Categories
बिखरे मोती

हे पुनरूक्षु! अन्न दे, सबका करना त्राण

बिखरे मोती-भाग 212
गतांक से आगे….
जो मेरे निमित्त क्रिया हो वह ‘कर्म’ होता है और जो मेरे निमित्त क्रिया न हो वह कुकर्म होता है। जो मेरे निमित्त प्रेम होता है, वह भक्ति कहलाती है और जो मेरे निमित्त प्यार न होकर माया के प्रति प्यार होता है वह तो राग होता है, मोह होता है। इसलिए इस कसौटी पर स्वयं को कसकर देखें, कहीं आप भटक तो नहीं रहे हैं? इस कसौटी पर जो साधक खरा उतरते हैं उनकी आध्यात्मिक उन्नति अवश्य होती है।
हे पुनरूक्षु ! हमारी पुकार सुनो :-
हे पुनरूक्षु! अन्न दे,
सबका करना त्राण।
आरोग्य दे, सौभाग्य दे,
मुमुक्ष हो इंसान ।। 1145।।
व्याख्या :-ऋग्वेद में पुनरूक्षु शब्द परमपिता परमात्मा के सम्बोधन के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसका शब्दार्थ है-विभिन्न प्रकार का विपुल अन्न देने वाला अर्थात परमपिता परमात्मा। ध्यान रहे, जब हम अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं-तो इससे अभिप्राय होता है-अन्न, जल, औषधि, वनस्पति इत्यादि। प्रस्तुत दोहे में भी परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि हे पोषण करने वाले प्राण-प्रदाता ओ३म्! आपको ऋग्वेद ने पुनरूक्षु कहा है। इसलिए आप अपनी साख को अक्षुण्ण रखने के लिए प्राणी मात्र के लिए विभिन्न प्रकार का विपुल अन्न प्रदान करो, जीवमात्र का कल्याण करो। सबको स्वास्थ्य दो, सबको सौभाग्य दो अर्थात बहुआयामी विकास करो, सुख समृद्घि और शान्ति की वर्षा करो। इतना ही नहंी हम मनुष्य को मुमुक्षु बनाओ अर्थात आपके भक्ति स्वरूप प्रेमस्वरूप को प्राप्त करें, आत्म स्वरूप को प्राप्त करें। आप ऐसी विभूतियों (विलक्षणताओं) की निरन्तर वर्षा कर कृतार्थ करें, ताकि हम अपने अन्तिम गन्तव्य मोक्ष धाम, भगवद्धाम को प्राप्त करें, तेरी प्यारी आगोश में आवाहन करें।
अहं नहीं नेतृत्व करै,
आगे रहे विवेक।
मन को काबू में करे
कृपा करे शिवेक ।। 1146 ।।
व्याख्या :-जिस परिवार, समाज अथवा राष्ट्र का नेतृत्व अनाड़ी लोगों अर्थात अज्ञानी और अहंकारी लोगों के हाथ में होता है-उस परिवार, समाज अथवा राष्ट्र का विनाश सन्निकट होता है। लक्ष्मी अर्थात सुख-समृद्घि और शान्ति वहां से इत्र की खुशबू की तरह शनै:शनै: उडऩे लगती है। शेष रहता है, तो भय-भूख (दरिद्रता, गरीबी) पारस्परिक तनाव रहता है। इसलिए कवि आगाह करता है कि परिवार समाज अथवा राष्ट्र का नेतृत्व अनाड़ी लोगों अर्थात अज्ञानी और अहंकारी लोगों के हाथ में कदापि न रहे। परिवार, समाज अथवा राष्ट्र का नेतृत्व सर्वदा विनम्र एवं विवेकशील अर्थात गुणी ज्ञानी लोगों के हाथ में रहना चाहिए। जहां ऐसा होता है-वह घर अथवा परिवार, समाज अथवा समुदाय, राष्ट्र अथवा देश समुन्नत होता है, धरती का स्वर्ग होता है। भौतिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति का होना भी नितांत आवश्यक है, अन्यथा विकास पंगु होता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए मन पर काबू होना बेहद जरूरी है, तभी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की गति एवं दिशा विकासात्मक होती है। दूसरों को नेतृत्व देने से पहले स्वयं का नेतृत्व करो। अर्थात मन के राजा बनो, मन को अपना राजा कभी मत बनाओ। जब ऐसी अवस्था को कोई भी व्यक्ति, घर अथवा परिवार, समाज अथवा समुदाय, राष्ट्र अथवा देश प्राप्त होता है-तो वह युग उनका स्वर्णयुग होता है, क्योंकि परमपिता परमात्मा उस व्यक्ति, परिवार, समाज अथवा राष्ट्र पर तत्क्षण अपनी अनेक अनुकम्पाएं अविरल बरसाते रहते हैं। इसलिए नेतृत्व हमेशा गुणी ज्ञानी लोगों के हाथों में हितकर होता है, भविष्य सुरक्षित होता है। क्रमश:

Comment:Cancel reply

Exit mobile version