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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति: इतिहास, पशुहिंसा और अश्लीलता, गतांक से आगे…

गतांक से आगे…

शतपथब्राह्मण में लिखा है कि–

यदा पिष्टान्यथ लोमानि भवन्ति। यदाप आनयति अथ त्वग्भवति ।
यदा स यौरवच मांसं भवति । संतत इब हि तहि भवति संततमिव हि मांसम् ।
यातोऽचास्थि भवति दारूण इव हि तर्हि भवति दारुणमिध्यास्थि ।
अथ यदुद्वासयत्रभिधारयति तं मञ्जानं ददाति । एषो सा संपचदाहुः पक्तिः पशुरिति ।
अर्थात् जो आटा है, उसी की लोम संज्ञा है। जब उसमें पानी मिलाया जाता है, तब वही चर्म संज्ञावाला होता है। जब गूंधा जाता है, तब मांस संज्ञावाला कहलाता है। जब तपाया जाता है, तब उस तपे हुए का नाम अस्थि होता है और जब उसमें घी डाला जाता है, तब वह मज्जा कहलाता है। इस तरह से इस पके हुए पदार्थ का नाम पशु है। इसी तरह के पारिभाषिक नाम ऐतरेयब्राह्मण (2/6/9) में भी गिनाये गये हैं। वहाँ लिखा है कि-

स वा एष पशुरेवालभ्यते यत्पुरोडाशस्तस्य यानि किशारूपाणि तानि रोमाणि
ये तुषाः सा त्वग् ये फलीकरणास्तदसृग् यत्पिष्टं तन्मांसम् ।एष पशूनां मेघेन यजते ।
अर्थात् इस पुरोडाश में जो दाने हैं, वही राम कहलाते हैं, जो भूसी है वही त्वाच कहलाती है, जो टुकड़े हैं वहीं सींग कहलाते हैं और जो आटा है वही मांस कहलाता है। इस प्रकार के पके हुए अन्न का नाम पशु है। जिस प्रकार फलों के अवयेवों को मांस, अस्थि और मजा कहा गया है, जिस प्रकार प्राणी के शरीरावयवों को मांस, अस्थि और मज्जा आदि कहा जाता है और जिस प्रकार भूसी, कण और भात को खाल, अस्थि और मांस कहा गया है, ठीक उसी
(…हरिणीः श्येनीरस्य । इति अथर्ववेदे ।।)
तरह फल और अन्न के उन – उन अवयवों से बने हुए हवनीय द्रव्यों को भी उन्हीं – उन्हीं नामों में कहा गया है और जिसे प्रकार अग्नि को पशु, वायु को पशु, सूर्य को पशु और पुरुष को पशु कहा गया है, उसी तरह उन- उन अवयववाले समस्त हवनीय पदार्थों को भी समष्टिरूप से पशु ही कहा गया है। क्योंकि हवनीय द्रव्यों के खाने से ही पोषकशक्ति की प्राप्ति होती है, इसी से उनका समूह पशु कहलाता है। इस पशु से चतुष्पाद पशु का कुछ भी वास्ता नहीं है, जैसा कि स्वयं वेद ने ही स्पष्ट कर दिया है। जिस प्रकार अस्थिमांसवाले मनुष्य को पुरुषपशु कहा गया है और जिस प्रकार अस्थिमांस के होने से चतुष्पाद पशु भी पशु कहा गया है, उसी तरह अस्थि, मांस, मज्जावाले ग्राम आदि फल और घान यादि श्रन भी पशु ही हैं, जैसा कि –
‘अश्वाः कणा गावस्तण्डुलाः’
में वेद ने कह दिया है। इस प्रकार से इस अन्न और फलमय पशु का – देखने, सुनने, स्मरण करने की पोषक शक्ति देनेवाले हवनीय अन्नमय पशु का यज्ञ में विधान है, परन्तु गौ आदि चतुष्पाद पशुओं के होम का विधान नहीं है ।

इस अन्नामय पशु के हवन का ही विधान वेद में सर्वत्र पाया जाता है। हम द्वितीय खण्ड के यज्ञप्रकरण में लिख आये हैं कि तीन प्रकार के यज्ञ हैं। एक ब्रह्माण्डयज्ञ है, दूसरा पिण्डयज्ञ है और तीसरा यह घृतादि का लौकिक यज्ञ है । जिस प्रकार इस घृतादि के सांसारिक यज्ञ को अन्न से ही करने का विधान है, उसी तरह पिण्ड और ब्रह्माण्ड के भी दोनों यज्ञ अन्न से ही करने के लिए कहा गया है और वहाँ भी अन्न पशु के सन्देह का स्पष्टीकरण कर दिया गया है । जिस प्रकार संसार की गौ बछड़े आदि संदिग्ध शब्दों के लिए खुलासा कर दिया गया है कि धान ही गौ हैं, तिल ही बछड़े हैं, उनका श्याम भाग ही मांस है और लालिमा ही रक्त है, इसी प्रकार आकाशी गौ के लिए भी स्पष्ट कर दिया गया है। अथर्ववेद में लिखा है कि-
अग्निर्यव इन्द्रो यवः सोमो यवः । यवयावानो देवा० (प्रथर्व० 9/2/13)

अर्थात् अग्नियव, इन्द्रयव, सोमयव और यववाली अन्नादि चीजें सब यव ही है और देवता इन यवों को प्राप्त होते हैं। यहाँ पर खुलासा कर दिया कि ‘अग्निः पशुरासीत्’ में जो अग्नि को पशु कह आये हैं, वह अग्निपशु चतुष्पाद पशु नहीं है, प्रत्युत यवरूपी ही पशु है। इसी तरह शारीरिक यज्ञ के प्रकरण में भी कह दिया है कि-

प्राणापानौ व्रीहियवावगवान् प्राण उच्यते ।
यवे ह प्राण आहितोsपानो व्रोहिरुच्यते । (अथर्व० 11/4/13)

अर्थात् प्राण और अपान ही व्रीहि और यव हैं। प्राण ही बैल है। जो में ही प्राण रक्खा हुआ है और अपान ही ब्रीहि कहलाता है । इस वर्णन से भी ज्ञात हो गया कि यहाँ भी प्राण को बैल बतलाकर बैल को भी अन्न ही कह दिया है, चतुष्पाद बैल नहीं । कहने का मतलब यह कि यज्ञ के प्रकरण में जहाँ कहीं पशु शब्द से सम्बन्ध रखनेवाले शब्द आये है उन सबका मतलब अन्न ही है, चतुष्पाद पशु नहीं। क्योंकि गोपथ 4/6 में स्पष्ट लिखा है कि ‘पशवो वै धाना’ अर्थात् धान्य ही पशु है।
यहाँ तक वेद में आये हुए मांसयज्ञसम्बन्धी द्वयर्थक शब्दों का विवेचन हुआ। इस विवेचन से ज्ञात हुआ कि वेद में दुव्यर्थक शब्दों से जो भ्रम हो सकता है, उसका निराकरण स्वयं वेदों ने ही कर दिया है और स्पष्ट कर दिया है। कि वेदों में अन्न के ही हवन की विधि है, पशु के हवन की नहीं। यह बात और भी पुष्ट हो जाती है जब हम मध्यम- कालीन साहित्य को देखते हैं। यद्यपि मध्यम काल में असुरों के द्वारा दृद्व्यर्थक शब्दों के सहारे किया हुआ अर्थ प्रचलित हो गया था और यज्ञों में पशुवध होने भी लगा था, परन्तु यह पशुवध सर्वसम्मति से स्वीकार नहीं कर लिया गया था। इसमें मतभेद था और पशु यज्ञ से सम्बन्ध रखने वाले अनेकों प्रयोगों का अर्थ दो प्रकार से किया जाता था।

(अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेयानं तथा परे ।
अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति ।। (भगवद्गीता 4/29/30)

क्रमशः

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