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इतिहास के पन्नों से

मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा : लेखकीय निवेदन, भाग – 2

रानी पद्मिनी का जौहर

  ऊपर यह स्पष्ट कर चुके हैं कि मेवाड़ में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण जौहर राणा रतनसिंह के शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय 1303 ई0 में रानी पद्मिनी के नेेतृत्व में किया गया । अलाउद्दीन ने उस समय रानी पद्मिनी को प्राप्त करने के अनेक यत्न किए थे। परंतु अनेक प्रयत्नों के उपरांत भी अलाउद्दीन खिलजी अपने ऐसे किसी भी प्रयास में  सफल नहीं हो पाया था। अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मिनी को ले नहीं पाया, जिससे उसे यह पता चल गया कि भारत के भू- भाग को तो वह जीत सकता है, परंतु भारत के आत्मसम्मान को वह कभी जीत नहीं पाएगा। हमारे महान पूर्वजों ने धन देना स्वीकार किया पर धर्म देना स्वीकार नहीं किया। इसी प्रकार देश - काल - परिस्थिति के अनुसार हमने भू- भाग देना भी स्वीकार कर लिया पर आत्मसम्मान देना स्वीकार नहीं किया। जिन लोगों ने आत्मसम्मान बेचा वे हमारे राष्ट्रीय इतिहास के नायक नहीं हैं और उनका हम यहां उल्लेख भी नहीं कर रहे हैं।

। रानी पद्मिनी उस समय राणा परिवार या चित्तौड़ के सम्मान की ही नहीं अपितु भारतवर्ष के सम्मान की प्रतीक बन गई थी। जिसके लिए देश के अनेक क्रांतिकारी युवाओं और वीर योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया। उसके बाद रानी और उसकी सहेलियों ने भी हजारों की संख्या में अपना बलिदान देकर भारत के सम्मान की रक्षा की। गर्दन का मोल लिए बिना ही मौन रहकर देश के लिए बलिदान दे देना और धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे देना यह केवल भारत से ही सीखा जा सकता है ?

जली चिता अंगार सी खिले गुलाबी फूल।
शत्रु भी हुआ दंग था, भूल गया मजमून।।

मेवाड़ का दूसरा शाका

मेवाड़ का दूसरा जौहर राणा विक्रमादित्य के शासनकाल मेें सन् 1534 ई. में गुजरात के शासक बहादुर शाह के आक्रमण केे समय में रानी कर्णवती के नेतृत्व में 8 मार्च,1534 ई.को हुआ । उस समय रानी ने भारत के धर्म की रक्षा करते हुए अपना बलिदान दिया था। रानी के साथ उसकी अनेक वीरांगना सहेलियों ने भी विदेशी शासक के हाथों अपना सम्मान बेचने के स्थान पर बलिदान हो जाना उचित माना था। रानी कर्णावती नए भी इतिहास में अपना बलिदान देकर अपना नाम अमर कर लिया। आजकल हम 8 मार्च को “महिला दिवस” मनाते हैं। भारतवर्ष की सरकार को चाहिए कि वह 8 मार्च को वीरांगना रानी कर्णावती के नाम से मनाने की परंपरा का शुभारंभ कर उसे महिलाओं के लिए समर्पित करे। ऐसा करने से निश्चित रूप से इतिहास की महान नायिका रानी कर्णावती के जीवन से प्रेरणा लेकर हमारी बहनों के भीतर देश धर्म की रक्षा के लिए वंदनीय भाव उत्पन्न होंगे। इसके साथ – साथ हमारी युवा पीढ़ी को अपने इतिहास को समझने का अवसर भी उपलब्ध होगा। आजकल हम देख रहे हैं कि प्रतिवर्ष अनेक विशेष दिवस आयोजित किए जाते हैं। इनमें से अधिकांश विशेष दिवस ऐसे हैं जो हमें पश्चिमी देशों से प्राप्त हुए हैं , जैसे मदर्स डे फादर्स डे आदि। इन विशेष दिवसों के आयोजन से हमारी युवा पीढ़ी पश्चिम की ओर देखने की अभ्यासी हो गई है । उसे ऐसा लगता है कि जैसे समाज में कुछ विशिष्टता उत्पन्न करने की योजनाएं केवल पश्चिमी जगत के पास ही उपलब्ध हैं। यदि उन्हें विशेष दिवस के स्थान पर वीर वीरांगनाओं के बलिदान दिवस को मनाने के लिए प्रेरित किया जाए तो निश्चय ही भारतवर्ष यथाशीघ्र विश्व गुरु बन जाएगा।

मेवाड़ का तीसरा शाका

तीसरा जौहर राणा उदयसिंह के शासनकाल में अकबर के आक्रमण के समय 25 फरवरी,1568 में भारत के इतिहास के वीर बलिदानी फत्ता की पत्नी फूल कँवर के नेतृत्व में किया गया। इस युद्ध में हमारे वीर सैनिकों ने जयमल फत्ता के नेतृत्व में लगभग 17000 मुगल सैनिकों को काट कर समाप्त किया था। उस समय हमारे हिन्दू वीर सैनिकों की संख्या मात्र 8000 थी जबकि मुगल सैनिकों की संख्या 60000 थी। चित्तौड़गढ़ के इस किले ने जयमल फत्ता की उस वीरता के साथ-साथ फूल कंवर के जौहर को भी देखा है और कल्ला राठौड़ के अप्रतिम बलिदान को भी देखा है जिसने उस समय अकबर जैसे शत्रु को भी दांतों तले उंगली दबाने के लिए विवश कर दिया था।
इसी किले के भीतर पन्नाधाय के द्वारा अपने बेटे चंदन का बलिदान दिया गया था। गुर्जरी माता पन्नाधाय का वह बलिदान विश्व इतिहास में अद्वितीय है। जिसने अपने देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने कलेजे के टुकड़े को सहर्ष बलिवेदी पर चढ़ा दिया था।
इन सारे जौहरों और बलिदानों का साक्षी यह किला हमारे गौरवशाली इतिहास का साक्षी है। इस किले की महत्ता को समझते हुए कवियों ने इस पर अनेक कविताएं लिखी हैं। आर्य समाज के विद्वानों ने महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर के पूर्वजों द्वारा निर्मित इस किले को बहुत अधिक प्रसिद्धि दिलाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। चित्तौड़गढ़ ने अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव देखे हैं। जहां इसने अपने अनेक वीर वीरांगनाओं को देश की संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान देते हुए देखा है वहीं इसने अपने वीर राजाओं के गौरवशाली इतिहास को भी देखा है। इसके अतिरिक्त जब इस किले में विदेशी राजा महाराजा आते थे तो उनके स्वागत सत्कार के लिए होने वाले विशेष आयोजनों का भी यह साक्षी रहा है। इस किले के भीतर हुए अनेक ऐतिहासिक विवाह आयोजनों का भी इसने निकटता से अवलोकन किया है।
इसने बनवीर जैसे नीच ,अधर्मी शासकों या महल में रहने वाले लोगों के सत्ता षड़यंत्रों को भी देखा है तो अनेक अवसरों पर विदेशी आक्रमणकारियों के कई कई महीने तक चलने वाले घेरों को भी देखा है। उस दौरान किले के भीतर भूख प्यास से तड़पते लोगों की पीड़ा को भी देखा है तो साथ ही साथ उनकी देशभक्ति को भी देखा है। सचमुच चित्तौड़ के किले का अप्रतिम इतिहास हमारे लिए गर्व और गौरव का विषय है।
इस ग्रंथ के माध्यम से हम मेवाड़ के महाराणाओं के बलिदानी इतिहास और उनकी गौरवगाथा के साथ-साथ अनेक बलिदानी पुरुषों और नारियों के महान कार्यों और उनकी गौरवगाथा पर भी विचार करेंगे, जिन्होंने देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए समय-समय पर अपने बलिदान देकर इतिहास में अपना नाम अमर किया है। यह हमारे लिए अत्यंत गौरव का विषय है कि सैकड़ों वर्ष से को महाराणा वंश देश की सेवा करता रहा उसे आज भी देश में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। जिन लोगों ने लूट – लूटकर अपनी तिजोरियां भरीं, बड़े बड़े नरसंहार किए या अत्याचार और क्रूरता के कीर्तिमान स्थापित किए उन मुगलों या किसी भी मुस्लिम शासकों के बारे में चाहे इतिहास में जितना कुछ लिख दिया गया हो पर सच यही है कि उनके उत्तराधिकारी आज धूल में मिले पड़े हैं। इसका कारण केवल एक है कि जहां महाराणा प्रताप का खानदान मानवीय मूल्यों को लेकर लड़ाई लड़ रहा था वहीं मुगल या मुसलमान शासक दानवता के प्रतीक के रूप में युद्ध कर रहा था और युद्ध के माध्यम से मानवता का विनाश कर रहा था।
समय की आवश्यकता है कि हम अपने इतिहास के उन अनछुए तथ्यों और सत्यों को लोगों के सामने प्रकट करें जिनसे हमारी आज की पीढ़ी शिक्षा ले सकती है। इसके अतिरिक्त जिन शासकों ने अत्याचारों के माध्यम से किसी भी कालखंड में मानवता का विनाश किया , उनके उस सच को भी लोगों के सामने लाया जाए। हमारा मानना है कि इतिहास के नायक वही होते हैं जो मानवतावाद के लिए काम कर रहे होते हैं और इतिहास के खलनायक भी वही होते हैं जो दानवता के कार्य कर रहे होते हैं। इतिहास मानवता बनाम दानकता की रणस्थली है । इस रणास्थली में हम सबका मानव होने के रूप में यही कर्तव्य है कि हम मानवतावादी शक्तियों का साथ दें। हो सकता है युद्ध में कभी दानवतावाद जीत जाए, पर इसके उपरांत भी हमारा समर्थन मानवतावाद के लिए होना चाहिए। इस ग्रंथ के लेखन का उद्देश्य केवल यही है।
इस पुस्तक के लेखन के लिए सर्वप्रथम परमपिता परमेश्वर का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं, जिसकी असीम अनुकंपा के चलते वह शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त हो सकी जो इस पुस्तक के लेखन के लिए आवश्यक थी। इसके अतिरिक्त पूज्य माता-पिता और श्रद्धेय अग्रज प्रो0 विजेंद्र सिंह आर्य, मेजर वीर सिंह आर्य और श्री देवेंद्र सिंह आर्य के शुभ आशीर्वाद और अपनी धर्मपत्नी श्रीमती ऋचा आर्या के सराहनीय सहयोग को भी नमन करता हूं । साथ ही पुस्तक के प्रकाशक श्री नरेंद्र कुमार वर्मा जी का भी हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिन्होंने अत्यल्प समय में इस पुस्तक को सुबुद्घ पाठकों के कर कमलों तक लाने में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान किया है।

दिनांक : 20 नवंबर 2022

                                               भवदीय

                                       डॉ राकेश कुमार आर्य 
                                     निवास :  सी0ई0 - 121 
                                     अंसल गोल्फ लिंक - 2 
                                  महर्षि दयानंद स्ट्रीट, ग्रेटर नोएडा                                             पिन :  201306
                                  चलभाष : 99 11 16 99 17

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