पौराणिक मान्यताएं और महिषासुर का सच

गंगा आख्यान :

डॉ डी के गर्ग :

पौराणिक मान्यताये:

गंगा का उदगम और इसके आध्यात्मिक और भौतिक स्वरूप का वर्णन ऋषियों ने,कवियों ने और कथाकारों ने अलग अलग रूप से किया है,इस विषय में एक नहीं अनेको कहानिया प्रचलित है , गंगा शब्द का प्रयोग वेदों में भी किया गया है। जिनको वास्तविक रूप में गहन विचार करने की आवश्यकता है।
यदि इन कहानियों को सत्य मानकर आपस में तुलना करने लगेंगे तो कुछ समझ नहीं आएगा।
क्योंकि सभी कहानियां अलग अलग और विरोधाभाषी है इनमे कोई भी कहानी वैज्ञानिक और सत्य प्रतीत नहीं होती है ।कोई कहता है गंगा शिव की पुत्री है,कोई कहता है गंगा शिव की जटा से निकली,कोई ब्रह्मा की पत्नी,कही गंगा को संकुचित रूप में एक ब्रह्मा के कमंडल में दिखा दिया है।
और कथा वाचक बिना विचारे मसाला लगाकर कहानियां सूना देते है और वास्तविक चिंतन दूर हो जाता है तथा गप्प पे गप्प कथा असली प्रतीत होने लगती है ।
बानगी के लिए कुछ प्रचलित लोक कथाये इस प्रकार है —
1.गंगा की उत्पत्ति विष्णु भगवान् ने जब वामन अवतार धारण करकें दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी मांगी थी और इस हेतु विराट रूप बनाया तो उनका एक पग ब्रह्मलोक में था, जिसको ब्रह्मजी ने अपने कमंडल के जल से धोया। इस प्रकार वह चरण धोवन ही गंगा है जो ब्रह्मलोक में बहती थी और किस प्रकार यह इस मृत्यु लोक में आई इस प्रकरण में दो विवरण मिलते हैं। एक समय गन्धर्वों ने कुछ ऐसा कर्म किया जिससे उनको श्राप दिया गया कि तुम आठों मृत्युलोक में जाकर पैदा होओंगे। तब इन गन्धर्वों ने ब्रह्मा की पुत्री गंगा से याचना की थी कि हे माता ! आप मृत्युलोक में चले क्योंकि हम तेरे गर्भ से जन्म धारण करेंगे और तुम स्वयम् आहार करके हमारा उद्धार करते रहना जिसको गंगाजी ने मान लिया और इस प्रकार ये यहाँ आई और स्त्रीरूप में राजा शन्तनु की पत्नी बनी जिससे पहले ये आठ गन्धर्व पुत्र रूप में पैदा हुए जिनको ये गंगा स्वयम् बहाकर ले गई। इसके उपरान्त देवव्रत नाम के पुत्र पैदा हुए जो महाभारत काल में भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हैं।
2. दूसरा विवरण इस प्रकार है कि इक्ष्वाक् वंश में राजा सगर हुए हैं जिन्होने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और जब इन्द्र को इसका पता चला तो उसने यज्ञ के अश्व को चुराकर पाताल लोक में एक ऋषि तपस्या कर रहे थे। अश्व को उनके पीछे वृक्ष से बाँध कर छोड़ दिया। जब अश्व को खोजते-खोजते राजा सगर के साठ हजार पुत्र और अनेक सैनिक अन्त में जब वहाँ पहुँचे तो उन्हांेने ऋषि को अश्व का चोर समझ कर बुरा भला कहा जिस पर ऋषि ने क्रोधित हो उन सबको भस्म कर दिया। जब ये लोग बहुत समय बीतने पर भी नही लौटे तो और कुछ लोग तथा राजा सगर के पौत्र सुखमंजस आदि इनको ढूँढंते हुए वहाँ पहुंचे और उनको जब यह वृत्तांत पता चला तो बड़े दुखी हुए ऋषि ने उनको संत्वना दी तथा कहा कि यदि किसी प्रकार गंगा जी यहाँ आ जायें तो इनका उद्धार हो जायेगा। अब राजा सगर, सुखमंजस तथा उनके पुत्र गंगाजी की तपस्या करते-करते मर भी गये पर गंगाजी को प्रसन्न न कर पाये। सुखमंजस के पुत्र ब्रहूत और उनके पुत्र कद्दीप भी तपस्या करते-करते चल बसे और गंगाजी न आई। कद्दीप के पुत्र भगीरथ ने भी उसी श्रंखला में तपस्या जारी रखी और गंगा जी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिये तो भगीरथ ने जो उनका आशय था वह प्रकट किया कि हे गंगे मातेश्वरी! आप स्वयम् अपनी धारा से इस मृत्युलोक को पवित्र कीजिये जिससे हमारे पितर लोग मुक्ति प्राप्त कर सकें। गंगाजी ने कहा पुत्र! मैं तुम्हारी प्रार्थना मानने को तैयार हूँ। पर इस पृथ्वी पर मेरा भार कौन सहन करेगा, जब मैं ब्रह्मलोक से उतरूंगी ? भगीरथ ने विनती की कि माता आप ही इसका उपाय बतलाइये। जिस पर गंगा जी ने कहा कि तुम शिवजी महाराज से प्रार्थना करो कि वे मुझे अपनी जटाओं में संभालंे क्योंकि अन्य किसी में मेरे बोझ को सहन करने की शक्ति नहीं। अब भगीरथ ने शिव की तपस्या प्रारम्भ की और जब शिवजी महराज ने प्रसन्न होकर दर्शन दिये तो उनसे गंगा को अपनी जटाओं में धारण करे हेतु प्रार्थना की। भगवान् शंकर ने राजा भगीरथ की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इस प्रकार गंगाजी शिव की जटाओं में उतरी और फिर वहीं लीन हो गई। अब भगीरथ ने भगवान शिव की प्रार्थना की तो उन्होने अपनी जटा निचोड़ दी जिससे वह गंगा नही बह निकलीं। इस प्रकार गंगा जी में जो भी स्नान कर लेता है वह मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं।
3. श्रीमदभागवत महापुराण में बताया गया है की जब वामनावतार भगवान् विष्णु का दूसरा चरण जब ब्रह्मलोक में पहुंचा तब ब्रह्मा जी ने भगवन विष्णु का अर्ध्य देने के लिए अपने कमंडल के पवित्र जल से भगवान विष्णु का पाद्य प्रक्षालन किया। ब्रह्मा जी के कमण्डल से निकला वही पवित्र जल देवी गंगा के रूप में स्वर्गलोक में अवतरित हुआ।
4 . पूर्वकाल में सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी के मूर्तिमती प्रकृति से कहा की ‘देवी ! तुम सम्पूर्ण लोको की सृष्टि का कारण बनो। मैं तुमसे ही संसार की सृष्टि आरम्भ करूँगा’। यह सुन कर परा प्रकृति सात रूपों में अभिव्यक्त हुई : गायत्री, वाग्देवी, लक्ष्मी, उमादेवी,शक्तिबीजा, तपस्विनी और धर्मद्रवा ।
5. कई पौराणिक कहानियां कमंडल का उल्लेख करती हैं । भगवान विष्णु के बौने अवतार वामन ने राक्षस राजा महाबली से तीन फीट भूमि का अनुरोध किया।कमंडल के माध्यम से जल डालने से भूमि का दान पवित्र होता है । जब राक्षसों के उपदेशक शुक्र ने टोंटी को रोककर कमंडल से पानी के प्रवाह को रोकने की कोशिश की , तो महाबली ने टोंटी को छड़ी से छेद दिया, जिससे शुक्र अंधा हो गया।
6.द्वापर काल में राजा गंगेश्वर के गंगा नाम की पुत्री थी। इस गंगा से महाराजा शान्तनु का विवाह संस्कार हुआ था। इसके सात पुत्र उत्पन्न होकर समाप्त हो गए थे। तत्पश्चात् इनके गंगशील नाम का आठवां पुत्र उत्पन्न हुआ और यह दीर्घायु हुआ। इसके समय पर ब्रह्मचारी, पर्जन्य, कौड़िली, ब्रह्मचारी, देवव्रत और भीष्म पितामाह तथा गंगेय आदि नाम प्रसिद्ध हुए। ये ही कौरव पांडवों के पितामाह थे।
वास्तविकता का विश्लेषण : गंगा का वास्तविक रूप :

हमारी भाषा और साहित्य बहुत विशाल है,एक एक शब्द के कई अर्थ निकलते है,इसका कारण साहित्य के अलंकार की भाषा का अत्यधिक प्रयोग है।जिसको नही समझने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है और गंगा शब्द के साथ यहीं हुआ है।

आज भी आपको गंगा किसी व्यक्ति का नाम, कॉलोनी का नाम,उत्पाद का नाम ,शहर का नाम , आदि मिल जायेंगे इसी प्रकार गंगा एक भौतिक नदी का नाम भी है जब वर्तमान में उत्तराखंड के पहाड़ों से निकलती है।पहाड़ की बर्फ पिघलकर जल के रूप ने नीचे गिरती है और एक केंद्रीयकृत स्थान पर एकत्र होकर विशाल नदी का आकार धारण कर लेती है और कई राज्यों से बहती हुई समुंद्र में जाकर मिल जाती है।ये है गंगा नामक नदी का भौतिक स्वरूप
इसके अतिरिक्त गंगा शब्द का आध्यात्मिक (अलंकारिक)अर्थ भी है जिसको समझना जरूरी है।
विचार करे,:
1=यह गंगा नदी तो जल है जो बह रहा है और वह जड़ हैं। सर्वथा चेतना शून्य है।भला यह कैसे कन्या के रूप में राजा शान्तनु की पत्नी रूप में आ सकता हैं? इस कथा के पीछे एक कारण हो सकता है कि कोई कन्या गंगा नदी में किसी स्थान पर गिर कर बह गई हो, उसको किसी ने निकाल कर गंगा नाम रख दिया हो ,या गंगा नामक देवकन्या कभी गंगा में गिर गई हो व उसकी राजा शान्तनु ने रक्षा की हो।
परन्तु जल वाली गंगा नदी देवकन्या बन गई हो तो परमात्मा की बनाई हुई प्रकृति एवम् सृष्टि नियम के सर्वथा विरूद्ध है। अतः यह कैसे मान्य हो सकता हैं? जो सत्य के सिद्धान्त से बिल्कुल विपरीत है।

2.भौतिक गंगा का उदगम:
पहाड़ों से ही गंगा का निकास है। अतः यह कहना कि शिव की जटाओं से गंगा जी निकली का स्पष्ट ही यही अर्थ होता है कि पर्वत श्रृंखलाओं से श्रृंखला को जटा का रूप माना है

शिव का एक अन्य अर्थ भी हैं शिव नाम से पर्वत भी है। शिव नाम के एक राजा भी हुए हैं जिनका हिमालय पर शासन था, जिनके दो पुत्र गणेश और कार्तिकेयन,पत्नी का नाम पार्वती था।
राजा सगर सुखमंजस व उनके पुत्र और भगीरथ द्वारा आदि अनथक प्रयास से इन हिमालय की पर्वत श्रंखलाओं को काट-काट कर अनेक पीढ़ियों तक यह कार्यक्रम चलता रहा जिसमें सहस्त्रों लोगों ने अपने श्रम का योगदान दिया जिसको साठ हजार राजा सगर के पुत्रों की संज्ञा दी है। क्योंकि वे लोग सारी आयु परिश्रम करते-करते चले गये और इसी कार्य में लगे लगे मृत्यु को प्राप्त हो गये पर अपने जीवन में गंगा नदी को भारतवर्ष के मैदानों तक ना ला सके अतः यह कहा कि वे ऋषि द्वारा भस्म कर दिये गये। पर अन्ततः यह दुश्कर कार्य हो ही गया जिससे गंगा जी हिमालय से चलकर हुगली तक पहुँच उस विशाल सागर में लीन हो गई और इसका श्रेय राजा भगीरथ को मिला अतः गंगाजी को भागीरथी नाम से भी पुकारते है जिसका अर्थ होता है भगीरथ की संतान राजा या भगीरथ की पुत्री।
यह एक योजनाबद्ध कार्य था जिसको राजा सागर ने प्रारंभ किया था इसको अश्वमेध यज्ञ का नाम दिया। इनके बाद राजा सागर के पुत्र सुखमंजस उनके पुत्र ब्रहूत तथा ब्रहूत के पुत्र कद्दीप व कद्दीप के पुत्र भगीरथ अर्थात लगातार पांच पीढ़ियों तक वह विराट योजना चलती रही तब कहीं जाकर नदी को इस प्रकार जो हमें आज दृश्यमान है। भारतवर्ष (आर्यावर्त) के मैदानों में लाने में सफलता मिली जिससे इस देश के धन-धान्य में वृद्धि होकर यहाँ की भूमि शस्यश्यामला तथा उपजाऊ बन गई।

3.गंगा का अलंकरिक अर्थ :
इसका अभिप्राय एह है कि मानव शरीर में नौ द्वार ही गन्धर्व माने जाते हैं। मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्रारन्ध्र तक (इड़ा, पिंगला और सुष्पुम्णा) ये तीन नाड़ियाँ गंगा, यमुना और सरस्वती जिनकी आकाश गंगा मृत्यु लोक गंगा और पातालगंगा कहते हैं। तीनों गंगाएं या प्रयाग हमारे इस स्वर्गीय शरीर में हैं। गंगा ही नौ द्वारों में रमण कर रही हैं। इनको स्वस्थ्य व पवित्र करती रहती हैं। जैसे लौकिक गंगा में स्नान करके स्वच्छ हो जाते हैं। वैसे ही ब्रह्म की पुत्री रूप गंगा के द्वारा यह नौ द्वारों वाला शरीर पवित्र होता रहता है। परमात्मा का तथा आत्मा का सम्बन्ध पिता-पुत्र का है। यह ध्यान देने वाला विषय है कि जब आत्मा इस शरीर को त्याग कर चल देता है तब इस निष्प्राण शरीर को मानव अपवित्र मानते है। लेकिन इसमें जब तक आत्मा का निवास हैं इसको पवित्र मानते हैं। अतः पवित्र करने वाली गंगा आत्मा ही है।

4.पापमोचिनी गंगा

अलांकारिक कथा : एक समय सब प्रजा अपने कर्मों की मर्यादा को त्याग गंगा स्नान को चली जा रही थी। मार्ग में नारद मुनि विचर रहे थे देवर्षि नारद ने प्रजा से कहा आज तुम कहाँ चले जा रहे हो?उन्होने कहा कि महाराज आज हम गंगा स्नान करने जा रहे हैं। क्यों? जो जीवन में पाप किये है उनको गंगा को अर्पण करने। नारद ने सोचा अरे यह गंगा तो बड़ी पापिनी है जो प्रजा के इतने सारे पापों को एकत्रित कर लेती है। नारद मुनि गंगा के द्वार जा पहुंचे और कहा कि तुम बड़ी पापिनी हो तुम्हारे द्वारा इतने पाप एकत्रित हो गये है। गंगा ने कहा कि महाराज ये पाप मेरे द्वारा नहीं है मैं तो इन्हे समुद्रों को अपूर्ण कर देती हूँ। नारद जी समुद्रों के पास जा पहुंचे और कहा कि हे समुद्र! तुम तो बड़े पापी हो गंगा प्रजा के सारे पाप तुम्हारे द्वार भेज देती है। उन्हें तुम एकत्रित करके क्या करते हो समुद्र ने कहा भगवान् यह पाप हमारे द्वारा नहीं हैं। हम तो इन पापों को जब सूर्य का तेज आता है और जलों का उत्थान होता है तब सूर्य को अर्पण कर देते है। नारद जी सूर्य के द्वार पहुंचे और उनसे भी यही कहा कि इतने सारे प्रजा के पाप आपके द्वार एकत्रित है। उनका क्या करते हो? सूर्य ने कहा कि हम तो इन्हें मेघों को दे देते हैं। अब नारद ही मेघों के द्वार पहुँचे और कहा कि अरे मेघों तुम बड़े पापी हो प्रजा के सारे पाप तुम्हारे पास आन पहुंचे हैं। मेघों ने उत्तर दिया नारद जी आप कितने भोले हैं यह पाप हमारे द्वार क्यों होते हम तो पापों की वृष्टि कर देते हैं और यह सब वृष्टि रूप बन कर प्रजा के पास लौट जाते है।
विश्लेषण : इस कथा को विचारने से प्रतीत होता हैं कि जो प्रजा ने पाप किये वे लौटकर उसी के पास पहुँच गये।
अश्वयेमेव भोक्तव्य्म कृतम् कर्म शुभाशुभम्

यानि जो जैसे शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल अवश्य ही उसको प्राप्त होता है। इसे किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता यह प्रभु का अटल नियम है।

5.शिव का अर्थ ; शिव नाम उस कल्याणमयी परमात्मा का है और उसकी जटायें जिनसे गंगा जी बहती है। वेद का पाठ अनेक प्रकार का है। जैसे घनपाठ, मालापाठ और इसी प्रकार का एक जटापाठ है। तात्पर्य यही कि मानव को जटा परमात्मा से मेल करता है।

6.गंगा के साथ वाले स्थानों को तीर्थ क्यों कहते है?

इसके कई मुख्य कारण है:

1.जल ही जीवन है,गंगा के आसपास जल की पर्याप्त उपलब्धता रहती है जिससे हरियाली,शुद्ध वायु और अच्छी फसल प्राप्त होती है, पर्याप्त वनस्पति, फल और भोजन की प्राप्ति होती है।मनुष्य के अतिरिक्त पशु पक्षी भी आनंदमय रहते है,उद्योग और व्यवसाय खूब फलता फूलता है।

  1. क्या कारण है की प्राचीन काल में यहाँ अनेक ऋषि-मुनियों के आश्रम होते थे, जहाँ पहुंच कर गृहस्थी लोग नर-नारी यदा-कदा सांसारिक कार्यों को भूलकर उनके चरणों में बैठ उस प्रभु के ज्ञान विज्ञान की चर्चा सुन शान्ति तथा आनन्द प्राप्त करते थे।

  2. इसी बात को वेद में कहा है।
    उपहवरे गिरीणाम् संगमे च नदीनाम।
    धिया विप्रो अजायत।। सा. १४३।।
    अर्थात्:-पर्वतों की कन्दराओं में और नदियों के संगमों पर बुद्धिमान् ब्राह्मण विद्वान पैदा होते हैं। वहाँ का वातावरण इतना शुद्ध-पवित्र होता है कि प्रकृति के आंगन में मानव अपनी सब अथा-व्यथा भूल जाता है और वहाँ पहुँचकर उसका मन परमात्मा की गोद में जाने को लालायित हो उठता है।

  3. ये भौतिक गंगा नदी मानव मुक्ति का साधन नही है। इस गंगा नदी के जल से तो केवल भौतिक शरीर ही स्वच्छ किया जा सकता है। मानव का अन्तः करण तो ज्ञान पूर्वक कर्म करने से ही पवित्र होगा अन्यथा नही।
    ऋते ज्ञानन्न मुक्ति’
    अर्थात् – बिना ज्ञान के मुक्ति संभव बिलकुल भी नहीं है।
    वास्त्विकता के भ्रमित करने के लिए कुछ संस्कृत के श्लोक भी बनाए गए हैं, बानगी देखिए:
    गंगागगेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि।
    मुच्यते सर्व पापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।
    जो कोई सैकड़ों कोस दूर से भी गंगा-गंगा कहे तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णुलोक अर्थात् वैकुण्ठ को चला जाता है। यह सब मित्या धारण है।
    हम तो देखते हैं कि जो गंगातट पर ही वास करते हैं, वे कहीं अधिक दुखी हैं। इस प्रकार की मिथ्या बातों से अधिक पाप वृद्धि होती है।
    यह है, सच्चा गंगा स्नान का महत्व गंगा में नहाने से केवल शरीर स्वच्छ होता है वहाँ ऋषि-मुनियों के सत्संग से ज्ञान गंगा का उदय होता है।

7.गंगा का आध्यात्मिक/अलांकारिक वर्णन :

जीवात्मा ही गंगा है

जैसा की ऊपर बताया गया है कि गंगा स्नान से शरीर शुद्ध होता है और वहाँ ऋषि-मुनियों के सत्संग से ज्ञान गंगा का उदय होता है।ज्ञान के इस अविरल प्रवाह की गंगा को त्रिगंगा, त्रिवेणी एवं सरस्वती तो विद्या को कहते ही है। इस प्रकार यह त्रिविद्या उस परमपिता परमात्मा ने दी ये तीनों गंगायें हमारे शरीर में बह रही हैं। जिनको योगी समाधि द्वारा अपने समक्ष करता है। जब योगी अपनी आत्मा को जानने वाला बन जाता है तब उसकी आत्मा का उत्थान होकर परमात्मा से मिलन कर लेता है। बस यही है गंगा स्नान जिसके बारे में अलांकारिक वर्णन मिलता है। परन्तु मानव ने उसके यथार्थ रूप को समझा नहीं।
इस मानव शरीर में तीन नाड़ियाँ- इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा अथवा गंगा, यमुना, सरस्वती नाम से प्रसिद्ध हैं। जब मानव योगाभ्यासी बनकर मूलाधार में ध्यान करके रमण करता हैं। तब उसको मृत्युलोक गंगा का ज्ञान होता है। इसके पश्चात् जब आत्मा नाभिचक्र में और हृदय चक्र में ध्यानावस्था में पहुंचता हैं, तब उसे आकाशगंगा का ज्ञान होता हैं और जब योगाभ्यासी आत्मा समाधि अवस्था में प्राणेन्द्रिय-चक्र में ध्यान लगता हैं, तब वह त्रिवेणी में पहुँच जाता है या त्रिवेण का साक्षातकार करता है। इससे आगे चलकर आत्मा जब ब्रह्मरन्ध में पहुंच जाता है, तब उस योगी को ब्रह्मलोक की गंगा का ज्ञाता होता है। परन्तु मानव ने इस रूप रेखा को ठीक प्रकार से जाना नहीं इसलिए स्थूल अर्थों की कल्पना द्वारा व्यर्थ भटकता रहता है।

त्रिवेणी में गोता लगाने के वास्तविक अर्थ

परमात्मा ने हमें त्रिविद्या के रूप में वेदों द्वारा ज्ञान दिया। ये वेदों में कौन सी त्रिविद्या हैं जो उस परमपिता प्रभु ने आदि सृष्टि में ज्ञान दिया? ये अन्य कुछ नहीं इन्ही को ऋषियों ने ज्ञान, कर्म, उपासना नामों से अभिव्यक्त किया है। सर्वप्रथम देखो ऋग्वेद द्वारा ब्रह्मचारी ज्ञान प्राप्त करता है। क्या लौकिक और क्या आध्यात्मिक सभी प्रकार का ज्ञान ऋग्वेद संहिता में निहित है। उसके बाद यजुर्वेद जिसमें यज्ञों का वर्णन विधि-विधान अथवा गृहस्थ में मानव को वह ज्ञान जो उसने ब्रह्मचर्य अवस्था में प्राप्त किया था, उसको कर्म में परिणत करने का शुभ अवसर मिलता है। और तत्पश्चात् सामवेद जो पूर्ण रूप से उपासना विधि का ज्ञान कराता है। वानप्रस्थ आश्रम में साधक बनकर अन्तिम संन्यास्थ आश्रम की ओर अथर्ववेद को हृदयंगम करके बढ़ जाता है।
वास्तव में तो इन चारों वेदों में इन त्रिविद्यओं की ही व्याख्या है। और इनसे बाहर कहीं कुछ भी रह नहीं जाता सर्वस्व इस त्रिविद्या में समा जाता है। इन्हीं को त्रिवेणी गंगा-यमुना-सरस्वती कहा है।आज मानव को वेद की गंगा में स्नान करना चाहिए और इस मार्ग पर चलते हुए योगाभ्यास आत्मानन्द प्राप्त करना चाहिये। जो मानव इस गंगा में स्नान नहीं करता उसका जीवन व्यर्थ है।

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