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गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म =एक विस्तृत अध्ययन* पार्ट 2

Dr DK Garg

Note -यह आलेख महात्मा बुद्ध के प्रारम्भिक उपदेशों पर आधारित है। ।और विभिन्न विद्वानों के विचार उपरांत है। ये 9 भाग में है।

इसको पढ़कर वे पाठक विस्मय का अनुभव कर सकते हैं जिन्होंने केवल परवर्ती बौद्ध मतानुयायी लेखकों की रचनाओं पर आधारित बौद्ध मत के विवरण को पढ़ा है ।

कृपया अपने विचार अवश्य बताए।

क्या गौतम बौद्ध हिंदू थे?
क्या गौतम बुद्ध आर्य थे ?

प्रश्न 1 क्या गौतम बुद्ध हिंदू थे?

उस समय हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई, जैन,बौद्ध जैसे रिलिजन्स अथवा मजहब,पन्थ,सम्प्रदाय इत्यादि नहीं थे।ऐसे में यह कहना ठीक नहीं होगा कि बुद्ध हिन्दू थे अथवा बाद में एक स्वतंत्र रिलीजन बौद्ध की स्थापना की।उन्होंने केवल धम्म-अधम्म (धर्म-अधर्म)के सम्बंध में जनता में जन चेतना का संचार किया था।जिनको बुद्ध की शिक्षाएं कहकर प्रचारित किया गया।उनके सम्बन्ध में कहा गया कि तथागत को बोध हो गया है। और बोध यानी ज्ञान प्राप्ति के कारण उनको बुध कहा गया,ये कोई अलग धर्म नही था ।
क्या गौतम बुद्ध आर्य थे?

आर्य एक गुणवाचक शब्द है, आर्य कर अर्थ होता है ‘श्रेष्ट”., जो मनुष्य गुण कर्म स्वाभाव से श्रेष्ट होता है वो आर्य है, और गुण कर्म स्वाभाव से श्रेष्ट से वो ही होता है जिसका आचरण वेदानुकूल होता है। आर्य शब्द एक गुणवाचक संज्ञा है जो श्रेष्ठ रूप में प्रयोग होता था इसीलिए पूरे राष्ट्र को भी श्रेष्ठ बताने के लिए आर्यवर्त कहां जाता था प्राचीन धर्म ग्रंथों में भी कई जगह राजा महाराजाओं के लिए उनके उद्बोधन में आर्य शब्द प्रयोग होता था लेकिन पश्चिम के इतिहासकारों ने आर्य शब्द को गुणवाचक संज्ञा ना मानकर डायरेक्ट समुदाय से जोड़ दिया और आर्यन जाति अलग से कहनी सुरु कर दी फिर उसके बाद कुंठा से भरे वामपंथी इतिहासकार भी ऐसा लिखने लगे ।
उदाहरण के लिए बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य जो कहे जाते हैं उसका शाब्दिक अर्थ है श्रेष्ठ सत्य ना कि आर्यों का सत्य ।किसी को इंटेलिजेंट कहां जाए तो यह उसकी तारीफ होगी ,ना की किसी को इंटेलिजेंट के नाम पर कोई एक जाति समुह मान ली जाए। तथागत बुद्ध भी उसी तरह आर्य थे , परन्तु उन्होंने वेद नहीं पढ़े थे और उनका आचरण भी पूरी तरह वेदानुकूल नहीं था।

महात्मा बुद्ध स्वयं को आर्य मानते थे

महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन में कोई नया मत नहीं चलाया था । उस समय समाज में रूढ़िवादी,पाखंड और वेद , यज्ञ और धर्म के नाम जो विकृतियाँ , कुरीतियाँ , पाखण्ड , अन्धविश्वास , क्रूर और जटिल कर्मकाण्ड एवं जातिवादीय अन्याय पनपे हुए थे उनको मिटाने के लिए उनका सुधार आन्दोलन था ।

1.महात्मा बुद्ध ने स्वयं को आर्य परम्परा के अन्तर्गत माना है और आर्य संस्कृति के उपदेष्टा के रूप में प्रस्तुत किया है ।
2.उन्होंने अपने उपदेशों में वैदिक धर्मशास्त्रों , उपनिषदों और योगदर्शन के सदाचारों का ही प्रस्तुतीकरण किया है ।
3.उनके समय में कर्मकाण्ड एवं आहार – विहार में हिंसा का, आचरण में अधर्म का और सामाजिक व्यवहार में जातीय भेदभाव का बोलबाला था अतः उन्होंने अहिंसा , सदाचार और सामाजिक समरसता के निर्माण पर विशेष बल दिया।
4.महात्मा बुद्ध ने अपने प्रवचन मौखिक रूप में दिये थे ।उस प्रवचन काल में बौद्धों के कोई शास्त्र नहीं बने थे । अपने प्रवचनों में वे अनेक बार शास्त्रों की , उनके मार्ग पर चलने की , उनका धर्म ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं । उन शास्त्रों के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं । उनसे पहले , शास्त्र के रूप में वैदिक शास्त्र ही प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित थे । शास्त्रों में सबसे प्रमुख शास्त्र वेद माने जाते थे , अतः शास्त्रों के सम्मान में वेदों का सम्मान स्वतः समाविष्ट हो जाता है ।
उपर्युक्त कथनों को अब हम प्रमाणों के आधार पर समझते हैं-
1.महात्मा बुद्ध ने स्वयं को आर्य और अपने को आर्य संस्कृति का पुनरुद्धार कार्य माना था । तपस्या – साधना के पश्चात जिन चार सत्यों का उन्हें बोध हुआ उन्होंने उनको ‘ आर्य – सत्य ‘ नाम दिया था ।
2. सांसारिक जन्म – मरण रूप बन्धन – दु : ख से मुक्त होने का जो सन्देश आर्यों ने अपने वैदिक शास्त्रों के द्वारा दिया है वही इन चार आर्य – सत्यों में निहित है । इसी आधार पर सर्वदर्शन संग्रह ‘ के लेखक माधवाचार्य ने ‘ बौद्धदर्शन ‘ के प्रकरण में बुद्ध को ‘ आर्य बुद्ध ‘ कहा है ।
3.इतना ही नहीं , बुद्ध ने दु:खों से छूटने का आठ प्रकार का जो मार्ग बताया है उसको उन्होंने ‘आर्य अष्टांग मार्ग ‘ नाम दिया है । चार ‘आर्य सत्य ‘ हैं दु:ख का ज्ञान होना , दुःख का कारण जानना , दुःख की उत्पत्ति – प्रक्रिया और दुःख को दूर करने की आवश्यकता , दु:ख को दूर करने का मार्ग । उनका ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग है – सम्यक् दृष्टि ‘ , सम्यक् संकल्प , सम्यक् वचन , सम्यक् व्यवहार , सम्यक् आजीव , सम्यक् व्यायाम , सम्यक् स्मृति , सम्यक् समाधि ।
ये सभी वैदिक शास्त्रों और योगदर्शन के उपदेश हैं । बुद्ध ने उनका सच्चा आचरण करने पर बल दिया है ।
( धम्मपद १४ . १२ )
4.आर्य मानने के सन्दर्भ में , महात्मा बुद्ध का एक वचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने अपने समस्त अनुयायियों – बौद्धों को आर्य कहा है। वे कहते हैं –
यो सासनं अरहतं अरियानं धम्मजीविनं । पतिक्कोसति दुम्मेधो दिठिं निस्साय पणिकं ।।
( वही , १२ . ८ )
अर्थ -‘ जो धर्मनिष्ठ , अर्हत् ( बौद्ध साधक ) आर्यजनों की शिक्षाओं की निन्दा करता है , वह दुर्बुद्धि पापदृष्टि मनुष्य निन्दनीय है ।
5.आर्य की परिभाषा करते हुए कहा है कि ‘ प्राणियों की हिंसा करने वाला आर्य नहीं होता । अहिंसक ही सच्चा आर्य होता है ‘ ( वही , १९ . १५ ) बुद्ध यह नहीं कह रहे कि मैं कोई नया धर्म प्रवर्तित कर रहा हूँ । वे कहते हैं – आर्यों के प्रवर्तित धर्म का पालन करना चाहिए । वही सुखी होता है , वही बुद्धिमान् है (‘अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो ‘६.४ )। 6.मनुष्य को अप्रमादी होकर आर्यों द्वारा प्रदत्त ज्ञान ग्रहण करना चाहिए ( २ . २ ) । आर्यों का दर्शन मंगलकारी है और सान्निध्य सुखप्रद है ( ‘साधु दस्सनमरियानं सन्निवासो सदा सुखो ‘ १५ . १० ) ।
7. जो व्यक्ति निष्पाप और मलरहित हो जाता है उसको आर्यों की दिव्यभूमि प्राप्त होती है ( १८ . २ ) ।
8.ऋषि – महर्षि जन आर्य समुदाय के शास्त्रप्रणेता और समाज – सुधारक थे । बुद्ध कहते हैं कि तन – मन – वचन की पवित्रता रखते हुए ऋषियों के मार्ग पर चलो ( २० . ९ ) । इस प्रकार बुद्ध आर्य – शास्त्रकारों का सम्मान भी करते थे और स्वयं को आर्य समुदाय का सदस्य भी मानते थे।

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