Categories
महत्वपूर्ण लेख संपादकीय

सरदार भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह के जीवन का एक प्रेरणास्पद संस्मरण: हमारी सांझी विरासत और खालिस्तानी आंदोलन

हमारी सांझी विरासत और खालिस्तानी आंदोलन

इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत की वैदिक हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए ही गुरु नानक जी ने नानक पंथ अर्थात सिक्ख मत की स्थापना की थी। उन्होंने अपने जीवन काल में कभी भी कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जो भारत की वैदिक संस्कृति और समाज को कष्ट देने वाला या नष्ट करने वाला हो। उन्होंने या उनके उत्तराधिकारियों ने देश में कभी भी हिंदुओं के विरुद्ध किसी प्रकार के नरसंहार करने का आदेश नहीं दिया और ना ही हिंदू समाज के विरुद्ध किसी नई राजनीतिक शक्ति को गठित कर देश में एक नए देश की मांग की। जब गुरु गोविंद सिंह को आवश्यकता अनुभव हुई तो हिंदू समाज के एक बड़े संत बंदा बीर बैरागी ने उनके बेटों के बलिदान का प्रतिशोध लेने के लिए अपने आपको समर्पित किया और उस सरहिंद की ईंट से ईंट बजाकर ही दम लिया, जहां भारत की महान सांस्कृतिक विरासत के महानायक गुरु गोविंद सिंह जी के बेटों की हत्या दीवार में चुनवाकर की गई थी। जिस मुगल बादशाह ने उस समय यह अपराध किया था उसके सबसे क्रूर बादशाह औरंगजेब को हिंदू और सिक्ख दोनों ने अपना सांझा शत्रु माना था।
हम सब भली प्रकार यह जानते हैं कि गुरु तेग बहादुर जी ने यदि अपना बलिदान दिया था तो वह भी वैदिक धर्म की रक्षा के लिए ही दिया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और भगवान श्री कृष्ण की संस्कृति बचे और मुगलों की अपसंस्कृति का नाश हो, गुरुजी के बलिदान का यह सबसे बड़ा कारण था। सिक्खों को उस समय अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा पुरोधा मानकर लोग बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते थे। यही कारण था कि जब माता गुजरी और छोटे साहिबजादों की रक्षा के लिए कोई सिक्ख आगे नहीं आया, तो बच्चों को दूध पिलाने के लिए बाबा मोती राम मेहरा ने ही अपना बलिदान किया।
बच्चों के अंतिम संस्कार के लिए उस समय की क्रूर मुगल सत्ता ने शर्त लगाई थी कि जितनी गज जमीन चाहिए उतनी जमीन को सोने की अशर्फियों के बदले में खरीद लिया जाए ,तो उस समय हिंदू सिक्ख का भेदभाव किए बिना टोडरमल जी ने 78000 सोने की मोहरों के बदले अंतिम संस्कार के लिए जमीन खरीदी और गुरु जी के बच्चों का अंतिम संस्कार करके अपने राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह किया था। टोडरमल जी का यह कार्य हमारी सांझी विरासत का प्रतीक है। उस सोने की कीमत आज के अनुसार 400 करोड़ से भी अधिक है। टोडरमल मूल रूप से जैन थे, पर गुरु जी उनके लिए पराए नहीं थे। हिंदू, सिक्ख, बौद्ध और जैन सभी अपने आप को एक ही पेड़ की शाखा मानते थे।
भला यह कैसे संभव था कि जिन गुरुजी के बच्चों को क्रूर मुगल शासकों ने बड़ी निर्ममता से कत्ल किया था उनके अंतिम संस्कार के लिए निकलने वाले टोडरमल जी के साथ वह कुछ नहीं करते ? इतिहास इस बात का साक्षी है कि मुगल शासकों ने टोडरमल को भी परिवार सहित कोल्हू में पेरकर समाप्त कर दिया था। यदि गुरुजी के बच्चों का बलिदान देश की सांस्कृतिक विरासत के लिए था तो टोडरमल जी का बलिदान भी गुरुजी के आदर्शों के लिए था।
भारतवर्ष के अधिकांश लोग इस बात को भली प्रकार जानते हैं कि मुगल या मुगलिया विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोगों के साथ भारत की आत्मा का छत्तीस का आंकड़ा रहा है और सिक्ख समाज के वीर वीरांगनाओं ने भारत की मुख्यधारा के साथ चलकर देश के लिए अप्रतिम बलिदान दिए हैं। इन बलिदानों का हिंदू समाज ने भी सदा सम्मान किया है और जब आवश्यकता पड़ी है तो सिक्खों की गुरु परंपरा का सम्मान करते हुए अपने आपको भी उसके साथ समर्पित करके उसके लिए बलिदान देने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया है। एक समय ऐसा भी आया था जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर मुगलों ने कब्जा कर लिया था। तब हिंदू राजा सदाशिव ने अपनी सेना के साथ स्वर्ण मंदिर की रक्षा के लिए प्रस्थान किया था और बड़ी संख्या में अपने लोगों का बलिदान देकर गुरु परंपरा की लाज रखी थी।
इसका कारण केवल एक था कि गुरु नानक से लेकर गुरु गोविंद सिंह तक कोई भी गुरु ऐसा नहीं था जो केवल और केवल सिक्खों का ही हो, इसके विपरीत हिंदू समाज के लोग भी उन्हें अपना गुरु ही मानते थे। यह बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि हमारी गुरु सिक्ख परंपरा में जितने भी गुरु रहे हैं वे सभी मूल रूप से वैदिक धर्मी हिंदू ही रहे थे।
सिक्ख शब्द की उत्पत्ति शिष्य से हुई है। जहां गुरु जी हैं वहां समझिए कि शिष्य अर्थात सिक्ख भी है। गुरु शिष्य की हमारी यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। उपनिषदों की यदि संवादात्मक शैली को पढ़ा समझा जाए तो वहां पर भी गुरु शिष्य परंपरा के साक्षात दर्शन होते हैं। गुरुजी ने जिस समय पंच प्यारों की घोषणा की थी तो जिन 5 लोगों ने अपने आपको गुरु जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर देश की महान सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए बलिदान के लिए समर्पित किया था वह पांचों भी मूल रूप से हिंदू ही थे।
भारत की इस महान गुरु सिक्ख परंपरा में विश्वास रखने वाला कोई भी सिक्ख देशद्रोही या देश विरोधी नहीं हो सकता। आज भी वह देश की मुख्यधारा के साथ रहकर चलने में विश्वास रखता है। क्योंकि वह जानता है कि इतिहास की शानदार विरासत को कलंकित करना देश समाज और अपनी आत्मा के साथ साथ गुरुओं की पुण्य आत्मा के साथ भी विश्वासघात करना होगा। खालिस्तान की मांग करने वाले लोग कभी भी सच्चे सिक्ख नहीं हो सकते। गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने चार पुत्रों का बलिदान देश धर्म की रक्षा के लिए दिया था। उस समय उनका एक पांचवा पुत्र भी था, जिसने गुरुजी की परंपरा में विश्वास न रखकर मुगलों के साथ जाना उचित माना था। उसके इस प्रकार के कदम का विरोध उस समय हिंदू और सिक्ख दोनों ने ही किया था। आज भी जो लोग गुरुओं की पवित्र परंपरा को कलंकित करते हुए आज के मुगलों की गोद में जाकर खेल रहे हैं उनके विरुद्ध भी सामूहिक और ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
हम नहीं चाहते कि 1980 का दशक लौट कर आए और वहां पर (पंजाब में) हिंदुओं या देशभक्त सिक्खों का उसी प्रकार कत्ल हो जैसा उस दौर में हुआ था। हम यह भी नहीं चाहेंगे कि 1984 के नवंबर की घटनाओं की पुनरावृति हो। उन घटनाओं से बहुत भारी क्षति हम दोनों मिलकर उठा चुके हैं । अब उन घावों को भर कर आगे की ओर देखने का समय है। पाकिस्तान, कनाडा, ब्रिटेन सहित किसी भी विदेशी शक्ति या देश के हाथों का खिलौना बनना गुरुओं के किसी भी शिष्य के लिए शोभनीय नहीं है जो हमारे देश की एकता ,अखंडता और वैश्विक मामलों में बढ़ती उसकी प्रभुता को स्वीकार नहीं करते हैं।
यह एक शुभ संकेत है कि अलगाववाद की राहों पर चलने वाले अमृतपाल सिंह का विरोध करने के लिए देशभक्त सिक्ख सामने आ रहे हैं और भारत माता के नारे लगाते हुए मां भारती के प्रति अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। इसी विचार और परंपरा को मजबूती के साथ आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। देश विरोधी गतिविधियों में लगे लोगों के विरुद्ध केंद्र और पंजाब सरकार को मिलकर कड़ी कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए। कहीं से भी ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए कि केंद्र और पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार विपरीत दिशा में जा रहे हैं। दोनों को समन्वित सोच के साथ केवल और केवल आतंकवादियों के विरुद्ध कठोरता का प्रदर्शन करते हुए गुरुओं की महान विरासत की रक्षा का संकल्प लेकर काम करना चाहिए। सारा देश केंद्र की मोदी सरकार और पंजाब की भगवंत मान की सरकार की इस प्रकार की संयुक्त रणनीति की सफलता की कामना करता है।
अन्त में एक उदाहरण देकर अपनी बात को समाप्त करता हूं। अभी हमने सरदार भगत सिंह जी और उनके साथियों का बलिदान दिवस 23 मार्च को मनाया है। अब से 92 वर्ष पहले भगत सिंह और उनके साथियों ने देश की एकता, अखंडता व स्वाधीनता के लिए अपना बलिदान दिया था। सरदार भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह की बेटी श्रीमती वीरेंद्र सिंधु ने अपने द्वारा लिखित पुस्तक “सरदार भगत सिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे” में एक घटना का उल्लेख किया है। वह हमें बताती हैं कि सरदार भगत सिंह राजनीतिक क्षेत्र में अपने चाचा सरदार अजीत सिंह को अपना गुरु मानते थे।
सरदार अजीत सिंह जी के जीवन के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। उन्होंने अपने विवाह के कुछ समय पश्चात ही घर से निकल कर देश सेवा के लिए काम करने का व्रत ले लिया था। एक दिन वह अपनी पत्नी से यह कहकर घर छोड़कर चले गए कि मैं परसों को लौट कर आऊंगा। इसके बाद उनकी परसों 37 वर्ष पश्चात आई। जब उन्होंने घर छोड़ा था तब 1910 का वर्ष चल रहा था और जब घर लौट कर आए तो 1947 आ गई थी। तब तक सरदार अजीत सिंह काफी वृद्ध हो चुके थे। बाल सफेद हो चुके थे । कमर झुक चुकी थी। चेहरे पर झुर्रियां आ गई थीं। तब उनकी पत्नी ने भी उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया था। सरदार अजीत सिंह ने अपने कई ऐसे संस्मरण सुनाए जिन्हें सुनकर उनकी पत्नी को यह विश्वास हुआ कि वह सरदार अजीत सिंह ही हैं।
।14 अगस्त 1947 को जब देश बांटा जा रहा था तब सरदार अजीत सिंह का दिल टूटता जा रहा था। उन्हें इस बात की बहुत भारी चिंता थी कि पाकिस्तान में रह गये और हिंदुओं और सिक्खों का क्या होगा ? इसके साथ ही साथ उनके देश के क्षेत्र के बीच से उभरती हुई विभाजन की रेखा भी उन्हें ऐसे लग रही थी जैसे यह रेखा उनके कलेजा को ही चीरती हुई जा रही है। उन्होंने कहा था कि ना नेहरू कुछ करेगा ना जिन्ना कुछ करेगा। मेरे देशवासियों का क्या होगा ? क्या हमने इसी बात के लिए लड़ाई लड़ी थी ?
प्रातः काल में उन्होंने अपने परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ बैठने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने सबके सामने प्रस्ताव रखा कि आप मेरी बात सुनो। मैं अब जीवित रहना नहीं चाहता। आज मैं जा रहा हूं। आप जो चाहें सो लिखवा सकते हैं। परिवार के लोगों ने उनकी बात को हल्के में लिया और उनकी इच्छा होने पर भी उनसे कोई वसीयत नहीं लिखवाई। तब सरदार अजीत सिंह ने अपनी पत्नी को कहा कि सरदारनी जी ! तनिक इधर आइए। सरदारनी आगे आती हैं तो वह अपने स्थान से उठते हैं और उनके पैरों को छूकर कहते हैं कि मैंने आपसे विवाह किया, मैं कसूरवार हूं कि मैंने परिवार का कोई दायित्व निर्वाह नहीं किया और आपको कष्ट दिया। मुझे क्षमा कर देना। सरदारनी अच्छे संस्कारों की महिला थीं। वे पीछे हट गई। कहने लगी “नहीं पतिदेव ! आप ऐसा मत कहिए ।” तब सरदार अजीत सिंह अपने सोफे पर पीछे की ओर लेट गए और ऊंची आवाज में जय हिंद का घोष करते हुए संसार से चले गए।
आज हम सब देशवासियों को सरदार अजीत सिंह जैसे महान देशभक्तों के जीवन आदर्शों से शिक्षा लेने की आवश्यकता है। यह सच है कि अधिकांश सिक्ख भी खालिस्तान नहीं चाहते वे आतंकवादियों से ‘खाली’ ‘स्थान’ चाहते हैं। इसी विचार को लेकर हमें आगे बढ़ना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक “भारत को समझो” अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता और सुप्रसिद्ध इतिहासकार हैं)

Comment:Cancel reply

Exit mobile version