#डॉविवेकआर्य
1875 में स्वामी दयानंद ने पूना में दिए गए अपने प्रवचन में स्पष्ट घोषणा की –
“सती होने के लिए वेद की आज्ञा नहीं है”
सायण ने अथर्ववेद 19/3/1 के मंत्र में सती प्रथा दर्शाने का प्रयास किया है – यह नारी अनादी शिष्टाचार सिद्ध, स्मृति पुराण आदि में प्रसिद्द सहमरण रूप धर्म का परीपालन करती हुई पति लोक को अर्थात जिस लोक में पति गया है। उस स्वर्ग लोक को वरण करना चाहती हुई। तुझ मृत के पास सहमरण के लिए पहुँच रही है। अगले जन्म में तू इसे पुत्र- पौत्रादि प्रजा और धन प्रदान करना। सायण कहते है कि अगले जन्म में भी उसे वही पति मिलेगा। इसलिए ऐसा कहा गया है।
इस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार हैं – यह नारी पुरातन धर्म का पालन करती हुई पति गृह को पसंद करती हुई। हे! मरण धर्मा मनुष्य , तुझ मृत के समीप नीचे भूमि पर बैठी हुई है। उसे संतान और सम्पति यहाँ सौंप। अर्थात पति की मृत्यु होने के बाद पत्नी का सम्पति और संतान पर अधिकार है।
हमारे कथन की पुष्टि अगले ही मंत्र 19/3/2 में स्वयं सायण करते हुए कहते है- “हे मृत पति की धर्मपत्नी ! तू मृत के पास से उठकर जीव लोक में आ, तू इस निष्प्राण पति के पास क्यों पड़ी हुई है? पाणी ग्रहण कर्ता पति से तू संतान पा चुकी है, उसका पालन पोषण कर। ’
मध्यकाल के बंगाल के कुछ पंडितों ने ऋग्वेद 10/18/7 में अग्रे के स्थान पर अग्ने पढ कर सती प्रथा को वैदिक सिद्ध करना चाहा था, परन्तु यह केवल मात्र छल था। इस मंत्र में वधु को अग्नि नहीं अपितु गृह प्रवेश के समय आगे चलने को कहा गया था।
विधवा के दोबारा विवाह के पक्ष में अथर्ववेद के मंत्र 18/3 में कहाँ गया है कि मैंने विधवा युवती को जीवित मृतो के बीच से अर्थात श्मशान भूमि से ले जाई जाती हुई तथा पुनर्विवाह के लिए जाती हुई देखा है। क्योंकि यह पति विरह जन्य दुःख रूप घोर अंधकार से प्रवृत थी। इस कारण इसे पूर्व पत्नीत्व से हटाकर दूसरा पत्नीत्व को मैंने प्राप्त करा दिया है।
अथर्ववेद 9/5/27-28 में कहां गया है कि जो स्त्री पहले पति को प्राप्त करके पुन: उससे भिन्न पति को प्राप्त करती है, पुन: पत्नी होने वाली स्त्री के साथ यह दूसरा पति एक ही गृहस्लोक में वास करने वाला हो जाता है।
देवर से पुनर्विवाह के प्रमाण ऋग्वेद 10/40/2 और निरुक्त 3/14 में भी मिलते है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता हैं की वेदों में सती प्रथा जैसा महापाप नहीं अपितु पुनर्विवाह की अनुमति हैं।