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मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 22 ( क ) महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह

महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह

महाराणा प्रताप और अकबर दोनों युद्ध की तैयारी में लगे हुए थे। जून 1576 ई0 में अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हुए इस युद्ध को ही इतिहास में हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से पुकारा जाता है। इस युद्ध का आंखों देखा वर्णन करते हुए अल बदायूंनी ने अपनी पुस्तक ‘मुंतखाब- तारीख’ में लिखा है :-
“जब मानसिंह और आसफ खान गोगुंदा से सात कोस पर दर्रे के पास शाही सेना सहित पहुंचे तो राणा लड़ने को आया। ख्वाजा मोहम्मद रफी बदख्शी, शियाबुद्दीनगुरोह, पायंदाह कज्जाक, अलीमुराद उजबक और राणा लूणकरण तथा बहुत से शाही सवारों सहित मानसिंह हाथी पर सवार होकर मध्य में रहा और बहुत से प्रसिद्ध जवान पुरुष हरावल के आगे रहे। चुने हुए आदमियों में से 80 से अधिक लड़ाके सैयद हाशिम बारहा के साथ हरावल के आगे भेजे गए और सैयद अहमद खान बारहा दूसरे सैय्यदों के साथ दक्षिण पार्श्व में रहा। शेख इब्राहिम चिश्ती के संबंधी अर्थात सीकरी के शेखजादों सहित काजी खान वाम पार्श्व में रहा और मिहतर खान चंदाबल में। राणा कीका ने दर्रे ( हल्दीघाटी ) के पीछे से 3000 राजपूतों सहित आगे बढ़कर अपनी सेना के दो विभाग किए।
एक विभाग के सेनापति हकीम सूर अफगान ने पहाड़ों से निकलकर हमारी सेना के हरावल पर आक्रमण कर दिया। भूमि ऊंची नीची, रास्ते टेढ़े मेढे हैं और कांटे युक्त होने के कारण हमारी हरावल में हड़बड़ी मच गई। जिससे हमारी हरावल में पूर्णतया पराजय हुई। हमारी सेना के राजपूत जिनका मुखिया राजा लूणकरण था और जिनमें से अधिकतर वाम पार्श्व में थे। भेड़ों के झुंड की तरह भाग निकले और हरावल को चीरते हुए अपनी रक्षा के लिए दक्षिण पार्श्व की ओर दौड़े। इस समय मैंने आसिफ खान से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे कर सकेंगे? उसने उत्तर दिया कि तुम तो तीर चलाए जाओ, चाहे जिस पक्ष के आदमी मारे जाएं इस्लाम को तो उससे लाभ ही ही होगा। इसलिए हम तीर चलाते रहे और भीड़ ऐसी थी कि हमारा एक भी वार खाली नहीं गया और काफिरों को मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। इस लड़ाई में बारहा के सैयद तथा कुछ वीर जवानों ने रुस्तम की सी वीरता का प्रदर्शन किया। दोनों पक्षों के मरे हुए वीरों से रण खेत छा गया।”
अल बदायूंनी का यह वर्णन बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है कि चाहे अकबर की सेना कितनी ही भारी थी और चाहे कितनी ही बड़ी तैयारी के साथ क्यों नहीं वह हल्दीघाटी में पहुंचा था पर उसे इस युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा था। इस पर हम आगे विस्तार में प्रकाश डालेंगे कि हल्दीघाटी के युद्ध में किसकी जीत और किसकी पराजय हुई थी ?

हल्दीघाटी का युद्ध हिंदू मुस्लिम का युद्ध था

इस वर्णन से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि उस समय मुसलमान केवल राज्य विस्तार के लिए ही नहीं लड़ रहे थे बल्कि वे काफिरों के विनाश के लिए भी लड़ रहे थे। उनके मन मस्तिष्क में यह युद्ध पूर्णतया हिंदू मुस्लिम का था।

निज देश धर्म की रक्षा हेतु हर युद्ध लड़ा था हिंदू ने।
दुश्मन को मारा काटा हर क्षण जहां भी देखा हिंदू ने।।

यह बात इसलिए भी समझ लेने की आवश्यकता है कि कुछ छद्म इतिहासकार महाराणा प्रताप और अकबर के युद्ध को हिंदू-मुस्लिम का न कहकर दो राजाओं के बीच का संघर्ष सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। जबकि बदायूंनी स्पष्ट कह रहा है कि उस समय यह नहीं देखा जा रहा था कि कौन राजपूत कौन से पक्ष का है ? हमें केवल मारने से मतलब था, क्योंकि इससे एक काफिर ही कम हो रहा था और उसका अंतिम लाभ इस्लाम को मिलना था। इस्लाम को मानने वाले मुसलमान लोग इस युद्ध को केवल इसलिए लड़ रहे थे कि वे अपनी इस्लामिक संस्कृति को भारत पर थोप सकें। स्वाभाविक बात है कि जो लोग इस प्रकार की इस्लामिक सोच का प्रतिरोध कर रहे थे वह अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए अथवा कहिए कि अपनी वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए इस युद्ध को लड़ने के लिए कटिबद्ध थे। ऐसे में हल्दीघाटी के युद्ध को हिंदू-मुस्लिम का युद्ध कहा जाना ही उचित होगा।

यदि हम बदायूंनी के इस अभिप्राय को सही अर्थों में समझ लेंगे तो हमें यह कहने में भी किसी प्रकार का संकोच नहीं होगा कि महाराणा प्रताप के पक्ष से जो भी लोग उस समय युद्ध क्षेत्र में शत्रु सेना का सफाया कर रहे थे, वे सब अपने देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए संकल्पित होकर ऐसा कर रहे थे।

महाराणा प्रताप की सेना का शौर्य

महाराणा प्रताप की मुट्ठी भर सेना अपने पूर्ण पराक्रम के साथ अदम्य साहस और शौर्य का परिचय देते हुए युद्ध कर रही थी। एक इंच भी पीछे हटना उसे स्वीकार नहीं था। हमारे वीर योद्धाओं को यह भली प्रकार ज्ञान था कि आज युद्ध के मैदान से पीछे हटने का अभिप्राय और परिणाम क्या हो सकता है ? मुस्लिमों की सेना अपने सब आव – दांव भूल गई थी। अबुल फजल जैसे चाटुकार इतिहास लेखक को भी हमारी हिंदू सेना की वीरता के संबंध में ‘अकबरनामा’ में यह लिखना पड़ा :-
“दोनों पक्षों के वीरों ने लड़ाई में जान सस्ती और इज्जत महंगी कर दी। जैसे पुरुष वीरता से लड़े वैसे ही हाथी भी लड़े। महाराणा की ओर के शत्रुओं की पंक्ति को तोड़ने वाले लूणा हाथी के सामने जमाल खान फौजदार गजमुक्त हाथी को ले आया। शाही हाथी घायल होकर भाग ही रहा था कि शत्रु के हाथी का महावत गोली लगने से मर गया, जिससे वह लौट गया। फिर राणा का प्रताप नामक एक संबंधी मुख्य हाथी ‘ रामप्रसाद’ को ले आया। जिसने कई आदमियों को पछाड़ डाला। हारती दशा में कमाल खान गजराज हाथी को लाकर लड़ाई में सम्मिलित हुआ। पंचू रामप्रसाद का सामना करने के लिए रंगदार हाथी को लाया। जिसने अच्छा काम किया । उस हाथी के पांव भी उखड़ने वाले थे, इतने में रामप्रसाद हाथी का महावत तीर से मारा गया। तब वह हाथी पकड़ा गया। जिसकी बहादुरी की बातें शाही दरबार में अक्सर हुआ करती थीं।”

जब वक्त पड़ा था आफत का हाथी भी हमारे साथी थे,
दुश्मन को मार भगाने को तब बुलंद हौसले काफी थे।

अबुल फजल के कथन का अभिप्राय

अबुल फजल के बारे में हमें यह समझ लेना चाहिए कि वह अकबर का मुंह लगा इतिहासकार था। उसने यदि राजपूत सैनिकों के लिए भी यह लिखा है कि उन्होंने जान सस्ती और इज्जत महंगी कर दी थी तो समझिए कि उस दिन राजपूतों की वीरता को वह सीधे-सीधे स्वीकार कर रहा था। इसके अतिरिक्त अपने इस उद्धरण में अपनी सेना के लिए उसके द्वारा यह कहना कि “हारती दशा में कमाल खान…” तो स्पष्ट रूप से यह है बताता है कि उस दिन अकबर की सेना की हार हो रही थी। अबुल फजल की यह विशेषता रही है कि वह अपने इतिहास लेखन में सदा इस्लाम पक्ष को बहादुर और हिंदू पक्ष को कमजोर और कायर दिखाने का प्रयास करता रहा है। परंतु आज यदि उसने दोनों का शक्ति संतुलन बराबर भी मान लिया है और उसमें भी मुगलों के लिए ‘हार’ शब्द का प्रयोग किया है तो इसका गहरा अर्थ है ?
उस दिन राजपूतों के शौर्य ने मुगलों को अंदर तक हिला कर रख दिया था। ‘अकबरनामा’ में ही अबुल फजल ने यह भी लिखा है कि “सरसरी तौर से देखने वालों की दृष्टि में तो महाराणा प्रताप की जीत नजर आती थी। इतने में ही एकाएक शाही फौज की जीत होने लगी। हुआ यह कि सेना में यह अफवाह फैल गई कि बादशाह अकबर स्वयं युद्ध क्षेत्र में आ पहुंचा है। इससे बादशाही सेना में जान आ गई और शत्रु सेना की जो जीत पर जीत प्राप्त कर रही थी, हिम्मत टूट गई।”
वास्तव में इस प्रकार लिखकर अबुल फजल ने अपने बादशाह की झूठी प्रशंसा करने का ही प्रयास किया है। वह सीधे-सीधे अकबर की पराजय स्वीकार न करके बात को घुमा फिरा रहा है। किसी भी शत्रु इतिहासकार की यही विशेषता भी होती है कि वह अपनी लेखनी का चमत्कार दिखाते हुए जीतते हुए पक्ष को पराजित दिखा सकता है और पराजित को जीता हुआ घोषित कर सकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।
अब तक रूप में मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा नामक हमारी है पुस्तक अभी हाल ही में डायमंड पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हो चुकी है । जिसका मूल्य ₹350 है। खरीदने के इच्छुक सज्जन 8920613273 पर संपर्क कर सकते हैं।)

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