Categories
भयानक राजनीतिक षडयंत्र

नेहरु की अजीब धर्मनिरपेक्षता और सरदार पटेल

भारत में हिन्दू राष्ट्र को लेकर कई बार बहस होती रहती है। 1947 में जब देश का धर्म के नाम पर विभाजन किया गया तो उस दौरान भी भारत को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की प्रबल मांग उठी थी। अतः 30 सितम्बर 1947 को मिलों में काम करने वाले कर्मचारियों एवं मजदूरों के बीच एक भाषण देते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा, “जब तक भारत से जुड़े मामलें मेरे अधिकार में है तब तक भारत एक हिन्दू स्टेट (Hindu State) नहीं बनेगा।”

यह पूर्वाग्रह उन्हें भारत में नहीं बल्कि यूरोप विशेषकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मिला था। इस सन्दर्भ में आरसी मजूमदार ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ द फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया’ में एक पत्र का उल्लेख किया हैं। यह पत्र सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया, जॉर्ज हेमिल्टन ने वॉयसराय एवं गवर्नर जनरल ऑफ़ इंडिया, जॉर्ज कर्जन को 9 अगस्त 1899 को लिखा था।

इसमें हेमिल्टन लिखते हैं, “मुझे लगता है कि भारत में हमारे शासन को वर्तमान में नहीं बल्कि अगले 50 सालों में ख़तरा होगा। अगर हम शिक्षित हिन्दुओं को दो हिस्सों में विभाजित कर सके, जिनके विचार अलग हो जाए, इससे हम अपनी स्थिति मजबूत कर सकेंगे।” इस षड़यंत्र के शिकार होने वालों में जवाहरलाल नेहरू सबसे अग्रणी थे।

नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की विसंगत परिभाषा

अपनी आत्मकथा – ‘जवाहरलाल नेहरू एन ऑटोबायोग्राफी’ में वे धर्म के प्रति अपनी संदिग्ध धारणा का उल्लेख करते हैं। फिर भी हिन्दू-मुसलमान पर चर्चा करना कभी नही भूलते। मोहम्मद अली जौहर से वे इस कदर प्रभावित थे कि उनसे घंटों धर्म पर चर्चा करते थे। दूसरी ओर जनवरी 1924 में कुम्भ के आयोजन के समय ब्रिटिश सरकार ने संगम में नहाने पर रोक लगा दी थी। मदन मोहन मालवीय और प्रांतीय सरकार आमने-सामने थी। अपनी आत्मकथा में नेहरू ने ब्रिटिश सरकार के पक्ष को ही जायज करार दिया हैं।

उनके इसी एकतरफा व्यवहार ने धर्मनिरपेक्षता की एक विसंगत परिभाषा को जन्म दिया, और उसका इस्तेमाल वे हिन्दू राष्ट्र की मांग के खिलाफ किया करते थे। द्वारकाप्रसाद मिश्रा अपनी पुस्तक ‘द नेहरू एपोक’ में लिखते है कि “जहाँ तक नेहरू का सम्बन्ध था उनका हमेशा यही मानना था कि धर्मनिरपेक्षता का अनुसरण सिर्फ हिन्दू के लिए है।”

फ्रैंक मोरेस अपनी किताब ‘जवाहरलाल नेहरु ए बायोग्राफी’ में उनसे जुडी एक घटना का जिक्र करते हैं, “बात 1939 की हैं, जब नेहरू सीलोन (श्रीलंका) के दौरे पर थे। वहां मेजबान एक भारतीय ही थे। कोलम्बों में उनके भोजन की व्यवस्था एक मंदिर से सटे हुए हॉल में की गयी थी। रात्रि के भोजन के समय, मेजबान ने मासूमियत से संकेत किया कि हमें मंदिर जाना होगा। नेहरू ने नाराजगी के साथ कहा, ‘मंदिर!’ वे चीखे, ‘क्या मंदिर? क्यों?”

मोरेस लिखते हैं कि जो नेता अगर अपने भाषण से पहले भगवान का जिक्र कर देता था तो उससे भी नेहरू को समस्या थी। स्वतंत्रता से कुछ दिनों पहले, 7 अगस्त 1947 को प्रधानमंत्री नेहरू को संविधान सभा के अध्यक्ष, डॉ. राजेंद्र प्रसाद से एक पत्र मिला।

डॉ. प्रसाद चाहते थे कि हिन्दुओं के सम्मान के लिए देश में गौ-हत्या पर रोकथाम होनी चाहिए। वे इस ओर प्रधानमंत्री को ध्यान दिलाना चाहते थे। नेहरू ने उसी दिन उन्हें रूखा सा उत्तर दिया और उनके सुझावों को मानने से इनकार कर दिया।

साल 1959 में रफीक जकारिया ने ‘ए स्टडी ऑफ़ नेहरु’ किताब का संपादन किया। इसमें बताया गया है कि सरदार पटेल भी नेहरू की इस अजीब धर्म-निरपेक्षता से बिल्कुल खुश नहीं थे। एन.वी. गाडगिल अपनी किताब ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ में कुछ ऐसा ही लिखते हैं, “सरदार ने एक बार, मजाक के तौर पर, लेकिन तीखेपन में कहा कि अकेला राष्ट्रवादी मुसलमान इस देश में अगर बचा हुआ हैं तो वे जवाहरलाल नेहरू हैं।”

सरदार पटेल के सहयोगी रहे वी. शंकर ‘माय रेमिनिसेंस ऑफ़ सरदार पटेल’ में लिखते हैं, “इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि नेहरू की धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा सरदार पटेल की सोच लोकप्रिय थी।”

प्रधानमंत्री नेहरू ने धर्मनिरपेक्ष शब्द का सदैव गलत इस्तेमाल किया। वे तर्कसंगत बातों की बजाय इच्छाओं और पूर्वाग्रहों को अधिक महत्व देते थे। इसीलिए उन्होंने कांग्रेस के भीतर से उठनेवाली हिन्दू राष्ट्र की मांग का सदैव विरोध किया। हिन्दू शब्द से उनकी चिढ कभी खत्म नहीं हुई। कालांतर में यही हिन्दू विरोधी सोच कांग्रेस की परिपाटी बन गयी।

साभार

Comment:Cancel reply

Exit mobile version