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संपादकीय

कोरेगांव की जातीय हिंसा

भारत के विषय यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि आजादी के 70 वर्ष पूर्ण होने के उपरान्त भी हम जातीय हिंसा के बार-बार शिकार होते हैं। बार-बार कुछ अनमोल जानें चली जाती हैं और हम उनके चले जाने के पश्चात यहां छाती पीट-पीटकर राजनीति अपना विधवा विलाप करती रह जाती है। हम बार-बार यह शपथ उठाते हैं कि देश से धर्म, जाति और लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार की हिंसा को सहन नहीं किया जाएगा, पर हमारे भीतर का राक्षस है कि जो बार-बार हमसे जातीय हिंसा कराता है और हम बार-बार असफल सिद्घ हो जाते हैं।
महाराष्ट्र के पुणे के निकट कोरेगांव भीमा में जो पिछले दिनों कुछ हुआ है वह हमारी इसी सोच का परिणाम है। हमारे संविधान का वह प्रावधान जिसमें धर्म, जाति और लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव वर्जित किया गया है तो कलंकित हुआ ही है साथ ही अपने देश के प्रतीकों को सम्मान देने का हमारा संवैधानिक संकल्प भी अपमानित हुआ है। एक ओर हम ‘स्किल इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर हम 200 वर्ष पुरानी परम्पराओं के दास बनकर एक दूसरे के रक्त के प्यासे बन रहे हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता उत्पन्न करने का हमारा राष्ट्रीय संकल्प कैसे पूर्ण होगा? -यह विचारणीय प्रश्न है। लगता है कि हमने सामाजिक समरसता को अपना राष्ट्रीय संकल्प केवल घोषित किया है-उसे हृदय से अपनाया नहीं है। तभी तो जाति, धर्म, लिंग और भाषा जैसे मसलों को लेकर न केवल लड़ते हैं अपितु बार-बार जाति, धर्म, लिंग और भाषा की तिल्लियां फेंक-फेंककर देश के बगीचे में आग लगाने का काम करते हैं।
इस जातीय हिंसा से करोड़ों की क्षति देश को हुई है, मुम्बई की जीवनरेखा कही जाने वाली स्थानीय ट्रेन और मेट्रो भी प्रभावित हुईं। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई थम सी गयी। लोगों का मानना है कि प्रदेश की फडऩवीस सरकार भी इस जातीय हिंसा के लिए उत्तरदायी है। यदि सरकार समय रहते आवश्यक कदम उठाती और प्रशासन अपनी सक्रियता दिखाता तो इतनी आग नहीं फैलती। कोरेगांव में जिस सम्मेलन के आयोजन को लेकर यह जातीय हिंसा हुई वह पिछले 200 वर्षों से होता चला आ रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले 200 वर्षों में इस आयोजन को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं रही, तो अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि इस आयोजन को लेकर लोगों को आपत्ति हो गयी। महाराष्ट्र के पंद्रह से अधिक जिले इस जातीय हिंसा की चपेट में आ गये।
इतिहास की साक्षी है कि 1 जनवरी 1818 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच कोरेगांव भीमा में संघर्ष हुआ था। इस लड़ाई में अंग्रेजों और 800 महारों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के 28 हजार सैनिकों को परास्त कर दिया था। हमारे महार दलित भाई उस समय अंग्रेजों की ओर से लड़े थे। इस युद्घ के पश्चात पेशवाराज का अंत हो गया था। इसी को हमारे महार दलित भाई तभी से ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाते आ रहे हैं। आरएसएस और हिन्दूवादी संगठन महार लोगों के इस कार्यक्रम का यह कहकर विरोध करते रहे हैं कि अब देश स्वतंत्र है इसलिए अब किसी प्रकार के ऐसे कार्यक्रम के आयोजन की अनुमति नहीं दी जा सकती और ना ही राष्ट्रहित में इस प्रकार के कार्यक्रम किये जाने उचित हैं।
यहां पर महार लोगों को भी विचार करना चाहिए कि उस समय 1818 में जो परिस्थितियां थीं उनके अनुसार वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ मिलकर लड़े और अपने ही एक राजा को उन्होंने परास्त किया-तो उस समय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों के लिए यह अपेक्षित था कि वह हमारे राजा की पराजय को लेकर ‘विजय दिवस’ मनायें। तब यह भी सम्भव था कि जातीय आधार पर छुआछूत और भेदभाव की गहरी खाई समाज में बनी हुई थी। अत: राजा के प्रति कुछ वैमनस्य का भाव हमारे महार लोगों को रहा हो परन्तु अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं। अब देश आजाद है और पेशवा बाजीराव हमारा राष्ट्रीय हीरो है, क्योंकि उसने देश के शत्रु ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्घ उस समय आवाज उठायी थी। उसकी पराजय को आज कोई व्यक्ति या समुदाय अपने लिए ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाये तो इससे हमारे उस संवैधानिक संकल्प का उपहास होता है जिसमें हम अपने राष्ट्रीय प्रतीकों और स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले अपने राष्ट्रनायकों को अपना हीरो मानने के लिए कृतसंकल्प है।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वतंत्र भारत में किसी वर्ग समुदाय या सम्प्रदाय के लोगों को जाति, धर्म और लिंग के आधार पर किसी प्रकार की जातीय हिंसा का शिकार नहीं बना सकते। उन लोगों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के लिए विशेष रूप से समझाने की आवश्यकता है। दोष उन साधारण लोगों का नहीं है जो इन सभा सम्मेलनों में पहुंचते हैं। दोष उनका होता है जो सब कुछ जानकर भी मंचों परभाषण झाड़ते हैं और सीधे साधे लोगों को उन कार्यक्रमों में बुलाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करते हुए ये लोग देश को जातीय हिंसा में धकेलने का जान बूझकर राष्ट्रघाती कार्य करते हैं। इनके पीछे भारत विरोधी एक लॉबी और एक विचारधारा काम करती है जो भारत के विद्यालयों में भारत के क्रांतिकारी आंदोलन से संबंधित कोई पाठ तक बच्चों को पढऩे नहीं देते। इस लॉबी और विचारधारा को समझने की आवश्यकता है, यदि इसी के पंख काट दिये जाएं तो हमारे महार भाईयों को बड़ी आराम से समझ में आ जाएगा कि पेशवा बाजीराव हमारे हैं और हम उसकी पराजय को आज अपनी पराजय मानते हैं। आरएसएस के लोगों को भी चाहिए कि वे किसी भी व्यक्ति को यह अहसास न होने दें कि हम आपके साथ छुआछूत के समर्थक हैं। वैसे आरएसएस हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत को मिटाने के लिए लंबे समय से कार्य करता रहा है। हमारे दलित भाइयों को आरएसएस की इस पृष्ठभूमि को समझना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करने वाले कौन लोग हैं?

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