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मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 18 ( क ) महाराणा उदय सिंह और उनकी शौर्य गाथा

महाराणा उदय सिंह और उनकी शौर्य गाथा

जुलाई 1540 ईस्वी में महाराणा उदय सिंह मेवाड़ के शासक बने। उनको इतिहास में बहुत ही उपेक्षित स्थान दिया गया है। सामान्यतया इस महाराणा के विषय में लोगों में ऐसी अवधारणा है कि वह अपने पिता महाराणा संग्राम सिंह और पुत्र महाराणा प्रताप सिंह के बीच में एक ऐसी कड़ी हैं जिन्होंने कोई विशेष और उल्लेखनीय कार्य अपने शासनकाल में नहीं किया। इतना ही नहीं कई लोग तो उन्हें इतना दुर्बल शासक दिखाते हैं कि उनके बारे में पाठक ऐसी अवधारणा बनाने के लिए बाध्य हो जाता है कि वह महाराणा संग्राम सिंह की संतान होने के और महाराणा प्रताप सिंह के पिता होने के योग्य नहीं थे। उन्होंने मेवाड़ के एक कायर राजा के रूप में दिखाया जाता है। उनके विषय में यह भी कहा जाता है कि महाराणा उदय सिंह का लालन-पालन राजभवनों से दूर हुआ। जिसका परिणाम यह निकला कि वह ऐसी शिक्षा दीक्षा नहीं ले पाए जो एक शासक के लिए अनिवार्य होती है। यही कारण रहा कि उसके भीतर वह वीरता नहीं दिखती जो एक राणा वंश के शासक से अपेक्षित है। यह बात अलग है कि राणा उदय सिंह के भीतर ऐसे सभी गुण और साहस विद्यमान था जो एक वीर क्षत्रिय योद्धा के भीतर होना चाहिए।
अपने क्षत्रिय वीर योद्धा के साथ किया गया ऐसा अन्याय अपने देश की इतिहास की परंपरा के साथ किया गया अन्याय तो है ही साथ ही आने वाली पीढ़ियों के साथ भी अन्याय है। जैसा हमको इतिहास में महाराणा उदय सिंह के विषय में पढ़ाया गया है वैसा ही हमने सच मान कर उनके प्रति उपेक्षा का भाव अपना लिया है। महाराणा उदय सिंह को दुर्बल और कायर दिखाने का एक तर्क यह दिया जाता है कि जब पन्नाधाय उन्हें इधर-उधर लिए घूम रही थी तो उनका लालन पालन एक वैश्य आशाशाह के यहां पर हुआ था । जहां उनकी शिक्षा दीक्षा का उचित प्रबंध नहीं किया गया और उन्हें क्षत्रियोचित शिक्षा दीक्षा नहीं मिल सकी।
इसके संबंध में हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि राणा उदय सिंह को जब आशा शाह के यहां पर गुप्त रूप से रहना पड़ा था तो आशाशाह यह भली प्रकार जानते थे कि वह जिस राजकुमार का पालन पोषण कर रहे हैं वह महाराणा संग्राम सिंह का पुत्र है। इसीलिए उन्होंने महाराणा उदय सिंह की शिक्षा दीक्षा वैसी ही करवाई जैसी उनके लिए अपेक्षित थी।
यहां पर हमको यह भी समझना चाहिए कि महाराणा उदय सिंह जिस समय आशाशाह के यहां पर पहुंचे थे, उस समय उनकी अवस्था 15 – 16 वर्ष थी। कहने का अभिप्राय है कि वह अबोध बालक नहीं थे। हमारे क्षत्रिय कुलों में जन्मे अनेक ऐसे बालक हुए हैं जिन्होंने इतनी अवस्था में बड़े बड़े संघर्ष किए हैं। इतनी अवस्था का बालक यह भली प्रकार जानता है कि वह किस वंश का है और उसे संसार में रहकर क्या करना है ? महाराणा उदय सिंह भी यह भली प्रकार जानते थे कि वह किस महाराणा संग्रामसिंह की संतान हैं और उन्हें भविष्य में कैसे-कैसे शत्रुओं से संघर्ष करना है? उन्होंने अपनी सुरक्षा में माता पन्नाधाय के योगदान को भी भली प्रकार समझ लिया था। जब उन्हें चित्तौड़ के कुछ सरदार या मंत्री आशाशाह के यहां से लेने के लिए गए थे तो उस समय उनकी अवस्था 18 वर्ष से अधिक थी। तब तक वह अपने आप को महाराणा के रूप में पहचान चुके थे। यदि उनके भीतर किसी प्रकार की भीरुता या कायरता या दुर्बलता होती तो वह उन सरदारों के इस प्रकार के प्रस्ताव को मानने से इंकार कर देते और कह देते कि वह अब केवल व्यापार का काम करना चाहते हैं इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं बनना चाहते। पर उन्होंने ऐसा किया नहीं ।
इसका अभिप्राय यही है कि वह मानसिक रूप से अपने आप को एक महाराणा के रूप में ही देखते थे। वह यह भी मानते थे कि समय आने पर वह अपनी किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी से भागेंगे नहीं। महाराणा उदय सिंह ने हमारे इस मत की पुष्टि उस समय की जब वह चित्तौड़गढ़ में प्रवेश पाने में सफल हुए और अपने सबसे बड़े और सबसे पहले शत्रु बनवीर को समाप्त करने में सफल हुए। बनवीर को समाप्त करके राणा उदय सिंह ने अपनी वीरता का परचम लहराया। उन्होंने अपने पूर्वजों की मर्यादा का पालन किया और चित्तौड़ को फिर से अपने हाथों में लेकर यह सिद्ध किया कि उनके भीतर महाराणा संग्राम सिंह का रक्त दौड़ता है। उन्होंने उजड़ी हुई मेवाड़ को और उसकी बिगड़ी हुई दशा को फिर से स्थापित करने और संवारने पर ध्यान दिया।
कई लोगों की ऐसी मान्यता है कि महाराणा प्रताप सिंह अक्सर यह कहा करते थे कि मेरे और बप्पा रावल ( यहां पर इसका अर्थ महाराणा संग्राम सिंह से है ) के मध्य यदि राणा उदयसिंह ना होते तो चित्तौड़ और भारतवर्ष का इतिहास कुछ और ही होता। यदि महाराणा प्रताप अपने पिता के विषय में ऐसा कहा करते थे तो उसका भी एक कारण है , जिस पर यहां प्रकाश डालना उचित होगा। महाराणा उदय सिंह ने 1540 ईसवी से लेकर 1572 ईसवी तक कुल मिलाकर लगभग 32 वर्ष तक मेवाड़ पर शासन किया। 4 अगस्त 1522 को जन्मे महाराणा उदयसिंह की मृत्यु 28 फरवरी 1572 को हुई थी। महाराणा की मृत्यु के समय उनकी अवस्था 42 वर्ष थी और उनकी विभिन्न रानियों से उन्हें 24 पुत्र प्राप्त हुए थे। उनकी सबसे छोटी रानी का लड़का जगमल था। इस जगमल से महाराणा उदय सिंह का असीम अनुराग था। महाराणा उदय सिंह ने अपनी मृत्यु के समय अपने इसी पुत्र जगमल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
महाराणा उदय सिंह अपने पुत्र महाराणा प्रताप सिंह से अधिक लगाव नहीं रखते थे। इसका कारण चाहे जो हो पर यह बात निश्चित है कि वह अपने अंतिम दिनों में अपने पुत्र महाराणा प्रताप सिंह को उपेक्षित कर अपने सबसे छोटे पुत्र जगमल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर चुके थे। इस बात को थोड़ा सा हम गंभीरता से विचार करके देखें तो इस बात को समझने में देर नहीं लगेगी कि यदि महाराणा प्रताप अपने पिता के विषय में उपरोक्त विचार रखते थे तो उसका कारण यही था कि उनके पिता भी उनके विषय में अच्छी सोच नहीं रखते थे। पिता पुत्र की पारस्परिक अनबन , असहमति या मतभेदों को हम इस सीमा तक खींचकर नहीं ले जा सकते कि राणा उदय सिंह को पूर्णतया दुर्बल कायर और बेकार का शासक समझ लें। जब राणा उदय सिंह ने अपने पुत्र जगमल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था तो उसकी नियुक्ति के संबंध में अपने राजदरबारियों से अर्थात सरदारों, मंत्रियों से किसी प्रकार की कोई सहमति या स्वीकृति प्राप्त नहीं की थी। जबकि मेवाड़ की यह परंपरा रही थी कि वहां पर नए महाराणा की नियुक्ति पर मंत्रियों की सहमति, स्वीकृति और उनका सदपरामर्श लिया जाना आवश्यक होता था।
महाराणा उदय सिंह के इस निर्णय की जानकारी उनके मंत्रियों को उनकी मृत्यु के उपरांत ही हुई थी। यदि उनसे महाराणा उदय सिंह समय रहते परामर्श लेते तो वह जगमल को कदापि अपना महाराणा स्वीकार नहीं करते। मेवाड़ के मंत्रियों की यह सर्वसम्मति थी कि चित्तौड़ की रक्षा के लिए इस समय महाराणा का उत्तराधिकारी प्रताप सिंह को होना चाहिए। इसका कारण यही था कि उस समय चित्तौड़ पर संकट के बादल छाए हुए थे। अकबर 1563 ई0 में चित्तौड़ पर चढ़ाई कर चुका था। जिसमें वह असफल रहा था। इसके पश्चात उसने दूसरी चढ़ाई सन 1567 ई0 में की थी । जिसमें वह चित्तौड़गढ़ के दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित करने में सफल हो गया था। ऐसे में राणा उदयसिंह की मृत्यु के समय उनके उत्तराधिकारी की अनिवार्य योग्यता यही होनी चाहिए थी कि उसे चित्तौड़गढ़ को अकबर से पुनः लेना है। देश और मेवाड़ की इस अपेक्षा पर केवल राणा प्रताप सिंह ही खरे उतर सकते थे। यही कारण था कि मेवाड़ के सरदार अपने महाराणा के उत्तराधिकारी के रूप में महाराणा प्रताप सिंह को देख रहे थे। महाराणा उदय सिंह के छोटे पुत्र जगमल के भीतर ऐसी कोई योग्यता नहीं थी।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।)

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