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हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

ऋषि दयानन्द रचित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ मनुष्यों को सद्ज्ञान देकर उन्हें ईश्वर का सच्चा भक्त व मोक्षगामी बनाते हैं”

ओ३म्

ऋषि दयानन्द (1825-1883) सच्चे ऋषि, योगी, वेदों के पारदर्शी विद्वान, ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देशभक्त, सच्चे समाज सुधारक, वेदोद्धारक, वैदिकधर्म व संस्कृति के अपूर्व प्रचारक आदि अनेकानेक गुणों से सम्पन्न थे। 21 वर्ष की अवस्था होने पर वह सुख सुविधाओं से परिपूर्ण अपने माता-पिता का घर छोड़कर सच्चे शिव वा ईश्वर, आत्मज्ञान व मोक्ष के उपाय आदि की खोज में निकले थे। उनके अथक प्रयत्नों से उन्हें अनेक गुरुओं की सेवा करने सहित उनसे ज्ञान व योग विद्या की प्राप्ति हुई। अभी सम्पूर्ण विद्या की प्राप्ति में कमी थी अतः वह सन् 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम समाप्त होकर कुछ स्थिरता उत्पन्न होने पर मथुरा के प्रज्ञाचक्षु सुविख्यात विद्वान गुरु विरजानन्द सरस्वती जी की पाठशाला में अध्ययन हेतु उपस्थित हुए थे। सन् 1860 से 1863 तक के लगभग तीन वर्षों में उन्होंने उनसे वैदिक विषयों का अपना अध्ययन पूरा किया। गुरु की आज्ञा वा प्रेरणा से वह संसार में व्याप्त अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां व सामाजिक अन्याय आदि को दूर करने के लिए निकल पड़े और अपने जीवन की अन्तिम श्वांस तक उन्होंने यह प्रशंसनीय कार्य किया। अपने जीवन भर के अध्ययन से उन्हें यह विवेक उत्पन्न हुआ था कि ‘‘चार वेद” सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से प्राप्त ज्ञान है। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद में परा व अपरा विद्यायें दोनों ही यथार्थ रूप में विद्यमान हैं। वेद अज्ञान व अविद्या से सर्वथा मुक्त हैं। इसमें अन्य धर्म ग्रन्थों की भांति कहानी किस्से, इतिहास, अन्धविश्वास, पाखण्ड व सामाजिक अन्याय, उत्पीड़न व शोषण आदि की प्रेरणा नहीं है। वेदों की सभी शिक्षायें ज्ञान व विज्ञान से परिपूर्ण होने के साथ सभी मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति करने में भी पूर्ण सहायक हैं। वेदों की शिक्षाओं से न केवल मनुष्य का अभ्युदय होता है अपितु निःश्रेयस की सिद्धि भी वेदाध्ययन व वेदाचरण से प्राप्त होती है। उन्होंने देश व संसार से अविद्या, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या मान्यताओं को दूर करने सहित स्वाधीनता प्राप्ति की भूमि तैयार करने व समाज सुधार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। सन् 1883 में गुरु दक्षिणा से लेकर मृत्यु के दिन तक हम उन्हें अपने लक्ष्यों की पूर्ति में ही सर्वात्मा समर्पित हुआ देखते हैं।

ऋषि दयानन्द ने जीवन भर व्याख्यान, प्रवचन व उपदेशों द्वारा मौखिक प्रचार किया। उन्होंने विधर्मियों वा विपक्षियों से धर्म संवाद वा शास्त्रार्थ, वार्तालाप, धर्म चर्चायें आदि भी कीं। वेद, धर्म, ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक उन्होंने अनेक तथ्यों का प्रकाश भी किया जिससे उस समय के लोग अनभिज्ञ थे। ईश्वर व जीवात्मा विषयक वैदिक ज्ञान को उन्होंने तर्क व युक्ति की कसौटी पर कस कर प्रस्तुत किया जिससे कोई बुद्धिजीवी, विद्वान व वैज्ञानिक उसका विरोध न कर सके। उनके द्वारा सभी विषयों पर दिया गया ज्ञान आज प्रायः सभी धर्माचायों व विद्वानों ने स्वीकार कर लिया है। कहीं से किसी धर्माचार्य व विद्वान द्वारा उनके आध्यात्मिक, सामाजिक ज्ञान व तथ्यों की आलोचना सुनने व देखने को नहीं मिलती। ऋषि दयानन्द ने लिखित साहित्य के महत्व को भी समझा था। वह जानते थे कि लिखित साहित्य का प्रचार व प्रभाव उन व्यक्तियों तक भी होता है जो उनके सम्पर्क में नहीं आते। मौखिक प्रचार तो अस्थाई ही होता है जिसका अधिकांश भाग कुछ ही समय में विस्मृति की वस्तु बन जाता हैं वहीं लिखित ग्रन्थ स्थाई रूप से प्रचार में सहायक सिद्ध होते हैं। न केवल लेखक के जीवनकाल में ही अपितु जीवन के पश्चात भी उनकी उपयोगिता बनी रहती है। अतः उन्होंने अपने प्रायः समस्त व अधिकाशः विचारों को अनेक ग्रन्थों में प्रकरणानुसार लिपिबद्ध किया जिससे आज करोड़ों लोग लाभान्वित हो रहे हैं। उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, ऋग्वेद (आंशिक) तथा यजुर्वेद भाष्य, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, आत्मकथा सहित पूना में अनेक प्रवचन व संक्षिप्त आत्मकथ्य आदि। इन ग्रन्थों में परा व अपरा अर्थात् आध्यात्मिक व लौकिक ज्ञान का वह स्वरूप उपलब्घ होता है जो मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता। वस्तुतः ये सभी ग्रन्थ ही सच्चे धर्म का ज्ञान कराने वाले धर्मग्रन्थ हैं। संक्षेप में यह भी कह सकते हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति के सच्चेस्वरूप का समग्रता से ज्ञान ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर ही किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसके साथ ही ईश्वर की सच्ची उपासना पद्धति भी उनके द्वारा पंचमहायज्ञविधि तथा संस्कार-विधि ग्रन्थों में प्रस्तुत की गई है जिसका अभ्यास व उसके अनुसार साधना करके ईश्वर का निभ्र्रान्त ज्ञान प्राप्त करने सहित उस ज्ञान का प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

ऋषि दयानन्द ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही है कि कोई भी तत्व, सत्ता व पदार्थ गुण व गुणी से मिलकर बनता है। गुणी का सीधा प्रत्यक्ष नहीं होता अपितु गुणों के प्रत्यक्ष होने से ही गुणी का प्रत्यक्ष होता है। सूर्य की प्रकाशमय व उष्ण किरणों से सूर्य का, शीतलता व तरलता से जल का, प्रकाश, उष्णता व दाह्य शक्ति से अग्नि का, स्पर्श से वायु का, शब्द से आकाश का और इस सृष्टि में रचनादि विशेष गुणों से ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। अष्टांग योग के सफल अभ्यास वा धारणा, ध्यान व समाधि की सफलता होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इसके लिए ऋषि दयानन्द ने सन्ध्योपासना की विधि लिखी है और अपने ग्रन्थों ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका तथा सत्यार्थप्रकाश में भी इन विषयों को प्रस्तुत कर उन पर तथ्यात्मक एवं अपने निजी अनुभवों के आधार पर प्रकाश डाला है। ऋषि दयानन्द के समय में लोग वायु, जल व पर्यावरण की शुद्धि, आरोग्य, सुख व शान्ति की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले दैनिक अग्निहोत्र व सकाम यज्ञों को भूल चुके थे। स्वामी जी ने यज्ञों की अल्पव्यय एवं अल्पकाल में साध्य विधि भी हमें प्रदान की है जिससे अनेकानेक लाभ होते है। सन्ध्या, यज्ञ, ऋषि-ग्रन्थों व वेदों का स्वाध्याय कर मनुष्य के दुर्गुण, दुर्व्यसन व दुःख दूर होने के साथ ईश्वर से प्रीति व उसकी प्राप्ति में सफलता प्राप्त होती है जिससे जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य पूर्ण होते हैं और सद्गुण व सुख प्राप्त होते हैं। देश की आजादी के लिए भी महर्षि दयानन्द ने प्रेरणा की थी और खुल कर विदेशी राज्य का विरोध करते हुए स्वदेशी राज्य को विदेशी राज्य की तुलना में सर्वोपरि उत्तम कहा था। उन्होंने देश की पराधीनता का भी खुलकर विरोध करते हुए दुःख व्यक्त किया था। यहां तक लिखा की विदेशी राजा हम पर शासन न करें और हम पराधीन कभी न हों। जन्मना जातिवाद का ऋषि दयानन्द ने विरोध किया था। गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था के वह समर्थक व पोषक थे। सबके लिए एक जैसी, समान, अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा के भी वह समर्थक थे। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि को वह मनुष्यों के दुःख व पराधीनता आदि का कारण मानते थे जो कि वस्तुतः है भी। बाल विवाह को उन्होंने निषिद्ध किया था। विधवा विवाह को आपद-धर्म के रूप में किये जाने पर उनके विरोधी स्वर पढ़ने को नहीं मिलते। गोरक्षा व हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए भी उन्होंने अभूतपूर्व प्रयास किया व आन्दोलन किये। शिक्षा जगत को उनकी अद्भुत देन है। आज देश में सैकड़ों गुरुकुल चल रहे हैं व सहस्रों संस्कृत के विद्वान हैं, उसमें उनकी महान् भूमिका है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि उन्होंने ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप प्रस्तुत कर ईश्वर की उपासना की सही विधि बताई जिसे अपनाकर ईश्वर व जीवात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है और जीवन का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। यह स्थिति जीवन से सभी बुराईयों व दुर्गुणों के दूर हो जाने पर ही सम्पादित होती है जिसके उपाय भी ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में बताये हैं। उनकी शिक्षाओें के कारण स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी सत्य प्रकाश सरस्वती, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, पं. बुद्धदेव मीरपुरी, पं. रामचन्द्र देहलवी, आचार्य रामनाथ वेदालंकार, पं. जयदेव विद्यालंकार, पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, स्वामी वेदानन्द सरस्वती आदि अनेक विश्वस्तरीय विद्वानों ने अपने जीवन को उच्चकोटि का साधक बनाया और देश व समाज का महान् उपकार किया।

महर्षि दयानन्द का यह समस्त प्रयास संसार से अविद्या व अज्ञान दूर करने का था। अविद्या दूर कर विद्या का प्रकाश होने से मुनष्य के सभी भ्रम व चिन्तायें दूर हो जाती हैं। ईश्वर का ज्ञान व साक्षात्कार हो जाता है जो मोक्ष वा मुक्ति का कारण बनता है। मुक्ति हो जाने पर 3,11,040 अरब वर्षों तक मनुष्य जन्म व मरण के दुःख से दूर होकर ईश्वर के सान्निध्य में रहकर सुख व आनन्द को भोगता है। अव्याहत गति से ब्रह्माण्ड में एक लोक से दूसरे, दूसरे से तीसरे का भ्रमण करता है। मोक्ष प्राप्त आत्माओं से सम्पर्क कर सकता है आदि। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के विषय में जो ज्ञान दिया है वह सत्य है, तर्क व युक्ति पर आधारित है तथा इसकी पुष्टि वेद व ऋषि प्रणीत ग्रन्थों वेद-वेदांग-उपांगों, स्मृतियों, उपनिषदों आदि ग्रन्थों से भी होती है। ऋषि दयानन्द ने जो ज्ञान व उपासना आदि की विधि दी है वह उनके समय में ज्ञात व सुलभ नहीं थी अर्थात् किसी को उस ज्ञान का पता ही था। सब मत-मतान्तरों की अपनी-अपनी मान्यतायें व विधियां थीं। उनके समय में ईश्वरोपासना के नाम पर जो कुछ किया जाता था वह ईश्वर उपासना का सहयोगी व सार्थक साधन न होकर हानिकर कृत्य हुआ करता था। इस दृष्टि से ऋषि दयानन्द द्वारा कथित व लिखित प्रत्येक बात, मान्यता व सिद्धान्त का महत्व है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ऋषि दयानन्द ने मुनष्यों की सभी बुराईयों को दूर कर उसे ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कराने सहित मोक्ष प्राप्ति के लिए उन्मुख किया जो कि संसार के सभी मनुष्यों व जीवात्माओं का प्रमुख व अन्तिम लक्ष्य है। इस लक्ष्य पर पहुंच कर मनुष्य को जीवन के सभी दुःखों से मुक्ति मिल जाती है। वह ईश्वर से जुड़कर उसके आनन्द का इच्छानुसार भोग करता है। आईये, अपने जीवन में इस स्थिति को सम्पादित करने के लिए ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों का अध्ययन करने का संकल्प करें। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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