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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-56

वेद (अथर्व 03/30/2) में आया है :-अनुव्रत: पितु पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्।।
वेद का आदेश है कि पुत्र अपने पिता का अनुव्रती हो, पिता के अनुकूल आचरण करने वाला हो। पिता के दिये गये निर्देशों का वह श्रद्घापूर्वक पालन करे। ध्यान रहे कि पिता का हृदय अपनी संतान के कल्याण के भावों से भरा रहता है, वह सदा ही उनकी उन्नति और प्रगति की अभिलाषा रखता है। उसके हृदय में अपनी संतान के उत्थान की एक से बढक़र एक योजना बनती रहती है। इसलिए उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अपनी संतान के अहित की कोई बात सोचेगा या करेगा, इसके विपरीत वह जो कुछ भी करेगा संतान हित में ही करेगा। अत: ऐसे पिता का अनुव्रती बनकर रहने का परामर्श वेद ने पुत्र को दिया है। यदि पुत्र ऐसे पिता का अनुव्रती नहीं बन पाता है तो वह पिता का हृदय नहीं जीत पाता है, अपितु हृदय के प्रति खिन्न मना रहता है। जिससे परिवार में तनाव और कुण्ठा का परिवेश व्याप्त हो जाता है। अशान्ति पूर्ण वातावरण में परिवार का हर सदस्य घुटन और कुण्ठा का अनुभव करने लगता है।
महर्षि मनु का कहना है कि-”अज्ञोभवति वै बाल: पिता भवति मंत्रद:” अर्थात जो अज्ञानी है-वह बालक है और जो उस अज्ञानी बालक को उत्थान और प्रगति का सत्य मार्ग बता रहा है-वह पिता है।
वेद और वैदिक संस्कृति में सर्वत्र सर्वप्रथम माता को ही पूजनीय माना गया है पर इस मंत्र में सर्वप्रथम पिता को स्थान दिया गया है और वेद कह रहा है कि-अनुव्रत: पितु: पुत्रो-इसका अभिप्राय है कि वेद कोई गहरी बात कह रहा है। बात गहरी ही है। वेद का ऋषि इस बात को जानता है कि बालक को अनुशासन में रखकर संसार के लिए या राष्ट्र के लिए उपयोगी नागरिक बनाने में पिता की भूमिका कहीं अधिक होती है। उसके अनुशासन में कड़ाई हो सकती है-जो बच्चे को जीवन भर काम आती है। माता की ममता में अनुशासन शिथिल पड़ सकता है। जिससे बच्चा उसका अनुचित लाभ उठा सकता है। इसलिए पिता को सर्वप्रथम स्थान देकर वेद संतान से यही अपेक्षा कर रहा है कि वह पिता की अनुव्रती हो, उसके अनुशासन को मानने वाली हो व जानने वाली हो। संतान यह समझे कि पिता का कठोर अनुशासन उसके भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए है। यहां पर पुत्र का अभिप्राय संतान से ही है। माता अनुशासन सिखाते-सिखाते अग्नि परीक्षा लेने के लिए बच्चे को आग में कूदने के लिए नहीं कह सकती। इसकी ममता ऐसा कड़ा आदेश देने के आड़े का जाएगी, परंतु पिता बच्चे को या अपनी संतान को उसके उज्ज्वल भविष्य के दृष्टिगत ऐसे कड़े आदेश भी दे सकता है। अत: पिता को वरीयता देते हुए वेद संतान से अपेक्षा करता है कि यदि वह अपना कल्याण चाहती है तो उसे पिता की आज्ञानुसार उसके अनुशासन का अनुव्रती होना ही चाहिए।
आगे वेद कहता है-मात्रा भवतु संमना: अर्थात माता के साथ पुत्र को या संतान को उसके समान मन वाला होना चाहिए। माता वाणी से कठोरता नहीं दिखा सकती। इसलिए उसका अनुशासन पिता की अपेक्षा शिथिल मान लिया जाता है, पर मां का मन भी पिता के हृदय के समान अपनी संतान के प्रति सुकोमल भावनाओं से भरा रहता है। वह हर सुख दु:ख में संतान का ध्यान रखने वाली होती है। आपकी आंखों के आंसू हो सकता है उसे रातभर न सोने दें, और आपकी एक बार की आह हो सकता है उसे अपने भारी दु:ख को भी भूलने के लिए विवश कर दे। आपकी पत्नी आपको सुबह का नाश्ता देना भूल सकती है या उसमें प्रमाद बरत सकती है, परन्तु मां से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। वह तो अपने दु:ख को भुलाकर प्रात:काल शीघ्र बिस्तर छोड़ेगी और आपको हाथ का बना भोजन देकर ही विद्यालय या कार्यालय भेजेगी। ऐसी मां बचपन से ही हमारे लिए अनेकों कष्ट उठाती है। वेद ऐसी प्रातरस्मरणीय या मां को सम्मान दिलाते हुए संतान को उपदेशित कर रहा है कि तुझे मां केे समान मन वाला होकर रहना है।
मां की इच्छा के अनुकूल यदि बच्चा चलना, फिरना, उठना बैठना और हर कार्य करना सीख लेगा तो वह कभी भी हठीला और जिद्दी नहीं बन पाएगा। मां का मन अपने बच्चे को जिद्दी बनाना भी नहीं चाहता, वह तो उसे संसार का सबसे सुंदर मानव बनाना चाहता है। अत: ऐसी मां को प्रसन्न रखने के लिए उसी के मन वाला बन जाना अपेक्षित है।
विश्व इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जो मां की ममता की महानता की कहानी सुनाते हैं। अनेकों महापुरूषों ऐसे हुए हैं-जिन्होंने मां के समान मन वाला होकर उच्चतम शिखर पर पहुंचने में सफलता प्राप्त की। यदि उनके भीतर जिद्दीपन या हठीलापन होता तो निश्चित था कि वह सफलता की इस सीढ़ी पर न पहुंच पाते।
वेद आगे कह रहा है-”जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्।” अर्थात पत्नी अपने पति के प्रति माधुर्ययुक्त वाणी का प्रयोग करे। जिससे पति भी प्रसन्न होकर पत्नी के साथ -शन्तिवाम्-शान्त होकर मधुर वाणी का व्यवहार करे। पति-पत्नी का व्यवहार बच्चों पर बड़ा भारी प्रभाव डाला करता है। जिन परिवारों में पति-पत्नी का व्यवहार परस्पर कटुता पूर्ण होता है-उन घरों में कभी भी शान्ति नहीं रह सकती। ऐसे परिवारों में सदा ही अशान्ति रहती है और सारा परिवार ही कलह का शिकार बना रहता है।
पति-पत्नी गृहस्थ की गाड़ी के दो पहिये हैं। यदि उनमें से एक पहिया भी कहीं टूट गया या पीछे छूट गया तो मानो परिवार फूट गया। यही कारण है कि वेद इन दोनों में परस्पर माधुर्ययुक्त व्यवहार की अपेक्षा करता है। परिवार वसुधा रूपी राष्ट्र परिवार की पहली ईकाई है। जिसे पति-पत्नी परस्पर प्रेमपूर्ण व्यवहार से जितना ही सुंदर बनाने का प्रयास करेंगे उतना ही वसुधा रूपी राष्ट्र परिवार उन्नत होगा। यदि पत्नी कुल्टा है या अपने पति की नाक में नकेल डालने का काम करने वाली है तो ऐसे परिवार में सदा आग लगी रहती है और यदि वह मधुर भाषिणी है तो लगी हुई आग को भी वह बड़ी सहजता से बुझा लेने की क्षमता रखती है। वेद ऐसी ही सन्नारी की कामना करता है जो ‘फायर ब्रिगेड’ का काम करे। इसके साथ ही पति को भी वेद बिना आज्ञा दिये नहीं छोड़ता। उसे निर्देश दिया गया है कि वह भी पत्नी के साथ शांत होकर मधुरवाणी का व्यवहार करे। उसके ऐसे व्यवहार से उत्साहित महिला सायंकाल को उसके शीघ्र घर लौट आने की कामना करती रहती है। यदि पति शराबी है और शराब पीकर पत्नी के साथ मारपीट करता है तो ऐसी पत्नी चाहे उसकी घर लौटने की इच्छा तो करती हो पर उसके आने की प्रतीक्षा नहीं करती और ना ही घर आने पर चाहते हुए भी उसका स्वागत कर पाती है। ऐसे में वेद ने दोनों को ही परस्पर माधर्ययुक्त व्यवहार करने की प्रेरणा दी है।
वेद ने पति-पत्नी के लिए यह भी मर्यादा स्थापित की है कि वे परस्पर ऐसे रहें जैसे दो पात्रों का जल एक साथ मिलने पर रहता है और जिसे फिर यह नहीं बताया जा सकता कि कौन सा जल कौन से पात्र का है? वह मिल गया तो मिल गया अब अलग नहीं हो सकता। ऐसे ही पति-पत्नी मिल गये तो अलग होने का अब कोई प्रश्न नहीं। अब उनके लिए उत्तम यही है कि वे अपनी-अपनी दुश्प्रवृत्तियों का अपने आप अनुशीलन करते रहें और यदि वे दुश्प्रवृत्तियां जीवन साथी को प्रिय नहीं हैं तो उन्हें अपने आप ही छोड़ते जाएं। निश्चय ही एक दिन सफलता अर्थात घर की शान्ति उन्हें संसार का सुंदर जोड़ा बना देगी। पति-पत्नी का एकीभाव जितना गहन और प्रगाढ़ होगा उतना ही परिवार के बच्चे अच्छा बनने का प्रयास करेंगे। आदर्शगृहस्थ के लिए आवश्यक है कि उन्हें परस्पर के भेद सन्देहादि से दूर रहना चाहिए।
क्रमश:

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