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संपादकीय

अब क्रान्ति होनी चाहिए

देश के विषय में ना तो कुछ सोचो ना कुछ बोलो ना कुछ करो और जो कुछ हो रहा है उसे गूंगे बहरे बनकर चुपचाप देखते रहो-आजकल हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता की यही परिभाषा है। यदि तुमने इस परिभाषा के विपरीत जाकर देश के बारे में सोचना, बोलना, लिखना, या कुछ करना आरम्भ कर दिया तो उसी दिन तुम बहुत बड़ा पाप कर बैठोगे और रातों-रात तुम्हारे कंधे पर एक साथ दो तमगे आ लगेंगे-एक तो होगा तुम्हारे साम्प्रदायिक होने का और दूसरा होगा तुम्हारे असहिष्णु होने का। अपने देश के बारे में सोचना, बोलना या कुछ करना हर देशवासी का धर्म है, पर हमारे धर्मनिरपेक्षियों ने हमें अपने इसी धर्म से वंचित कर दिया है। बार-बार मन में आता है कि यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है? कैसी राजनीतिक सोच है? कैसा चिन्तन है?
किसी भी राजनीतिक विचारधारा का जन्म अपने देश की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं की रक्षा करने के लिए होता है। हर देश जुनूनी स्तर तक अपने इन मूल्यों और अवधारणाओं के प्रति सजग, सावधान और सचेष्ट होता है। हर राजनीतिक मान्यता या विचारधारा अपने देशवासियों को एकता के सूत्र में पिरोकर उनके राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करने का वचन देती सी प्रतीत होती है, उसके लिए सब कुछ बाद में होगा पहले उसके लिए अपना देश है। चीन में कम्युनिस्ट राजनीतिक विचारधारा है पर उसके लिए अपना देश पहले है, अमेरिका में राष्ट्रपति शासन प्रणाली है, उस देश की शासन प्रणाली भ्ज्ञी अपने देशवासियों को अपने देश के समर्पित रहने का पाठ पढ़ाती है। ऐसा हर देश के साथ है। इसके विपरीत भारत की राजनीतिक विचारधारा रही है कि हम अपने देश के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को उजाडक़र यहां सब कुछ विदेशी थोपने का प्रयास करेंगे। भारत को उजाडक़र यहां सब कुछ विदेशी थोपने का प्रयास करेंगे। भारत को उजाडक़र उसे विश्व गुरू बनाने की यह अतार्किक धारणा या राजनीतिक कार्यशैली देश में तब पनपी है जब हमारे संविधान ने देश के नेताओं से यह वचन ले लिया है कि वे भारत की सामासिक संस्कृति को विश्वव्यापी बनाकर भारत को विश्वगुरू बनाने की दिशा में ठोस और सकारात्मक कार्य करेंगे।
इसके उपरान्त भी हमारे राजनीतिज्ञों ने जिस उलटी विचारधारा को अपनाया है उसका परिणाम ये आया है कि आज की भारत की युवा पीढ़ी पूछने लगी है कि यदि सब कुछ विदेशी ही ठीक है और यदि हमें विदेशियों ने ही बुद्घि सिखायी है तो फिर अंग्रेजों को देश से भगाने की मूर्खता ही क्यों की गयी थी? देश को आजाद कराने में प्रमुख भूमिका निभाने का दावा करने वाली कांग्रेस ने ही देश के युवा वर्ग की सोच की यह स्थिति बनायी है। विदेशियों का पिछलग्गूपन कांग्रेस की सोच में नहीं संस्कारों में समाया है। क्योंकि यह आज भी अपने जन्म के लिए उस एओ ह्यूम को जिम्मेदार मानती है और उसका उपकार अपने ऊपर मानती है, जिसने कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजों की विदेशी सत्ता की रक्षार्थ की थी। यह पार्टी ह्यूम के प्रति ऋणी हो सकती है, पर पूर्ण स्वाधीनता का पहली बार कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (1921) में प्रस्ताव लाने वाले मौलाना हसरत मोहानी को यह याद नही रख पायी जिस व्यक्ति को अपनी बात को मनवाने के लिए 1929 तक लगातार 9 वर्ष संघर्ष करना पड़ा था। यह उस ह्यूम नाम के विदेशी व्यक्ति को याद रखती है जो इसे अधिक से अधिक ‘डोमिनियन स्टेटस’ तक बढऩे की छूट देता था और इसे अंग्रेजों की चेरी बनाकर रखना चाहता था। कांग्रेस उस मोहानी को भूल गयी है जिसने इसे देश की मुख्यधारा से जुडऩे के लिए ‘राजभक्त’ से ‘राष्ट्रभक्त’ बनने की ओर बढऩे की प्रेरणा दी।
‘राजभक्त’ (यह पराधीनता के काल में अंग्रेजों के प्रति निष्ठा रखने वालों के लिए प्रयुक्त किया जाता था, जिस पर उस समय कांग्रेस को गर्व होता था) रहना कांग्रेस का मौलिक संस्कार है। जिसके चलते इसने भारत की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक उत्कृष्ट मान्यताओं का गुड़ गोबर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अभी पिछले दिनों भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने अपनी पुस्तक के माध्यम से स्पष्ट किया है कि कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म की विरोधी हैं। उन्हें घृणा है कि देश में हिन्दू नाम के प्राणी भी हैं। इसके उपरान्त भी देश में सहिष्णुता का ठेका कांग्रेस ने ले रखा है। जिसकी अध्यक्ष देश के बहुसंख्यक समाज से घृणा करती हो-वह दल देश में सहिष्णुता का ठेकेदार बनता हो और उस दल के सारे नेता अपनी नेता की आरती उतारकर उसे सबसे बड़ी पन्थनिरपेक्ष सिद्घ कर रहे हों तो यह स्थिति इस दल के राजनीतिक चिन्तन को बड़ी खूबी के साथ स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
कांग्रेसियों की इसी चाटुकारितापूर्ण अपसंस्कृति और आपराधिक मौन के चलते देश को हिन्दू राष्ट्र कहना या उसका सपना लेना अपराध हो गया है। ऐसा सोचना साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता का प्रतीक माना जाता है, जबकि एक ओर देश को चुपचाप इस्लामिक देश बनाने की योजना पर काम हो और दूसरी ओर ईसाई कण्ट्री बनाने की जोर-शोर से तैयारियां हों-यह धर्मनिरपेक्षता है। आप सब कुछ देखकर चुप रहें और देश की एकता की चादर को कुेतरते ‘दो चूहों’ को चुप रहकर देखें-यह आपकी सहिष्णुता है और देश की तथाकथित ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ के प्रति आपकी सराहनीय निष्ठा है। इससे आपको साहित्य, कला, विज्ञान आदि के क्षेत्र में ‘पदमश्री पुरस्कार’ मिलने की भी पूरी-पूरी सम्भावनाएं हैं और यदि आपने यह बताना आरम्भ कर दिया कि चोरी अमुक स्थान पर अमुक व्यक्ति या संगठन द्वारा हो रही है और धड़ाधड़ धर्मान्तरण कर देश के बहुसंख्यक समाज को अल्पसंख्यक बनाने की योजनाएं फलीभूत हो रही हैं तो आप उसी दिन साम्प्रदायिक हो जाएंगे। तब आप किसी पुरस्कार के भी पात्र नहीं रहेंगे। देशभक्ति को अपमान और देश के प्रति गद्दारी को सम्मान मिलने की भारत की यह अनोखी परम्परा विश्व के किसी भी देश में स्वीकार्य नहीं है। पर भारत में चल रही है। दूसरी ओर भारत को बर्बाद करने के सपने बुनने वाले लोग हैं। कश्मीर के आतंकवादी संगठनों के सरगनों को कांग्रेस दूध पिलाती रही और उन्हें विदेशों में घूमने के लिए और भारत विरोधी गतिविधियों में सम्मिलित होने के लिए करोड़ों रूपया सरकारी कोष से देती रही। वे देश के प्रति गद्दारी करते रहे और कांग्रेस अपनी धर्मनिरपेक्षता की नीतियों की आत्मप्रशंसा में आत्ममुग्ध होती रही।
अंतत: यह सारा खेल कब तक चलेगा? अब तो देश की युवा पीढ़ी को जागना ही चाहिए। देश तभी आगे बढ़ेगा जब देश का युवा जागेगा। सरकारें तो बदलती रहती हैं पर देश का यौवन ठण्डा नहीं पडऩा चाहिए। यौवन वही होता है जो गरम खून रखता है और अपने देश के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पित रहकर राजनीति को उसका धर्म समझने का माद्दा रखता है। युवा ‘बैलट बॉक्स’ से यदि देश की राजनीतिक बागडोर मोदी को दे सकता है तो उसे अपनी शक्ति का सदुपयोग करते हुए सभी राजनीतिक दलों को यह अनुभव कराने का भी पूरा अधिकार है कि इस देश पर वही राज करेगा जो इस देश की सामासिक संस्कृति के प्रति समर्पित होकर भारत को विश्वगुरू बनाने के प्रति अपनी वचनबद्घता को प्रकट करते हुए देश के संविधान की इस आज्ञा को शिरोधार्य करेगा। देश के बहुसंख्यक समाज से घृणा करने वाले दलों और उनके मुखियाओं के दिन अब लद जाने चाहिए। देश की मूल चेतना से जुडऩे के लिए नेता बाध्य हो जाएं-अब ऐसी क्रान्ति होनी चाहिए।

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