करते हैं। सचमुच राजनीतिज्ञ इस भूलोक का एक चमत्कारिक जीव है जो ‘शांतिधाम’ (श्मशान और कब्रिस्तान) में भी ‘वोटों की फसल’ तैयार करने का कौशल रखता है। आज जब प्रधानमंत्री मोदी कौशल विकास पर विशेष बल दे रहे हैं तब तो राजनीतिज्ञ भी अपना कौशल विकास करने में कुशलता दिखाने का काम कर रहे हैं।
हमारा मानना है कि इस्लाम में जिन लोगों ने तर्क को स्थान न देकर अपने कहे गये वाक्य को ‘ब्रह्मवाक्य’ मानकर मान लेने की हठ की है-उन्होंने ही इस्लाम के चेहरे को लोगों के सामने गलत ढंग से प्रस्तुत करने का कार्य किया है। इस्लाम में तर्क और विज्ञान को मानने का प्राविधान ना होना वैसे ही है जैसे बिना आत्मा के किसी शरीर की कल्पना की जाए। जैसे शरीर में आत्मा का होना अनिवार्य है वैसे ही किसी विचारधारा में तर्क और विज्ञान का होना अनिवार्य है। हमें नहीं लगता कि इस्लाम इस सिद्घांत में विश्वास नहीं रखता। आज जब 21वीं शताब्दी में संसार एक साथ सात-सात नई पृथ्वियों को खोज रहा है तब इस्लाम विज्ञान के साथ आगे ना बढ़े ऐसा होना न केवल इस विचारधारा के लिए अनुचित है-अपितु यह मानवता के लिए भी अनुचित है। हमारा मानना है कि इस्लाम में तर्क और विज्ञान के लिए भीतर ही भीतर एक स्वस्थ बहस इस समय चल रही है और प्रगतिशील युवा वर्ग इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह तर्क और विज्ञान के नियमों को समझ रहा है और न केवल समझ रहा है, अपितु उन्हें अपना भी रहा है और अपने अन्य भाइयों को उन्हें अपनाने के लिए प्रेरित कर रहा है।
जहां तक शव को जलाने या गाड़ऩे की बात है तो इस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए और इसके वैज्ञानिक पक्ष पर भी विचार होना चाहिए। अरब में शव को गाडऩे की परम्परा इसलिए थी कि वहां लकड़ी का अभाव है। पर भारत जैसे देश में लकड़ी का अभाव नहीं रहा, तो यहां पर शव को गाडऩे का कोई औचित्य नहीं है। आज विश्व में ईसाई देशों के प्रगतिशील लोगों ने ही नहीं, अपितु चीन जैसे देश ने भी शवों को जलाने की भारत की परम्परा का यह कहकर समर्थन करना आरंभ कर दिया है कि इससे कब्रिस्तानों के लिए खरीदी जाने वाली भूमि के दुरूपयोग में कमी आएगी। विश्व के कई देशों के बड़े-बड़े शहरों की स्थिति ऐसी हो गयी है कि वहां कब्रिस्तानों के लिए भूमि मिलनी ही कठिन होती जा रही है। लोग जीते जी अपने लिए कब्र के नाम पर भूमि खरीद रहे हैं। निर्धन व्यक्ति तो यह मिलनी ही बंद हो गयी है। तब हर किसी देश के सामने यही प्रश्न है कि अब ऐसे में किया क्या जाए? 
भारत का हिन्दू समाज वैज्ञानिक नियमों का मान करता आया है। वह शवों को जलाता है और जलाने में भी अब तो विद्युत शवदाह गृह आ गये हैं, उसे भी इस समाज ने बिना किसी ना नुकर के अपना लिया है। क्योंकि हिंदू समाज जानता है कि मृत देह से किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं होना चाहिए। वह जितनी शीघ्रता से नष्ट हो जाए उतना ही अच्छा हो जाए। यदि हम मृत देह को पानी में बहाते हैं तो वह पानी को प्रदूषित करता है, और अन्य जीवधारियों को भी बीमार करता है। इसी प्रकार शवों को गाडऩे से भी उससे दुर्गंध निकलती है और वह बहुत देर तक वातावरण के वायुमंडल को प्रदूषित करने का कार्य करती रहती है। जबकि जला देने से उसका एक बार में ही विनाश हो जाता है।
जिन लोगों ने मजारों, समाधियों या कब्रिस्तानों को पुजवाने का कार्य किया है-वे समाज के भोले भाले लोगों का मानसिक और आर्थिक दोहन करने वाले लोग हैं। समाज को ऐसे पंडे पुजारियों और कठमुल्लों से ही वास्तविक खतरा रहता है। इससे इनके स्वार्थपूर्ण होते हैं। अत: ये लोग समाज को तर्क और विज्ञान से दूर रखने की युक्ति खोजते रहते हैं। ये जानते हैं कि यदि लोगों को सच का पता चल गया तो तुम्हारी दुकानदारी बंद हो जाएगी। आज हमें 21वीं शताब्दी में रहते हुए यह सोचना चाहिए कि हमारे लिए ‘कठमुल्लावाद’ उचित है या तर्क या विज्ञान का वह क्षेत्र उचित है जो हमें अनंत संभावनाओं के अनंत आकाश में झांकने के लिए प्रेरित करता है, विशेषत: तब जब कि  ‘कठमुल्लावाद’ सारी संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगाता हो।

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